ऋषि युग्म की झलक-झाँकी

ममता की मूर्ति, प्यार के सागर

<<   |   <   | |   >   |   >>
         पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी प्यार- आत्मीयता, दया, करुणा, ममता की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने इस मिशन को स्नेह- वात्सल्य की नींव पर खड़ा किया है। प्रत्येक परिजन यही महसूस करता है कि उन्होंने मुझ पर इतना ममत्व लुटाया है कि सगे माँ- बाप भी क्या लुटाते होंगे। उन्होंने युग निर्माण योजना के इस संगठन को गायत्री परिवार के नाम से भी संबोधित किया है। भाव यह है कि हम सब एक ही परिवार के सदस्य हैं।
       
वसुधैव कुटुम्बकम्
के मर्म को उन्होंने अपने जीवन से समझाने का प्रयास किया है। वे कहते हैं, ‘‘मैं अधूरा प्यार करना नहीं जानता। मैंने जिससे भी प्यार किया है, पूरा प्यार किया है।’’ एक जगह पर वे लिखते हैं- ‘‘ कोई कहे कि तुम्हारे गुरु से बड़ा कोई ज्ञानी है तो मान लेना। यदि कोई कहे कि तुम्हारे गुरु से बड़ा कोई दूसरा तपस्वी और सिद्ध- समर्थ है तो भी मान लेना पर यदि कोई कहे कि तुम्हारे गुरु से ज्यादा प्यार करने वाला कोई है तो बेटा! कभी मत मानना। मेरा प्यार तुम लोगों के साथ हमेशा रहेगा। मेरे शरीर के रहने पर और शरीर के न रहने के बाद भी।’’ वे कहते थे, ‘‘मैंने अपने बच्चों से बहुत प्यार किया है।’’ सन् 1971 के विदाई उद्बोधन में वे कहते हैं, ‘‘...प्यार.. प्यार..प्यार। यही हमारा मंत्र है। आत्मीयता, ममता, स्नेह और श्रद्धा यही हमारी उपासना है।’’ आज भी यह मिशन उनके इसी सूत्र के आधार पर आगे बढ़ रहा है।

     फिर भी उनका स्थूल स्नेह जिन परिजनों ने पाया है, उसका आनंद तो वे ही जानते हैं। वास्तव में ऋषिसत्ता ने अपने बच्चों पर जो स्नेह लुटाया, वह अतुलनीय, अद्वितीय, असीम है। परिजनों को लिखे गये उनके पत्रों में ही इतनी आत्मीयता, इतना प्यार झलकता है कि उन्हें पढ़ते समय लगता है, जैसे वे सामने खड़े होकर हमें दुलार रहे हैं तो जब प्रत्यक्ष में मिलते होंगे तो कितना वात्सल्य, कितना ममत्व लुटाते होंगे, इसकी कोई सहज ही कल्पना कर सकता है। यहाँ हम परिजनों के कुछ संस्मरण व उन्हें लिखे पत्रों के कुछ छोटे- छोटे अंश प्रकाशित कर रहे हैं, जिनसे उनके अनोखे स्नेह और वात्सल्य की झलक मिलती है।

गुरुजी- माताजी ने हम सबको अपना अंग- अवयव कहा ही नहीं अपितु अपने पत्रों में किस प्रकार व्यक्त किया है, जानें- समझें.....
    वे संबोधन स्वरूप ‘हमारे आत्मस्वरूप’ शब्द का प्रयोग करते थे। कितनी गहरी भावनाएँ छिपी हैं इस संबोधन में। एकत्व का भाव। पढ़ने वाले की क्या मनोदशा होती होगी? मन कितना आह्लादित हो जाता होगा? सहज ही कल्पना कर सकते हैं।

सन् 1971 में पूज्य गुरुदेव साधना हेतु हिमालय चले गये थे। उन दिनों में 30- 10 को अपने एक निकटस्थ परिजन को माताजी के द्वारा लिखे गये पत्र के अंश कुछ इस प्रकार हैं-

‘‘....अत्यधिक व्यस्तता के कारण उत्तर जल्दी नहीं लिख पाई। पर ऐसा कोई दिन नहीं गया होगा, जिस दिन तुम दोनों को स्मरण न किया हो। तुम दोनों हमारी आँखों की पुतलियों की तरह हो। हमारा वात्सल्य तुम्हारे लिये हर घड़ी उमड़ता रहता है। तुम्हारी हर परिस्थिति का पूज्य आचार्य जी को पता है। ऐसा ही मानना चाहिये। भले ही शारीरिक दृष्टि से वे कितने ही सघन एकांत में क्यों न हों।....’’
      एक अन्य परिजन को माताजी 2- 5 को लिखे गए एक पत्र में लिखती हैं --

