नवयुग का मत्स्यावतार

थोड़ा ही सही, नियमित करें

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साप्ताहिक सत्संगों, जन्मदिवसों, दीपयज्ञों एवं पर्व- आयोजनों के माध्यम से अधिकाधिक लोगों को एकत्रित करके, उनके अन्तराल में युग चेतना का आलोक जगमगाते रहने की बात अनेक बार सुनाई जाती रही है। बड़े पर्वों पर बड़े आयोजन करना भी उत्साही जनों के लिए कुछ कठिन काम नहीं है। झोला पुस्तकालयों की रीति- नीति अपनाकर, हर शिक्षित को घर बैठे बिना मूल्य युग साहित्य पहुँचाते और वापस लेते रहने का, एक छोटा किन्तु सशक्त आधार अपनाने के लिए भी संकेत, अनुरोध और आग्रह किया जाता रहा है। बिना पढ़े लोग भी इसे सुनकर नवयुग का, नवजीवन जैसा सन्देश प्राप्त कर सकते हैं।

    धर्म तन्त्र से लोक शिक्षण की विधा में, दीपयज्ञ माध्यम को समय के नितान्त अनुरूप माना जा सकता है। अनेक विधि- विधानों से जुड़े, मन्त्र विधा वाले- खर्चीले कर्मकाण्डों को पूरा करने के लिए बड़ी राशि चाहिए और साथ ही उनमें नियोजित लोगों का सहयोग पाने के लिए प्रचुर मात्रा में दक्षिणा का प्रबन्ध करना भी अनिवार्य हो जाता है। दीपयज्ञों की विधि थोड़े ही समय में सम्पन्न हो जाती है। उसमें खर्च भी नहीं के बराबर रहता है। आयोजन कोई भी साधारण शिक्षित सम्पन्न करा सकता है। इस विधा को सभी शुभ- अवसरों पर सम्पन्न करा सकता है और जनसाधारण को धर्म लाभ का आश्वासन देकर वह शिक्षण दिया जा सकता है, जिसे युग चेतना का नाम दिया गया है। सहगान कीर्तन दीपयज्ञों के साथ जुड़ा है, जिसमें गायन करते हुए लोग झूमते हैं। भाषण के लिए इतना ही पर्याप्त है कि इन्हीं दिनों शान्तिकुञ्ज से जो अभिनव उद्बोधन छापा जा रहा है, उसमें से उपस्थित जनों के स्तर को देखते हुए कोई अंश छाँट कर पढ़कर सुनाया जाए। यह युग गीता कथा है, जिसे पोथी के माध्यम से सुनाते रहने में वक्ता की गौरव- गरिमा घटती नहीं, वर बढ़ती ही है।

    उपरोक्त उपक्रमों के साथ- साथ एक बड़ा कदम भी है, जिसे अपने अहंकार में थोड़ी कटौती कर लेने वाला कोई भी व्यक्ति भली प्रकार चलाता रह सकता है। यह है- चल प्रज्ञा मन्दिर का निर्माण और संचालन। इसी को ज्ञानरथ के नाम से जाना जाता है। पिछले दिनों पाँच हजार अचल प्रज्ञा पीठों का निर्माण हो चुका है। अब युगसन्धि के दूसरे वर्ष में प्रज्ञा परिजनों को २४ हजार प्रज्ञा मन्दिर बनाने का दायित्व सौंपा गया है। अचल देवालयों में तो समीपवर्ती लोग ही पहुँच पाते हैं। उनके लिए पुजारी की, पूजन सामग्री की, इमारत के साज- सँभाल की, नित्य आवश्यकता पड़ती है। निर्माण कार्यों में हजारों- लाखों की राशि जुटाने की आवश्यकता पड़ती है। समुचित साज- सँभाल न होने पर निर्माताओं की बदनामी भी होती है। और देवता की नाराजगी भी, किन्तु चल प्रज्ञा मन्दिरों के निर्माण- संचालन में उपरोक्त झंझटों में से एक भी नहीं पड़ती। साथ ही लाभ की दृष्टि से उसकी उपयोगिता असंख्य गुनी बड़ी है। घर- घर अलख जगाने, हर गली कूँचे में नुक्कड़ सभाएँ सँजोते रहने, अपरिचितों को परिचित कराने और सशक्त प्राण ऊर्जा जन- जन तक पहुँचाने के बहुमूल्य पुण्य- प्रयोजन सहज ही बन पड़ते हैं।

    चार पहियों वाला, आकर्षक साज- सज्जा वाला, युग साहित्य से भरा पूरा यह युग मन्दिर प्राय: ४००० रु. की लागत में बन जाता है। ३००० रुपयों में ढाँचा लाउडस्पीकर, टेप रिकार्डर आदि तथा १००० रु. में साहित्य की व्यवस्था बन जाती है। इसे घर के एक कोने में आसानी से रखा जा सकता है और अपने दो घण्टे का जो समयदान दिया गया था, उसमें इसे हाट- बाजार पार्क, मन्दिर, घाट, दफ्तर, कारखाने आदि में काम करने वालों तक पहुँचाया जा सकता है। दो दिन का समयदान इकट्ठा करके, तीसरे दिन चार घण्टे या साप्ताहिक छुट्टी वाला पूरा दिन सुविधानुसार इसके संचालन में लगाया जा सकता है।

