अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -3

ऐसा तो भगवान से ही संभव है!

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        मंत्र दीक्षा मैंने सन् १९७२ में ही ले ली थी। अपने पैतृक गाँव खीर भोजना, वारसलीगंज, नवादा (बिहार) में ही वह संस्कार सम्पन्न हुआ था। १९७६ में बोकारो में गायत्री यज्ञ हुआ। आदरणीय रमेश चन्द्र शुक्ल जी वहाँ केन्द्रीय प्रतिनिधि के रूप में थे। उनसे पत्र लेकर पू. गुरुदेव के दर्शन हेतु शान्तिकुञ्ज आया। अप्रैल का महीना था। लेकिन वसन्त पूरे वातावरण में अभी तक व्याप्त था। ब्रह्ममुहूर्त में गुलाबी जाड़े की सुखद अनुभूति होती थी। यहाँ पाँच दिनों तक के शिविर में ही मेरे विचार और चिन्तन में आमूलचूल परिवर्तन होता चला गया।

        दर्शन शास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते अध्यात्म की थोड़ी बहुत जानकारी तो थी, पर कर्मकाण्डी पंडितों की तिकड़मों के कारण उस पर आस्था नहीं जम पाती। यहाँ आकर अध्यात्म को लेकर अविश्वास का वह भाव बिल्कुल खत्म हो गया। एक दृढ़ आस्था मन में पनपने लगी, कोई सत्ता अवश्य है जिसके अनुसार सब कुछ अपने समय से चलता रहता है।

मिशन के विषय में मैं अधिक से अधिक जानना चाहता था। सेवा कार्य में सहयोग देने की भी इच्छा होती। मैंने आदरणीय श्री वीरेश्वर उपाध्याय भाई साहब से परामर्श किया और उनके बताए अनुसार अगले वर्ष मई, १९७७ में शान्तिकुञ्ज आकर एक मासीय सत्र किया। उसी समय संकल्प लिया कि वर्ष में छुट्टी के दो माह मैं यहाँ के कार्य में लगाऊँगा। स्थानीय समय दान के अलावा केन्द्र में समयदान १९७८ से देने लगा।

        पहले छुट्टियों में घर जाता था। खेती- बाड़ी के काम में पिताजी की मदद करता था। वह सिलसिला बंद हो गया, तो पिताजी नाराज हुए। घर भेजी जाने वाली मासिक राशि में भी कटौती होती गई। अपने गाँव या आस- पास के गाँव के कोई परिचित मिल जाते, तो कहते- पिताजी तुमसे बहुत नाराज रहते हैं। कहते हैं, पता नहीं किस साधु महात्मा के चक्कर में पड़ गया है। न घर आता है, न ही पैसा दे पाता है। उसका नाम मत लीजिये। यह सब सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगता।

        मैं असमंजस में था। पिताजी को मैं इस तरह से नाराज नहीं करना चाहता था। सेवा कार्य के संदर्भ में मैंने पिताजी को विश्वास में लेने की पूरी कोशिश की, लेकिन वे रत्ती भर भी नहीं पिघले। अन्त में थक हार कर मैंने मन ही मन गुरुदेव से प्रार्थना की। मुझे पूर्ण विश्वास था कि इसका वे ही कुछ समाधान निकालेंगे। १९७९ में पिताजी बद्रीनाथ जाने के लिए राजी हुए। पहले शान्तिकुञ्ज आकर सामान रखने की व्यवस्था बनाई गई। फिर पिताजी को साथ लेकर पूज्य गुरुदेव से मिलने गया। गुरुदेव बोले- बेटा, इन्हें बद्रीनाथ घुमा लाओ। पूज्य गुरुदेव की बातें सुनकर पिताजी को आश्चर्य हुआ। नीचे आकर वे हमसे पूछने लगे- इन्हें कैसे मालूम हुआ कि हम बद्रीनाथ जा रहे हैं? मैंने कहा- मुझे क्या मालूम? मैं तो आपके साथ ही हूँ।

        बद्रीनाथ से लौटकर शान्तिकुञ्ज में दो- एक दिन रुकने के लिए पिताजी से पूछा, तो वे राजी हो गए। शान्तिकुञ्ज के स्नेहिल वातावरण ने उनका मन मोह लिया था। बोले मुझे यहाँ बहुत अच्छा लग रहा है। जब तक चाहो, रुको। इसी बीच एक दिन अपने कमरे में ही आश्चर्य से उत्तेजना पूर्ण स्वर में कहने लगे- अरे? गुरुजी तुम लोगों को बुड़बक (मूर्ख) बना कर रखे हुए हैं। ये आदमी नहीं हैं। ये भगवान के सिवा कुछ हो ही नहीं सकते। साश्चर्य मैंने पूछा- क्या हुआ, ऐसा क्यों कह रहे हैं? उन्होंने कहा- आज एक लड़का, जिसको मरे हुए घंटे भर से ज्यादा हो गया था, उसे उन्होंने जिन्दा कर दिया।

        घटना को पूरे विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा- मरे हुए उस लड़के को लेकर कुछ लोग गुरुजी के पास गए। गुरुजी पश्चिम वाले कमरे से निकल रहे थे। शोर सुनकर पूरब वाले कमरे में गए। आकर लोगों से पूछा- क्या बात है? लोगों ने बताया- एक बच्चा मर गया है। बच्चा जमीन पर लेटा था। बच्चे की माँ छाती पीटकर रो रही थी। गुरुजी बोले- कुछ नहीं हुआ है। इतना कहते हुए उन्होंने झटके से बच्चे का हाथ पकड़कर उठा दिया। बोले- जा, इसे माता जी के पास ले जाकर प्रसाद खिला दे। सभी आश्चर्यचकित थे। मरे हुए को जिन्दा कर देना ऐसा तो मात्र भगवान ही कर सकते हैं!

        इस घटना के बाद पिताजी की दृष्टि बदल गई। इसके बाद वे हमेशा मेरे सेवा कार्य को सराहते रहे- मेरा नाम लेते ही भावुक होकर कहते- वह जो कर रहा है, करता रहे, मुझे उसके पैसे और समय की जरूरत नहीं है। वह भगवान का काम कर रहा है, वह स्वयं तो तरेगा ही, हमारे सारे खानदान को भी तार देगा।

प्रस्तुतिः रामनरेश प्रसाद
    बोकारो (झारखण्ड)

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