ध्यान का दार्शनिक पक्ष

साधना स्वर्ण जयंती वर्ष में हम आपको गायत्री उपासना के साथ-साथ विशेष रूप से जो शिक्षण देते हैं, वह ध्यान का शिक्षण है । उपासनाएँ दो हैं- नाम और रूप की उपासनाएँ । नाम और रूप के बिना उपासना हो नहीं सकती । यह दो यूनिवर्सल उपासनाएँ हैं । किसी भी मजहब में चले जाइए व्यक्ति नाम जरूर ले रहा होगा । मुसलमान तसबीह पर नाम ले रहा होगा । ईसाई पादरियों को आप माला जपते हुए देखेंगे । आर्यसमाजी प्रकाश का ध्यान कर रहे होंगे । अन्य अमुक तरह का ध्यान कर रहे होंगे । नादयोग वाले कान में आने वाली आवाजों का ध्यान कर रहे होंगे । बहरहाल ध्यान जरूर करना पड़ता है । ध्यान के बिना गति किसी की नहीं है । इसीलिए हमने कहा है कि जप के साथ-साथ आप ध्यान किया कीजिए । स्थूल ध्यान मूर्तिपूजा के माध्यम से होता है, तसवीरों के माध्यम से होता है, क्योंकि मनुष्य का मानसिक विकास इतना नहीं हो पाया है कि वह बिना किसी फोटोग्राफ के, बिना किसी मूर्ति के किसी चीज का ध्यान कर सके लेकिन जब वह विषय पक्का हो जाता है, तब फिर मूर्ति की कोई खास जरूरत नहीं रह जाती । तब हम अपने भीतर बैठे हुए भगवान का साक्षात्कार कर सकते हैं । उसका ध्यान कर सकते हैं ।

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