जब मैं घुटनों के बल चला करती थी, तभी से घर में होने वाले
पूजन, हवन तथा मंत्रोच्चार के प्रति मेरे मन में एक जिज्ञासा का
भाव था। कुछ और बड़ी होने पर मेरी माँ ने मुझे गायत्री मंत्र
का अभ्यास करा दिया था और मैं भी घर के अन्य सदस्यों के साथ
हवन में शामिल होने लग गई थी।
घर के लोग प्रायः शान्तिकुञ्ज तथा पूज्य गुरुदेव के बारे में
बातें किया करते थे। मैं जब भी माँ से पूछती कि पूज्य गुरुदेव
कौन हैं,
तो उनकी तस्वीर की ओर इशारा करके वह हमेशा यही कहती- उनके बारे
में मैं तुम्हें क्या बताऊँ? वे कोई आदमी थोड़े ही हैं। वे तो
भगवान हैं, भगवान!
माँ की ऐसी बातें सुन- सुन कर मेरा मन पूज्य गुरुदेव से
मिलने के लिए बेचैन होने लगा। मैं बार- बार शान्तिकुञ्ज आने की
जिद करने लगी।
यह उन दिनों की बात है जब मैं चौथी कक्षा में पढ़ती थी। बहुत
जिद करने पर भी घर से अनुमति नहीं मिली और लाख चाहने पर भी
मैं गुरुदेव के दर्शन नहीं कर सकी। आठवीं कक्षा में आते- आते
मैंने पहली दूसरी कक्षा के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था।
सन् १९९०ई. में अचानक एक दिन पता चला कि बोकारो शक्तिपीठ से कुछ परिजन शान्तिकुञ्ज जा रहे हैं। गुरुदेव से मिलने की मेरी उत्कंठा अब तक चरम पर पहुँच चुकी थी।
मैंने
तत्काल शान्तिकुञ्ज जाने का मन बना लिया और वहाँ जाने वाले एक
परिजन से मिलकर उनके साथ चलने का कार्यक्रम तय कर लिया। इस
बात की मैंने घर में किसी को भनक तक नहीं लगने दी, डर था कि
वे सभी फिर मना कर देंगे।
परिजनों की टोली के साथ मैं शान्तिकुञ्ज पहुँची। अगले दिन सुबह
से ही मैं यह सोचकर खुशी से पागल हुई जा रही थी कि आज
गुरुदेव के दर्शन होंगे। ऊपर के कक्ष में जाकर पहले मैंने माताजी
को प्रणाम किया, तो उन्होंने सिर सहलाते हुए आशीर्वाद दिया। इसके
बाद गुरुदेव को प्रणाम करने पर उन्होंने मुझे आधा पुष्प देकर
आधा स्वयं रख लिया।
आधा फूल देने का अर्थ मेरी समझ में नहीं आया। वापसी में
सीढ़ियों से उतरती हुई मैं इसी बात पर सोचती जा रही थी कि एक अद्भुत् अनुभूति हुई। ऐसा लगा कि मेरे कानों में कोई कुछ कह रहा है।
मैंने आवाज पहचानने की कोशिश की तो बड़ा आश्चर्य हुआ, वह
गुरुदेव की ही आवाज थी। वे मुझसे कह रहे थे- तुम्हें मेरे बहुत
सारे काम करने हैं। तुम जब किसी काम के लिए आगे बढ़ोगी तो मैं कदम- कदम पर तुम्हारा काम आसान करता चलूँगा।
पूज्य गुरुदेव द्वारा आधा फूल देकर आधा अपने पास रख लेने का अर्थ अब कुछ- कुछ मेरी समझ में आने लगा था।
अगले ही दिन वसंत पंचमी पर मैंने
गुरुदीक्षा ले ली। जब विदाई का समय आया तो वंदनीया माता जी से
मिलने गई। सोचकर तो चली थी कि मैं उनसे बहुत कुछ कहूँगी लेकिन
कुछ भी नहीं कह सकी। एक ही साथ मन में इतनी बातें आ रही थीं
कि कुछ कहते नहीं बना।
इस ऊहापोह में आँखों से आँसू बहने लगे। मेरी सबसे बड़ी चिन्ता
तो यह थी कि मैं किसी को बताये बिना घर से चली आई थी। साथ
की महिलाओं ने भी मुझे पूरी तरह से डरा रखा था। मन कह रहा था
कि अगर माताजी आशीर्वाद दे दें, तो घर पहुँचने पर मुझे कोई कुछ
नहीं कहेगा।
माताजी ने मेरे मन का भाव बिना कुछ कहे समझ लिया। उन्होंने
मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा- बेटा चिन्ता मत कर, सब कुछ ठीक हो
जाएगा, घर के लोग तुम्हें कुछ भी नहीं कहेंगे।
.....और आश्चर्य!
घर पहुँचते ही डाँट- फटकार और पिटाई की आशंकाएँ निर्मूल सिद्ध
हुईं। घर में सबको पहले ही पता चल चुका था कि मैं शान्तिकुञ्ज
गई हूँ। माँ- पिताजी ने एक शब्द भी नहीं कहा। उल्टे सभी इस बात
को लेकर खुश हो रहे थे कि मैं वन्दनीया माताजी और पूज्य
गुरुदेव का आशीर्वाद लेकर लौटी हूँ।
उसी वर्ष जब २
जून को गुरुदेव ने शरीर छोड़ दिया तो हम सभी शोकाकुल हो गए।
मेरे माता- पिता दुःखी मन से आपस में बातें कर रहे थे।
माँ कह रही थी- हम दोनों से अच्छी किस्मत लेकर तो हमारी अन्जु ही आई है। हम कई सालों तक सोचते ही रह गए और यह लड़की अकेली जाकर भगवान के दर्शन कर आई।
पिताजी ने कहा- तुम सच कह रही हो। अन्जु
अपनी मर्जी से थोड़े ही गई थी। उसे तो पूज्य गुरुदेव ने
शान्तिकुञ्ज बुलाकर स्वयं दर्शन दिए थे। पर, हमारा ऐसा भाग्य कहाँ!
प्रस्तुति :- अंजू उपाध्याय
डी. एस. पी. (अरुणांचल प्रदेश)