जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र

पंचशीलों का अभ्यास करें

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प्राचीनकाल में हर एक साधक को प्रारम्भ में यम- नियम साधने पड़ते थे। उसके अन्तर्गत सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह आदि की साधना अनिवार्य है। उस समय के सामाजिक वातावरण में वे सर्वसाधारण के लिए साध्य रहे होंगे, परन्तु आज की स्थिति में वैसा सम्भव नहीं दीखता। अब तो व्यावहारिक पंचशीलों का परिपालन आदतों में सम्मिलित हो सके, तो भी काम चल जायेगा। श्रमशीलता, मितव्ययिता, शिष्टता, सुव्यवस्था और सहकारिता के पञ्चशील हमारे क्रिया- कलाप में पूरी तरह घुल- मिल सकें, तो समझना चाहिए कि प्राचीनकाल की तप- साधना के समतुल्य साधनात्मक साहस बन पड़ा।

    १. आलस्य, प्रमाद, विलासिता, ठाट- बाट आदि के कारण आदमी बुरी तरह हरामखोर बन गया है। उपलब्ध शक्ति का एक चौथाई भाग भी उत्पादक श्रम में नियोजित नहीं हो पाता। निठल्लेपन में शारीरिक, मानसिक असमर्थता पनपती है। आर्थिक तथा दूसरी सभी प्रगतियों का द्वार बन्द हो जाता है। श्रम के बिना शरीर निरोग एवं सशक्त भी नहीं रह सकता। श्रम के बिना उत्पादन भी सम्भव नहीं। समाज में विडम्बनाएँ इसी कारण पनपती रही हैं कि नर- नारी श्रम न करने में बड़प्पन अनुभव करने लगे, कामचोरी, कम- से श्रम करके अधिक से अधिक लाभ पाने की प्रवृत्तियाँ समाज को अपंग जैसा बनाए दे रही हैं।

    इस भयंकरता को समझते हुए समय को तत्परता और तन्मयता भरे परिश्रम के साथ जोड़ कर दिनचर्या बनाई जाए, तो प्रतीत होगा कि उपलब्ध समय एवं साधनों में ही प्रगतिशीलता के साथ जुड़े हुए अनेकानेक सत्परिणाम उपलब्ध होते चले जाते हैं।

    २. अपव्यय आज का दूसरा अभिशाप है। दुर्व्यसनों में, फैशन तथा सजधज जैसे आडम्बरों में उतना समय और पैसा खर्च होता है कि उसे बचा लेने पर अपने तथा दूसरों के अनेक प्रयोजन सध सकते हैं। फिजूलखर्ची का कोई अन्त नहीं। उसे किसी भी सीमा तक किया जा सकता है। उसकी ललक जब उभरती है, तो पूरा कर सकना साधारण श्रम, कौशल के लिये सम्भव ही नहीं हो पाता। तब बेईमानी, बदमाशी का आश्रय लिए बिना काम नहीं चलता। इस अमीरी के प्रदर्शन से कभी किसी को भले ही सम्मान मिलता रहा हो, पर अब तो उसके कारण ईर्ष्या ही उपजती है। उसके फलस्वरूप मात्र उसकी नकल बनाने या फिर नीचा दिखाने की प्रतिक्रिया दीख पड़ती है। ‘‘सादा जीवन उच्च विचार’’ वाली उत्कृष्टता का तो एक प्रकार से समापन ही होता जाता है। उदारता को चरितार्थ करने का अवसर तो तब मिले, जब अपव्यय से कुछ बचे।

    ३. शिष्टता, सभ्यता की आधारशिला है और अशिष्टता, अनगढ़पन की सबसे बुरी प्रतिक्रिया है। दूसरों के असम्मान और अपने अहंकार के संयोग से ही ऐसी उद्दण्डता उभरती है कि शिष्ट, मधुर, विनीत एवं सज्जनोचित व्यवहार करते ही नहीं बन पड़ता। यही प्रवृत्ति अशिष्टता बनकर उभरती है। उसे अपनाने वालों की छवि ही धूमिल होती है। इसके स्थान पर विनम्रता- सभ्यता का परिचय देना ही भलमनसाहत का प्रमुख चिह्न है। यह बरताव बड़ों के साथ ही नहीं, छोटों के साथ भी उतनी ही तत्परतापूर्वक किया जाना चाहिए।

    यह उक्ति बहुत महत्त्वपूर्ण है कि ‘‘शालीनता बिना मोल मिलती है, परन्तु उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है।’’ शालीनता का जिन्हें अभ्यास है, उनके परिवार में कभी कलह नहीं होती, सौमनस्य का स्वर्गीय वातावरण बना रहता है। शालीन व्यक्ति के मित्र- सहयोगी अनायास ही बढ़ते चले जाते हैं, जब कि अशिष्ट व्यक्ति अपनों को भी पराया कर डालता है। जीवन की सफलता में शालीनता का असाधारण योगदान रहता है।

