३० अगस्त १९७५ जन्माष्टमी पर उद्बोधन गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। देवियो, भाइयो! आज जन्माष्टमी का पुनीत पर्व है। आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इसी दिन पृथ्वी पर भगवान् की वह शक्ति अवतरित हुई, जिसने प्रतिज्ञा की थी कि हम सृष्टि का संतुलन कायम रखेंगे। भगवान् की उस प्रतिज्ञा के भगवान् कृष्ण प्रतिनिधि थे, जिसको पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी सारी जिंदगी लगा दी। उसी प्रतिज्ञा के आधार पर उन्होंने जनसाधारण को विश्वास दिलाया है कि हम पृथ्वी को असंतुलित नहीं रहने देंगे और सृष्टि में अनाचार को नहीं बढ़ने देंगे। भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की हुई है- यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे- युगे संतुलन हेतु आता है अवतार मित्रो! मनुष्य के भीतर दैवी और आसुरी- दोनों ही वृत्तियाँ काम करती रहती हैं। दैत्य अपने आपको नीचे गिराता है। पानी का स्वभाव नीचे की तरफ गिरना है। पानी बिना किसी प्रयास के, बिना किसी ‘परपज’ के नीचे की तरफ गिरता हुआ चला जाता है। इसी तरह मनुष्य की वृत्तियाँ जब बिना किसी के सिखाए और बिना किसी आकर्षण के अपने आप पतन की ओर, अनाचार