इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण

लोक सेवी कार्यकर्ताओं का उत्पादन

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जन- जागरण के लिए शान्तिकुञ्ज से प्रचार टोलियाँ देश भर में भेजी जाती हैं, जिनके द्वारा बड़ी संख्या में उपस्थित जनता को अपना जीवनक्रम बदलने के लिए मर्मस्पर्शी उद्बोधन दिया जाता था। अब माँग और आवश्यकता बहुत अधिक बढ़ गई है। वैसे प्रशिक्षित प्रचारक हर क्षेत्र में बनते और बसते ही जाते हैं। वे अपने सम्पर्क क्षेत्र में हर दिन दो- चार घण्टे मन लगाकर जनसम्पर्क साधते और उल्टी दिशा में बहने वाले प्रवाह को उलटकर सीधा करने के लिए अपनी सामर्थ्य भर प्रयत्न करते रहते हैं।

    उपर्युक्त प्रचार प्रक्रिया के अतिरिक्त बड़ी बात है- समर्पित कार्यकर्ताओं का नव सृजन के लिए जीवनदान। यह नियोजन अति कठिन है, क्योंकि आमतौर से हर व्यक्ति निजी स्वार्थ साधन में इतना उलझा है, कि उसे युग क्रान्ति जैसे परमार्थ प्रयोजनों में न तो रुचि है और न अवकाश। हर क्षेत्र में वेतन भोगी ही काम करते दीखते हैं। पर जहाँ तक भाव संवेदनाओं में आदर्शवादिता को कूट- कूट कर भरने का सवाल है, वहाँ साधु- ब्राह्मण, परिव्राजक, वानप्रस्थ स्तर के निस्पृह कार्यकर्ता चाहिए; अन्यथा वे जन साधारण की श्रद्धा एवं आदर्शवादी कार्यों के लिए उनका सहयोगी न पा सकेंगे।

    इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए, शान्तिकुञ्ज का प्रयास स्वावलम्बी लोकसेवी तैयार करने का है। परिवार में श्रमदान तथा कुटीर उद्योगों के माध्यम से आजीविका चलाते रहें। कभी ऐसी परम्परा रही भी है। ब्राह्मण परिवार में से एक परिव्राजक लोक मंगल के लिए समर्पित किया जाता था। क्षत्रिय, हर परिवार पीछे एक सैनिक दिया करते थे। सिख धर्म में भी परिवार पीछे एक व्यक्ति गुरु कार्यों के लिए समर्पित किया जाता था। इस परम्परा ने ही उन कार्य क्षेत्रों को उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ प्रदान की हैं। अब वह सब कुछ लुप्त हो गया। शान्तिकुञ्ज ने उपर्युक्त परम्परा को ‘वानप्रस्थ परम्परा का पुनर्जीवन’ के रूप में आरम्भ किया है और वह निरन्तर बढ़ती जा रही है।

    शान्तिकुञ्ज परिसर के क्षेत्र में ही इन दिनों प्राय: १५०० व्यक्ति निवास करते हैं। इनमें से अधिकांश उच्च शिक्षित हैं, जो अपनी अच्छी खासी आजीविका को छोड़कर समर्पित भाव से आश्रम में आए हैं और नित्य दस घण्टे श्रमदानी स्वयं सेवक की तरह काम करते हैं। आश्रम में न कोई सफाई कर्मचारी हैं, न धोबी, न नाई, न पहरेदार। इस प्रकार की आवश्यकताएँ कार्यकर्ता ही मिल- जुलकर पूरी कर लेते हैं। जिनके पास निज की आर्थिक व्यवस्था है, वे उससे गुजारा करते हैं। जिनके पास वह नही हैं, वे आश्रम से ब्राह्मणोचित आजीविका लेकर, मितव्ययिता भरा जीवन आत्मिक उल्लासपूर्वक जीते हैं। आध्यात्मिक साम्यवाद का यह व्यावहारिक उपयोग देखते ही बनता है। लोग कहते सुने गए हैं कि व्यावहारिक साम्यवाद किसी को देखना हो, तो शान्तिकुञ्ज आकर देखें। यहाँ ‘जाति वंश सब एक समान’ नर और नारी एक समान का उद्घोष पूरी तरह चरितार्थ होते देखा जा सकता है।

    इक्कीसवीं सदी की अनिवार्य आवश्यकताओं को देखते हुए इसी वर्ष यह सङ्कल्प लिया गया है कि युग सन्धि के इन बारह वर्षों में एक लाख लोकसेवी प्रशिक्षित किए जाएँगे और विभिन्न प्रयोजनों से सम्बन्धित कार्यक्षेत्र में उतारे जाएँगे। इसके लिए स्थानों की आवश्यकता देखते हुए, उनके लिए नए भवन निर्माण की योजना चल पड़ी है। आशा की गई है यही आश्रम कुछ ही समय में प्राय: दूना कलेवर विस्तृत कर लेगा।

    शान्तिकुञ्ज की अर्थ व्यवस्था परिजनों के स्वेच्छा सहयोग से चलती है। मिशन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए परिजन बिना माँगे स्वेच्छा- श्रद्धा से जो सहयोग भेज देते हैं, उसी से मितव्ययितापूर्वक निर्वाह हो जाता है। इन स्वेच्छा सहयोगियों में अधिकांश ऐसे हैं, जो दस पैसा नित्य जितनी सहायता ही प्रस्तुत कर पाते हैं। विनोबा का मत था कि किसी संस्था को तभी तक जीवित रहना चाहिए, जब तक कि उसकी उपयोगिता अनुभव करने वाले उसे अन्त:प्रेरणा से सींचते रहें। इसी आदर्श का निर्वाह करते हुए शान्तिकुञ्ज ने अब तक का अभिनव कार्य चलाया है। भविष्य की बड़ी योजनाएँ भी इसी आधार पर पूरी होती रहेंगी।

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