    पिछले दिनों ज्ञान रथों का संचालन पुस्तक- विक्रय की बात को प्रधानता देते हुए किया जाता रहा है। इसमें चलाने वालों को अपनी हेठी लगती थी और संकोच भी होता था। अब उस प्रचलन को पूरी तरह बदल दिया गया है। इन दिनों ‘‘ज्ञानरथ’’ विशुद्ध चल- पुस्तकालय के रूप में चलाए जा रहे हैं। विचारशीलों को मुफ्त में पढ़ने देने और अगली बार वापस लेने की, स्वयं पहुँचने वाली बात वैसी ही है, जैसी कि सदावर्त चलाने, प्याऊ द्वारा जल पिलाने की, घर- घर प्रसाद बाँटने के लिए गर्व- गौरव के साथ की जाने की। किसी को कभी कोई पुस्तकें खरीदने की इच्छा हो, तो उस समय उसे पर्ची में नोट कर लेना चाहिए। ज्ञानरथ संचालन के साथ पुस्तक बिक्री की बात हटा देने पर, अब वह समूचा उपक्रम मात्र भगवान् का रथ घुमाने और घर बैठों को पुण्य लाभ कराने जैसा है। इसे कोई तथाकथित बड़ा आदमी भी करने लगे, तो उससे मान और गौरव रत्ती भर भी घटने वाला नहीं है, वरन् बड़प्पन में धर्म- धारणा का उदार प्रवेश होने के कारण गरिमा में चार- चाँद ही लगेंगे। लाउडस्पीकर, टेपरिकार्डर के सम्मिलन से हर दिन नुक्कड़ सभाओं की धूम मची रह सकती है। संगीत और प्रवचन से हर दिन सैकड़ों हजारों को परिचित, अवगत कराना ही नहीं, अनुप्राणित भी किया जा सकता है। उपयोगिता की दृष्टि से यह ‘‘ज्ञानयज्ञ’’ अन्य परमार्थ प्रयोजनों की तुलना में किसी प्रकार कम नहीं, अधिक ही माना जा सकता है।

    बैटरी हर दिन चार्ज करानी पड़ सकती है। समय- समय पर नए टेप भी खरीदने पड़ सकते हैं। पिछली पुस्तकें पाठकों द्वारा पढ़ लिए जाने पर नई मँगाते रहने का सिलसिला भी जारी रहेगा। इसकी अर्थ- व्यवस्था करने में एक रुपया प्रतिदिन का प्रबन्ध करना कुछ कठिन नहीं है। इतना तो मध्यवृत्ति का कोई भी व्यक्ति वहन कर सकता है। नितान्त असमर्थ होने पर, एक से पाँच बनाने की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए जो चार साथी और बनाए थे, उनके घरों में ‘‘ज्ञानघट’’ रखने की नियमित अंशदान वाली प्रक्रिया का आश्रय भी लिया जा सकता है। अपने पाँच की उदारता यदि उभारी जा सके, तो महीने में एक दिन की कमाई भी मिल सकती है और स्थानीय प्रज्ञा मण्डल के साथ जुड़ी हुई समस्त गतिविधियों का सूत्र- संचालन भली प्रकार होता रह सकता है। नितान्त कृपणता और उपेक्षा आड़े आ रही हो, तो बात दूसरी है, अन्यथा श्रद्धा के बीजांकुर रहते, इतना नगण्य समयदान और अंशदान इन सभी के द्वारा बिना किसी बहानेबाज़ी के प्रस्तुत किया जा सकता है।

    धर्म, भिखारियों का पेशा नहीं है। लोक- परलोक को समृद्ध, सुसंस्कृत बनाने वाली शक्ति को अपनाने और उससे लाभान्वित होने में उदारचेता ही सफल हो सकते हैं। धर्म- धारणा और सेवा- साधना के लिए कुछ न कुछ खर्च तो करना ही पड़ेगा। भले ही वह सुदामा की तन्दुल पोटली के समान हो या किसान के बीज बोने, श्रम और खाद- पानी जुटाने जैसा। जो माला घुमाने और अक्षत चढ़ाने भर से उपासना की सर्वांगपूर्णता मान लेते हैं और जमीन से आसमान जितनी मनोकामनाएँ पूरी करने के लिए लार टपकाते रहते हैं। उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि उनका धर्मतन्त्र से और दिव्य सत्ता से अभी दूर का सम्बन्ध भी नहीं जुड़ा है। मात्र बालकों जैसी परलोक की कल्पना करने वाले ही शेखचिल्लियों वाले लोक में रहते हैं। यह क्षेत्र वस्तुतः: दे सकने वाली उमंगों से भरे- पुरे शूरवीरों का है। न जाने कृपण- कंजूसों की भूमिका निभाते हुए लोग, अपने लिए, महामानवों को प्राप्त होने वाली उपलब्धियों की कल्पना क्यों करते रहते हैं?

    पाँच से पच्चीस का विकास क्रम अपनाने की अनिवार्यता के लिए युग पुरुषों जैसा विस्तार क्रम अपनाने पर पूरा जोर दिया जाता रहा है। ज्ञानरथ चल- प्रज्ञा मन्दिर के सहारे यह प्रयोजन अधिक द्रुतगामी गति पकड़ सकता है। घर- घर अलख जगाने और जन- जन को अमृतोपम प्रसाद बाँटते रहने में युगधर्म का निर्वाह भी होता है और धर्म- धारणा सेवा- साधना के रूप में वह आध्यात्मिक कमाई भी होती है, जिसके बल पर अन्तःकरण में सन्तोष और जन- समुदाय में भाव- भरा सम्मान अर्जित किया जा सके।


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