    ४. सुव्यवस्था का तात्पर्य है अपने समय, श्रम, मनोयोग, जीवनक्रम, शरीर, सामर्थ्य आदि सभी सम्बद्ध उत्पादनों का सुनियोजन। उन्हें इस प्रकार सँभाल- सँभाल कर सुनियोजित रखा जाना चाहिए कि उनको अस्त- व्यस्तता से बचाया जा सके और अधिकाधिक समय तक उनका समुचित लाभ उठाया जा सके। यह प्रक्रिया स्वभाव में सुव्यवस्था की दृष्टि रहने पर ही बन पड़ती है। लोकव्यवहार का यह सबसे बड़ा सद्गुण है। जिसे सँभालना, सदुपयोग करना, सुनियोजित रखना आ गया, समझना चाहिए कि उसे गुणवानों में गिना जायेगा। उसका लोहा सर्वत्र माना जायेगा। सुनियोजन ही सौन्दर्य है, उसी को कला- कौशल भी कहना चाहिए। मैनेजर, गवर्नर, सुपरवाइजर जैसे प्रतिष्ठित पदों का श्रेय उन्हीं को मिलता है, जो न केवल स्वयं को, बल्कि अपने परिकर को भी सुव्यवस्था के अन्तर्गत चलने, अनुशासन में रहने के लिये सहमत करते हैं। प्रगति का प्रमुख आधार यही है।

    ५. पाँचवाँ शील है- सहकारिता मिल- जुलकर काम करना। आदान- प्रदान का उपक्रम बनाये रहने में सतर्कता बरतना। परिवार में, कारोबार में, लोकव्यवहार में, सामञ्जस्य बनाये रह सकना तभी बन पड़ता है, जब उदारता भरी सहकारिता को अपने सभी क्रिया- कलापों में सुनियोजित रखा जा सके ।। जो एकाकीपन से ग्रसित है, उसे असामाजिक, उपेक्षित रहना पड़ता है और नीरसता, निराशा के बीच ही दिन गुजरता है। बदले में स्नेह, सहयोग, सम्मान पाने का अवसर उन्हें मिलता ही नहीं, जो संकीर्ण स्वार्थपरता से जकड़े, निष्ठुर प्रकृति के होते हैं।

    बड़े कार्य संयुक्त शक्ति से ही सम्पन्न हो पाते हैं। देव शक्तियों के संयोग से दुर्गा के प्रादुर्भाव की कथा सर्वविदित है। संकीर्ण स्वार्थपरता के स्थान पर उदार सहकारिता की प्रवृत्ति जगाने से, वैसा अभ्यास बनाने से ही संघ शक्ति जाग्रत् होती है। योग्य कार्यकर्ता होने पर भी सहकारिता के अभाव में न कोई संस्था पनप सकती है और न कोई व्यवसाय प्रगति करता है।

    उपर्युक्त पाँच दुर्गुणों को यदि छोड़ा जा सके और उसके विपरीत सदाशयता की रीति- नीति को अपनाया जा सके, तो समझना चाहिए कि मानवीय गरिमा के अनुरूप मर्यादा पालन बन पड़ा और हँसती- हँसाती उठती- उठाती जिन्दगी का रहस्य हाथ लगा। ऐसे ही लोग धन्य बनते और अपने समय, परिकर एवं वातावरण को धन्य बनाते हैं। व्यावहारिक धर्म- धारणा का परिपालन इतने सीमित सद्गुणों को क्रिया- कलापों का अंग बना लेने पर भी सध जाता है।

    इन सद्गुणों को अपने दृष्टिकोण, स्वभाव एवं अभ्यास में उतारने का सबसे अच्छा अवसर परिवार- परिकर के बीच मिलता है। यदि घर के आवश्यक कार्य परिवार- परिकर के सभी सदस्य साथ- साथ सहयोगपूर्वक निपटाया करें, उत्साह की प्रशंसा और उपेक्षा की भर्त्सना किया करें, तो इतने से ही स्वल्प परिवर्तन से, परिवार के हर सदस्य को सुसंस्कारी बनाने का अवसर मिल सकता है। परिवार संस्था ही नर- रत्नों की खदान बन सकती है। परिवार में सद्गुणों का अभ्यास जो करते हैं, उनके लिये यह तनिक भी कठिन नहीं रहता कि लोक व्यवहार में पग- पग पर शालीनता का परिचय दें और बदले में उत्साह भरी उपलब्धियों का पूरा- पूरा लाभ सहज प्राप्त करते रहें।
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