जन मानस के परिष्कार के लिए सशक्त लेखनी और वाणी की आवश्यकता तो है ही, इसके साथ ही ऐसा व्यक्तित्व भी चाहिए, जो अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अन्यान्यों को युग के अनुरूप अपने विचारों और कार्यों में आवश्यक परिवर्तन के लिए प्रेरित कर सके। यह तीनों ही कार्य मिशन के सूत्र संचालक ने अपने समर्थ जीवन काल में पूरी तरह सम्पन्न किए हैं। समय, श्रम और मनोयोग का एक-कण भी अभीष्ट लक्ष्य के अतिरिक्त और किसी काम में खर्च नहीं किया।
प्रत्यक्ष है कि लगभग सभी आर्ष ग्रन्थों को संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद आचार्य जी ने किया है। चारों वेद, १०८ उपनिषद्, छहों दर्शन, चौबीस गीताएँ, स्मृतियाँ, ब्राह्मण आरण्यक आदि ग्रन्थों के अध्ययन, अनुवाद करने और उन्हें सर्व साधारण तक पहुँचाने में अथक एवं सफल परिश्रम किया है। लगभग १५०० पुस्तकें ऐसी लिखी हैं, जो व्यावहारिक जीवन में अध्यात्म सिद्धान्तों के समावेश का, सरल एवं अनुभव भरा मार्गदर्शन करती हैं। इन दिनों आठ मासिक पत्रिकाओं के प्रकाशन की बात पहले ही बताई जा चुकी है। इस साहित्य का अनुवाद और प्रकाशन हुआ है सो अलग। बाजारू मूल्य पर साहित्य खरीदना इन दिनों सर्व- साधारण के वश की बात नहीं है। इसलिए लगभग लागत मूल्य पर उसका प्रकाशन और झोला पुस्तकालयों एवं ज्ञान-रथों के माध्यम से उसे घर-घर पहुँचाने का प्रयास अपने ढंग का अनोखा है। प्राणवान् परिजन घर-घर जाकर शिक्षितों को युग साहित्य बिना मूल्य पढ़ने के लिए देते हैं और पढ़ लेने पर वापस ले आते हैं। बिना पढ़ों को सुनाते हैं। इसी सिलसिले में कुछ साहित्य बिकता भी रहता है और घरेलू पुस्तकालय बनाने की लम्बी शृंखला चलती रहती है।
जन-मानस के परिष्कार की विचार क्रान्ति सम्पन्न करने के लिए, दूसरा उपाय है—वाणी, अर्थात् संगीत और प्रवचन। इसके लिए शान्तिकुञ्ज में ऐसी सत्र शृंखला निरन्तर चलती रहती है, जिसके हर सत्र में हजारों लोग आते हैं और उपरोक्त दोनों ही विधाओं को सीखकर जाते हैं। उन्हें यह विशेष रूप से सिखाया जाता है कि गिरों को उठाने का दायित्व लेने वाले को अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत और साहसी होना चाहिए। मार्गदर्शक का निजी व्यक्तित्व, लेखनी-वाणी से अधिक सशक्त है। यदि वह ढीला-पोला या गया गुजरा होता, तो अभीष्ट उद्देश्य पूर्ण होने के स्थान पर उपहास और कौतुक ही पैदा होता। सूत्र संचालक से मिली प्रेरणा के कारण ही अब तक इस प्रशिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत, शान्तिकुञ्ज ने प्राय: एक लाख युग शिल्पियों को कार्यक्षेत्र में उतारा है।
इन कार्यकर्ताओं की अपनी गतिविधियाँ, योजनाबद्ध रूप से अपने निकटवर्ती कार्य क्षेत्र में निरन्तर चलती रहें, इसके लिए संस्था द्वारा जगह-जगह छोटे-बड़े आश्रम बना दिए गए, हैं, जिन्हें ‘प्रज्ञापीठ’ नाम दिया जाता है। इसकी संख्या कुछ दिन पूर्व तक ढाई हजार के करीब थी, अब वह बढ़ते-बढ़ते तीन हजार तक पहुँच चुकी है। वें संस्थान अपनी व्यवस्था अंशदान और समयदान देकर स्वयं चला लेते हैं।