नवयुग का मत्स्यावतार

समझदारी शंका में नहीं-सहयोग में है

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यहाँ किसी को भी चन्दन में दुर्गंध ढूँढ़ निकालने का भ्रम जंजाल नहीं सँजोना चाहिए। यह खुले पन्ने हैं कि अखण्ड ज्योति का मूल्य मात्र कागज, छपाई और पोस्टेज भर का है। किसी का पारिश्रमिक तक इसके मूल्य में नहीं जोड़ा जाता। ऐसी दशा में नफा कमाने जैसी बात तो किसी को स्वप्न में भी नहीं सोचनी चाहिए। मिशन स्तर की भावनाएँ यदि इस तन्त्र के साथ जुड़ी हुई न हो होती, उसे व्यवसाय भर समझा और किया गया होता, तो निश्चय ही पाठकों में से किसी पर भी आदर्शवादी छाप पड़ने का सुयोग ही नहीं बन पड़ता। कहने वालों को तो क्या किया जाए? जिसके मुँह में पायरिया, पेट में अल्सर और आहार में लहसुन घुसा होता है। इनकी साँस में दुर्गंध ही उठती रहेगी। सदाशयता पर भी कुचक्र रचने जैसा आरोप लगाने वाले इस संसार में कम नहीं हैं। ईसाई मिशन, साम्यवादी प्रचारक, गीता प्रेस जैसे प्रकाशन प्रत्यक्ष हैं, जो नफा नहीं कमाते। युग साहित्य का प्रकाशन भी ऐसा ही समझा जा सकता है। अखण्ड ज्योति का आर्थिक ढाँचा तो आरम्भ से ही ऐसा रहा है और अन्त तक ऐसा ही रहेगा।

    सज्जनों का संगठन ही दैवी शक्ति के रूप में प्रकट होता और लक्ष्य पर ब्रह्मास्त्र की तरह टूटता है। अखण्ड ज्योति परिजनों का संगठन क्रम, यों साप्ताहिक सत्संग के रूप में भी चलता है। पारस्परिक घनिष्ठता बढ़ाने पर भी मिल जुलकर कुछ ठोस काम करने का अवसर मिलता है। जहाँ नवीनता न रहने पर उदासी आने लगे, वहाँ सम्मिलित शक्ति उत्पन्न करने का दूसरा उपाय यह है कि हर सदस्य का जन्मदिवस मनाया जाए और आदर्शवादी प्रतिपादन के क्रियान्वयन का उपक्रम चलाया जाता रहे। इस अवसर पर अभ्यस्त बुराइयों में से कोई छोड़ने और एक नई सत्प्रवृत्ति बढ़ाने का अवलम्बन भी अपनाया जा सकता है।

    जन्मदिन बनाने मे छोटा दीपयज्ञ, सामूहिक गायत्री पाठ, सहगान कीर्तन के उपरान्त, जिसका जन्मदिन मनाया जा रहा है, उसके ओजस्, तेजस् और वर्चस् के अभिवर्धन की कामना की जा सकती है। अभिनन्दन-आशीर्वाद का क्रम चल सकता है और यथासम्भव पुष्प-वर्षा या उसके स्थान पर पीले चावलों का प्रयोग हो सकता है। बस हो गई जन्मदिन मनाने की प्रक्रिया। यदि अपने संगठन में पाँच सदस्य और पच्चीस अनुपाठक हों, तो इन सब को इकट्ठा करने पर एक अन्य समारोह हो सकता है। आतिथ्य सौंफ-सुपाड़ी तक सीमित रहे, तो गरीब-अमीर किसी को भी विषमताजन्य संकोच का अनुभव नहीं करना पड़ेगा। साल भर में पच्चीस आयोजन हो जाया करेंगे और उनकी एकरस विचारधारा, घनिष्ठता एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन की प्रवृत्ति के समन्वय से अनेक रचनात्मक कार्य किसी न किसी रूप में चलते रह सकते हैं।

    हर सदस्य नियमित रूप से यथासम्भव समयदान और अंशदान निकालता रहे, तो उस संचित राशि के सहारे वे रचनात्मक क्रिया-कलाप सरलतापूर्वक चलते रह सकते हैं, जिनके उत्पादन-अभिवर्धन की इन दिनों नितान्त आवश्यकता है।

    भाव शून्यों के लिए तो झपटना-हड़पना ही एकमात्र अभ्यास में रहता है, पर जिनमें भाव-संवेदनाएँ जीवित हैं, उनके लिए तनिक भी कठिन नहीं होना चाहिए कि चौबीस घण्टों में से न्यूनतम दो घण्टे निकालते रह सकें। महीने में एक दिन की कमाई खर्चने में दम घुटता हो, तो कम से कम पचास पैसे रोज का अंशदान तो किसी जीवित व्यक्ति के लिए तनिक भी भारी नहीं पड़ना चाहिए। इस राशि में, नवसृजन के उद्देश्य से, इन दिनों निरन्तर प्रकाशित होती रहने वाली वे पुस्तकें मँगाई जाती रह सकती हैं, जिनका मूल्य तो सस्तेपन की चरम सीमा जैसा रखा गया है, परन्तु जिनकी हर पंक्ति में वह प्राण-ऊर्जा लहराती और लपलपाती देखी जा सकती है, जो सड़न भरी मान्यताओं को बुहार कर किसी कोने में फेंक दे, और उसके स्थान पर उस देवत्व की प्रतिष्ठापना कर दे, जिसे अमृत, पारस और कल्पवृक्ष की उपमा देने में अत्युक्ति जैसा कुछ भी ढूँढ़े नहीं मिल सकता।

    शान्तिकुञ्ज का अभिनव प्रकाशन कम मूल्य की ऐसी पुस्तिकाओं के रूप में इन दिनों निरन्तर हो रहा है, जो युग परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने में असाधारण योगदान दे सकें। अंशदान के पैसों से यह साहित्य मँगाने और समयदान को, उसे जन-जन को पढ़ाने या सुनाने में लगाया जा सकता है। अखण्ड ज्योति परिजनों से इन्हीं दिनों उपरोक्त छोटे कार्यक्रमों को सम्पन्न करने के लिए अनुरोध एवं आग्रह किया जा रहा है। इस अभियान के अन्तर्गत विस्तार का जो दायित्व हर परिजन पर आया है, उसे उल्लास-पूर्वक निभाने में हममें से कोई भी पीछे न रहेगा, ऐसी आशा-अपेक्षा की गई है।

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