पूजा- विधि में प्रज्ञा परिवार के परिजन आमतौर से अपनी- अपनी रुचि और
सुविधा के अनुरूप जप, ध्यान और प्राणायाम का अवलम्बन अपनाते हैं। इन तीनों
का प्राण- प्रवाह तभी वरदान बन कर अवतरित होता है, जब इन तीनों के पीछे
अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई प्रेरणाओं को अपनाया जाये।
नाम जप
का तात्पर्य है- जिस परमेश्वर को- उसके विधान को आमतौर से हम भूले रहते
हैं, उसको बार- बार स्मृति पटल पर अंकित करें, विस्मरण की भूल न होने दें।
सुर- दुर्लभ मनुष्य जीवन की महती अनुकम्पा और उसके साथ जुड़ी हुई स्रष्टा
की आकांक्षा को समझने, अपनाने की मानसिकता बनाए रहने का नित्य प्रयत्न करना
ही नाम- जप का महत्त्व और माहात्म्य है। साबुन रगड़ने से शरीर और कपड़ा
स्वच्छ होता है। घिसाई- रँगाई करने से निशान पड़ने और चमकने का अवसर मिलता
है। जप करने वाले अपने व्यक्तित्व को इसी आधार पर विकसित करें।
ध्यान जिनका किया जाता है, उन्हें लक्ष्य मानकर तद्रूप बनने का प्रयत्न
किया जाता है। राम, कृष्ण, शिव आदि की ध्यान- धारणा का यही प्रयोजन है कि
उस स्तर की महानता से अपने को ओत- प्रोत करें। परिजन प्राय: गायत्री मन्त्र
का जप और उदीयमान सूर्य का ध्यान करते हैं। गायत्री अर्थात् सामूहिक
विवेकशीलता। इस प्रक्रिया से अनुप्राणित होना ही गायत्री जप है। सूर्य की
दो विशेषताएँ सुपरिचित हैं- एक ऊर्जा, दूसरी आभा। हम ऊर्जावान अर्थात्
प्रगतिशील, पुरुषार्थ परायण बनें। ज्ञान रूपी प्रकाश से सर्वत्र
प्रगतिशीलता का, सत्प्रवृत्तियों का विस्तार करें। स्वयं प्रकाशित रहें,
दूसरों को प्रकाशवान् बनाएँ। गर्मी और आलोक की आभा जीवन के हर क्षण में, हर
कण में ओत- प्रोत रहे, यही सूर्य ध्यान का मुख्य प्रयोजन है। ध्यान के समय
शरीर में ओजस्, मस्तिष्क में तेजस् और अन्तःकरण में वर्चस् की अविच्छिन्न
वर्षा जैसी भावना की जाती है। इस प्रक्रिया को मात्र कल्पना- जल्पना भर
मानकर छोड़ नहीं दिया जाना चाहिए, वरन् तदनुरूप अपने आपको विनिर्मित करने
का प्रयत्न भी प्राण- पण से करना चाहिए।
प्राणायाम में नासिका
द्वारा ब्रह्माण्डव्यापी प्राण- तत्त्व को खींचने, धारण करने और घुसे हुए
अशुभ को बुहार फेंकने की भावना की जाती है। संसार में भरा तो भला- बुरा सभी
कुछ है, पर हम अपने लिए मात्र दिव्यता प्राप्ति को ही उपयुक्त समझें। जो
श्रेष्ठ- उत्कृष्ट है, उसी को पकड़ने और सत्ता में प्रतिष्ठित करने का
प्रयत्न करें। नितान्त निरीह, दुर्बल, कायर- कातर न रहें, वरन् ऐसे
प्राणवान् बनें कि अपने में और सम्पर्क क्षेत्र में प्राण- चेतना का उभार-
विस्तार करते रहने में संलग्न रह सकें।
जप, ध्यान और प्राणायाम
की क्रिया- प्रक्रिया साधक बहुत दिनों से अपनाते चले आ रहे हैं। कुछ शंका
हो, तो निकटवर्ती किसी जानकार से पूछकर उस कमी को पूरा किया जा सकता है।
अपने सुविधानुसार समय एवं कृत्य में आवश्यक हेर- फेर भी किया जा सकता है,
परन्तु यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि प्रत्येक कर्मकाण्डों के पीछे