‘‘.....आप हमें अपने सगे बच्चों की तरह याद आते रहते हैं। अपनी अंतःकरण की भावनाएँ, अपना स्नेह किन शब्दों में व्यक्त करें?......’’ 9-2-1971 को एक परिजन को वे लिखती हैं-

    ‘‘..... आप बच्चों के अंतरंग जीवन में घुले-मिले रहने से कितनी प्रसन्नता होती है, इसे शब्दों में कैसे व्यक्त करें? आप हमारे सगे बेटे की तरह हैं। यह संबंध अनेकों जन्मों की साधना द्वारा प्रगाढ़ किये हैं। आप अनेक जन्मांतरों तक हमारे स्नेह सूत्र में ऐसे ही बंधे रहेंगे। हमारा वात्सल्य वर्षा की तरह आप दोनों पर, बच्चों पर निरंतर बरसता रहेगा।.....’’ 
29-3-1970 के इस पत्र के शब्दों की गहराई नापी नहीं जा सकती...
   
    ‘‘....आपको परमात्मा ने श्रद्धा की साक्षात् प्रतिमूर्ति बनाकर भेजा है। किसी भी माँ का अपनी नन्हीं संतान के लिये जिस तरह हृदय उमड़ता रहता है, उसी तरह आपको सदैव अपने हृदय से लगाये रखने का मन बना रहता है। आप बच्चे हमें प्राणों से भी प्रिय लगते हैं।...’’
प्रस्तुत पत्र में पूज्य गुरुदेव का स्नेह और सतत संरक्षण का आश्वासन समझने योग्य है।

‘‘हमारे आत्म स्वरूप,

    आपका और बेटी श्रीपर्णा का पत्र मिला। होली का गुलाल भी। पत्र पढ़ते समय लगता है, आप दोनों सामने ही बैठे हैं। होली का हमारा आशीर्वाद और माताजी का स्नेह आप चारों को इस पत्र के साथ भेज रहे हैं।

    हम लोग भविष्य में कहीं भी क्यों न रहें, आप लोगों को कभी अकेलापन अनुभव न होने देंगे। आप लोग अपने घर, आँगन, छत और कमरे में हमें बैठा, टहलता अनुभव करते रहेंगे।...’’

4-9-1970  को पूज्य गुरुदेव एक परिजन को लिखते हैं-

‘‘हमारे आत्मस्वरूप,

    आपका पत्र मिला। कई बार पढ़ा। आपकी भावनाएँ उमड़-उमड़ कर हम तक तो सदा ही पहुँचती रहती हैं। पर जब पत्र आता है तो उनमें ज्वार सा आ जाता है। पत्र लिखते समय लगता है, तुम लोग सामने ही बैठे हो।....’’
17-8-1970 को पूज्य गुरुदेव एक बहन को लिखते हैं -

    ‘‘... तुम हमारी बेटी की तरह हो। हमसे कुछ न कहो तो भी क्या पिता अपनी संतान के सुख की चिंता नहीं किया करते। तुम्हारे लिये जो भी आवश्यक होगा हम सदैव करते रहेंगे।...’’
28-8-1971 को माताजी एक बहन को पत्र में लिखती हैं-

    ‘‘... कोख के बच्चे की साज-सँभाल किस तरह की जाती है वह एक माँ ही जानती है। अभी तक जिस तरह तुम्हारे हित का संरक्षण करते रहे हैं, आगे भी उसी तरह करते रहेंगे।...’’

ऐसे ही 20-5-1971 के इस पत्र में एक परिजन की श्रद्धा-निष्ठा को प्रोत्साहित करते हुए वे लिखती हैं-
    ‘‘... आपकी श्रद्धा हमारा जीवन और प्राण है। यह निष्ठाएँ ही इस देश को नई सामर्थ्य प्रदान करेंगी।...’’

3-8-1971 के इस पत्र के शब्दों को देखें-

    ‘‘.... तुम्हारी साधना निष्ठा का हृदय से सम्मान करती हूँ। आने वाली पीढ़ी के लिये यह संस्कार और निष्ठा वरदान बनेगी। उसके लिये कोटि-कोटि आत्मायें तुम्हारा उपकार मानेंगी।....’’

वहीं इसी संबंध में 8-9-1970 में पूज्य गुरुदेव एक परिजन को लिखते हैं-

    ‘‘...नव निर्माण की दिशाधारा को साकार बनाने में जिस श्रद्धा और तत्परता के साथ संलग्र हैं, उसे देखकर हमारा रोम-रोम पुलकित हो उठता है। आप जैसे कर्मठ स्वजनों के बलबूते पर ही हमने इतने रंगीन सपनों को साकार करने की आशा बाँधी है।...’’
14-10-1970 को एक अन्य परिजन को वे लिखते हैं-

    ‘‘... पुण्य पर्व दशहरे पर भेजी तुम्हारी हार्दिक शुभकामनाएँ मिलीं। तुम्हारी यह श्रद्धा हमें कितनी शक्ति देती है, उसे हम शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते। तुम दोनों तो हमारे प्राण हो। हम अंतःकरण से सदैव ही तुम्हारे साथ जुड़े रहेंगे। इस पुण्य पर्व पर हम अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ और आशीर्वाद भेज रहे हैं।...’’  

    ऐसे असंख्यों पत्र हैं। प्यार-आत्मीयता एवं अपने कार्यों का श्रेय अपने शिष्यों को देने की कला तो कोई गुरुजी-माताजी से ही सीखे।
    प्रत्यक्षतः अपने व्यवहार द्वारा स्नेह-आत्मीयता एवं वात्सल्य लुटाता उनका स्वरूप दर्शाते कुछ संस्मरण भी यहाँ प्रस्तुत हैं।

स्वयं रेत पर बैठ जाते

डॉ. अमल कुमार दत्ता, शान्तिकुञ्ज

    गुरुजी माताजी का प्यार असाधारण, अलौकिक था। मैं उनसे क्या जुड़ा, उन्होंने मुझे जोड़ लिया। मेरा तो बस प्यार का अधिकार था। कुछ ऐसा सोच लें कि जैसे अचानक ही किसी लड़के या लड़की को प्यार हो जाता है। उनका अपनापन, प्यार भरी बातें, प्रेम से खिलाना इसी सबने मुझे जोड़ लिया। गुरुजी शाम को जब घूमने जाते तो मथुरा में यमुना किनारे हमें भी साथ ले जाते। वह रेत पर अपना तौलिया बिछाकर कहते थे, ‘‘बैठो’’ और स्वयं रेत पर बैठ जाते थे। उनका यह प्यार पागल बना देने वाला प्यार था। मैं उनके साहित्य और अखण्ड ज्योति का भक्त बन गया।

  नयन- नयन से हृदय- हृदय से करुणा भरी विदाई

श्रीमती यशोदा शर्मा, शान्तिकुञ्ज

    कन्या शिविर की विदाई के वह पल आज भी वैसे ही सजीव हैं। ‘‘हम रो रहे थे। आँसू थम नहीं रहे थे। स्वाभाविक है कि रोते समय नाक भी बहने लगती है। परम पूज्य गुरुदेव समझाते भी जा रहे थे कि बेटा, फिर भी आते रहना और अपने हाथों से आँसू भी पोंछते जा रहे थे।

   मेरी आँखों से आँसू बहकर गले तक जा रहे थे और नाक भी बह रही थी। गुरुदेव ने अपने हाथों से आँसू तो पोंछे ही साथ में मेरी नाक भी पोंछी। उनके हाथ में कोई रुमाल नहीं था फिर भी उन्हें नाक पोंछने में भी कोई संकोच नहीं हुआ। ऐसा प्यार, ऐसा दुलार भला कैसे भुलाया जा सकता है।’’
    माताजी शिविर समाप्त होने पर विदाई गीत गाया करती थी। ‘‘नयन- नयन से हृदय- हृदय से करुणा भरी विदाई।’’ उनके स्वरों में इतना दर्द भरा रहता था कि हम सब सुबक- सुबक कर रो देते थे। ऐसा लगता था जैसे- माँ के घर से विदा हो रहे हैं। उनके आँचल से बिछुड़ने का किसी का मन नहीं करता था। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा, जो शान्तिकुञ्ज से विदा होते समय रोया न हो। ऐसा अलौकिक प्यार था, गुरुजी- माताजी का।