आत्मविकास एवं समाज उत्कर्ष की जो अभिव्यंजनाएँ भरी पड़ी हैं, उन्हें
प्रमुख माना जाये और लकीर पीटने जैसी नहीं, वरन् प्रेरणा से भरी- पूरी
मानसिकता को उस आधार पर समुन्नत- परिष्कृत किया जाये।
एक प्रचलन
साधना के साथ यह भी जुड़ा हुआ है कि गुरुवार को हल्का- भारी उपवास किया
जाये और ब्रह्मचर्य पाला जाये। दोनों के पीछे संयम साधना का तत्त्वज्ञान
समाविष्ट है। इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम वाली
प्रक्रिया यदि बढ़ने, फलने- फूलने दी जाये, तो वह उपर्युक्त चतुर्विध
संयमों की पकड़ अधिकाधिक कड़ी करते हुए साधकों को सच्चे अर्थों में तपस्वी,
बनने की स्थिति तक घसीट ले जाती है। ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी बनने के
त्रिविध लक्ष्य प्राप्त करने के लिये किये गये प्रयत्नरतों को ही सच्चे
अर्थों में तपस्वी कहते हैं। तप की दिव्य शक्ति सामर्थ्य से अध्यात्म
क्षेत्र का हर अनुयायी भली प्रकार परिचित एवं प्रभावित होना चाहिए।
स्नान, भोजन, शयन, मल- विसर्जन आदि नित्य कर्मों की तरह ही, उपासना-
आराधना के लिए भी कुछ समय नित्य रहना चाहिए, ताकि जीवन- लक्ष्य को हृदयंगम
किये रहने में विस्मरण या प्रमाद उत्पन्न न होने पाये। प्रातःकाल आँख खुलते
ही नया जन्म होने जैसी भावना की जाये और आज की अवधि को समग्र जीवन मानते
हुए इस प्रकार की दिनचर्या बनाई जाये कि समय, श्रम, चिन्तन और व्यवहार में
अधिकाधिक उत्कृष्टता का समावेश होता रहे। प्रातःकाल बनी उसी रूपरेखा के
अनुरूप वह दिन बिताया जाये, ताकि प्रमाद और भटकाव की कहीं गुंजायश न रहे।
इसी प्रकार रात्रि को सोते समय एक दिन के जीवन का अवसान होते हुए मानना
चाहिए और उस दिन के क्रियाकलापों की ऐसी कठोर समीक्षा करनी चाहिए कि बन
पड़े व्यतिक्रमों का दूसरे दिन प्रायश्चित्त किया जा सके और अगले दिन अधिक
सतर्कतापूर्वक अधिक शालीनता का उपक्रम अपनाया जा सके।
दान,
पुण्य, तीर्थयात्रा, परमार्थ जैसे धर्म कार्यों के लिए अन्तराल में मन्द या
तीव्र उमंग रहती है। इसे भी ईश्वर का संकेत, मार्गदर्शन एवं परामर्श मानकर
अपनाने के लिए कुछ न कुछ प्रयत्न करना ही चाहिए। समय के अनुरूप इन सभी का
समन्वय विवेक- विस्तार की एक ही प्रक्रिया में केन्द्रित हो जाता है।
ज्ञानयज्ञ, विचार क्रान्ति या लोकमानस का परिष्कार, सत्प्रवृत्ति
सम्वर्द्धन आदि नामों से इन्हें ही प्रतिपादित किया जाता है। समय की पुकार,
विश्वात्मा की गुहार भी इसी को कह सकते हैं। भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट- आचरण
ने ही असंख्य समस्याओं और संकटों के घटाटोप खड़े किये हैं। इन सबका
निवारण, निराकरण मात्र एक ही उपाय उपचार से सम्भव हो सकता है कि दूरदर्शी
विवेकशीलता को जनमानस में उभारने का प्रयत्न किया जाये। चिन्तन, चरित्र एवं
व्यवहार में उत्कृष्टता का अभिवर्द्धन अन्तःकरण में भाव- संवेदना जगाने से
ही सम्भव हो सकता है। यही अपने समय का युग धर्म है। कोई चाहे, तो महाकाल
की चुनौती अथवा दिव्य सत्ता का भाव भरा आह्वान भी उसे कह सकते हैं।