मैं हूँ इसकी दादी
श्रीमती कृष्णा उपाध्याय, शान्तिकुञ्ज

   मेरे दूसरे बेटे सुनील का जन्म मथुरा में हुआ। वन्दनीया माताजी मुझे लेकर अस्पताल गईं। वहाँ मेरे साथ ही थीं। बच्चे के जन्म के बाद, जब नर्स ‘‘लेबर रूम’’ से मुझे व बच्चे को बाहर लेकर आई, तब उसने आवाज लगाई- ‘‘इसकी दादी कौन है?’’ माताजी ने झट से कहा, ‘‘मैं हूँ इसकी दादी।’’
नर्स बोली, ‘‘लड़का हुआ है। खाली हाथ नहीं दूँगी।’’

‘‘कौन खाली हाथ माँग रहा है? मैं तो खाली हाथ लूँगी भी नहीं।’’ और माताजी ने सबको मन पसन्द न्यौछावर देकर बालक को गोद में ले लिया।
    स्वयं जगत् जननी के हाथ से न्यौछावर पाकर पता नहीं, न्यौछावर पाने वालों ने अपने भाग्य को सराहा या नहीं। किन्तु मेरी आँखों में उस समय कृतज्ञता के आँसू थे। मैंने अपने व अपने बच्चे के भाग्य की सराहना की कि जाने किस पुण्य से यह शुभ घड़ी मिली जो मेरे बच्चे को स्वयं जगन्माता अपनी गोद में खिला रही हैं। उसके बाद भी वे सुबह, शाम दोनों समय दूध लेकर स्वयं रिक्शे से अस्पताल आतीं। मुझे और बच्चे को दूध पिलाकर, हम दोनों को सँभालकर जातीं और बार- बार कहतीं- ‘‘छोरी! तू दूध पीने के लिये संकोच मत करना। जितना पियोगी उतना दूध बढ़ा दूँगी। बिलकुल भी परेशान मत होना।’’

तपोभूमि आने के बाद भी घीयामंडी से दूध भेजतीं व प्रसूता को ही पिलाने का निर्देश देतीं। इस प्यार में कायल होकर ही बालक उनके अपने हुए। इतना बड़ा संगठन इसी प्यार के सहारे उन्होंने विनिर्मित किया।

    आज भी सोचती हूँ तो लगता है, निश्चित ही हमारी कोई पूर्व जन्म की तपस्या होगी, जिससे हमें ऐसे माता- पिता मिले। उन्होंने बहुत- बहुत प्यार दिया।
जब भी उन पलों की याद आती है तो आँखें सजल हो जाती हैं।

यह मेरी बेटी नहीं, बेटा है

श्रीमती सावित्री गुप्ता, शान्तिकुञ्ज

    अखण्ड ज्योति पत्रिका के माध्यम से हम लोग पूज्य गुरुदेव से जुड़े। यह पत्रिका हमारे यहाँ, हमारा धोबी लाकर देता था। लेख बहुत पसंद आये। पत्रिका में पता लिखा था, सो मथुरा पत्र डाल दिया। तत्काल जवाब आ गया। यह सिलसिला चलता रहा। हर हफ्ते पूज्यवर के पत्र आ जाते, जवाब हम भी लिखते रहते।

     एक बार पूज्यवर को नागपुर आना था। सो उन्होंने लिखा- ‘‘सावित्री! मैं नागपुर आ रहा हूँ, तू भी आ जाना। जिस बोगी में मालाएँ लटकी हों, उसी में चढ़ जाना। वहाँ हम मिल जायेंगे।’’

    चूँकि अभी तक पूज्यवर के दर्शन नहीं हुए थे, अतः असमंजस था। मेरी बेटी, बेबी तब नागपुर में पढ़ती थी। बेबी से भी मुलाकात हो जायेगी, सोचकर नरखेड़, घर से चली और माला वाली बोगी में चढ़ गई। चढ़ते ही पूज्यवर ने आगे बढ़कर कहा- ‘‘सावित्री! आ गई तू। धोबी तरुणकर कैसा है?’’ सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। हम कभी पहले मिले नहीं और नाम लेकर पुकार रहे हैं! साथ ही पत्रिका देने वाले का भी नाम मालूम है। उसके उपस्थित न होने पर भी उनका हाल जानना चाहते हैं..? कितने प्रश्न मन में उठे, और उनकी सहजता ने हृदय को छू लिया व जैसे, परिवार में पिता के साथ बातचीत में कुछ भान नहीं होता। उसी प्रकार प्रथम परिचय में ही बिना किसी बनावट के मैं उनके साथ घुल- मिल गई। उन्होंने अपने पास में बिठाया। पीठ पर हाथ फेरा व कुशल क्षेम पूछी। इसी प्रकार बातचीत करते नागपुर पहुँच गये।

    नागपुर में श्री शरद पारधी जी के यहाँ रुके। उनके पिता श्री मोरोपन्त पारधी- मराठी अखण्ड ज्योति पत्रिका के सम्पादक थे। इसलिये गुरुदेव जब भी नागपुर आते, उनके यहाँ अवश्य जाते। हम लोग भी गुरुदेव के साथ शरद जी के घर गये। वहाँ बहुत लोग थे। पूज्यवर के स्वागत के बाद सबका नाश्ता हुआ। उसके बाद गोष्ठी हुई। गोष्ठी में उन्होंने मुझे पास में बिठाया और सभी को सम्बोधित कर कहा- ‘‘यह मेरी बेटी नहीं, बेटा है। बहुत काम करेगी।’’ वहाँ से गोष्ठी लेकर वे महासमुन्द के हजार कुण्डीय यज्ञ हेतु निकले। उन्होंने मुझे पूछा- ‘‘महासमुन्द चलेगी क्या?’’ मैंने कहा- ‘‘गुरुदेव! मैं घर में कहकर नहीं आई हूँ, इसलिये नहीं जा सकती।’’

    पूज्यवर ने कहा, ‘‘ठीक है, मथुरा आना।’’ और महासमुन्द के लिये रवाना हो गये। जब मैं शान्तिकुञ्ज आ गई तब तो उनका प्यार, आशीर्वार्द व संरक्षण पाकर हम निहाल ही हो गये।

मेरे लिये टिफिन जरूर भिजवाती थीं

श्री अशोक दाश ,, शान्तिकुञ्ज

   माताजी प्यार लुटाने के भी अवसर खोजती रहती थीं। अक्सर ही कुछ न कुछ अपने हाथों से बना कर खिलातीं। कभी बाजरे की रोटी, कभी हलवा। एक दिन बोलीं ‘‘लल्लू, आज मैं तुम लोगों को गरीबों का हलवा बनाकर खिलाती हूँ।’’ उन्होंने बेसन का नमकीन हलवा बनाकर खिलाया। मुझे बहुत ही पसंद आया। घर आकर पत्नी को बताया। पत्नी ने चौके में रहने वाली बहनों से उसकी विधि पूछी, तो माताजी ने स्वयं उसे उसकी विधि बताई। इतना ही नहीं, जब भी माताजी की रसोई में वह बनता, वह मेरे लिये टिफिन जरूर भिजवाती थीं। उन्हें सबका ध्यान रहता था, किसको क्या पसंद है। जब जिसकी पसंद की जो चीज बनती, वह उसके लिये थोड़ा सा बचाकर जरूर रखती थीं।

मैंने तुझे नमकीन हलवा सिखाने के लिये बुलाया है

श्रीमती मणि दाश, शान्तिकुञ्ज

    एक दिन दाश जी माताजी के पास नमकीन हलुआ खा कर आये और बोले कि बहुत स्वादिष्ट था। तुम उसे जरूर सीखना। मैंने चौके की एक बहन से उसकी विधि पूछी। उसने मुझे बताया कि बेसन का घोल बना कर उसे बनाते हैं। उसने माताजी से भी कह दिया। एक दिन सुबह- सुबह साढ़े चार बजे माताजी का संदेश आया कि मुझे माताजी ने बुलाया है।

मैं बहुत घबराई कि इतनी सुबह माताजी ने क्यों बुलाया है? मुझसे कोई गलती हो गई है क्या? मैं डरते- डरते माताजी के पास पहुँची। माताजी हँसकर बोली, डरती क्यों है? मैंने तुझे नमकीन हलवा सिखाने के लिये बुलाया है। मैंने देखा, रसोई घर में गैस चूल्हे पर बड़ा सा भगोना रखा है। माताजी ने बेसन घोला और फिर उसे बनाने लगीं। मैं माताजी से बोली, माताजी मैं बनाती हूँ। माताजी बोलीं, ‘‘ना लाली, तू नहीं कर पाएगी।’’ थोड़ी देर में माताजी ने उस पर ढक्कन ढक दिया और बोलीं, ‘‘अब इसे एक तरफ से ढक्कन हटाकर 45 मिनट चलाना है।’’ मैं फिर बोली, ‘‘लाईए माताजी, मैं करती हूँ।’’ इस पर माताजी पुनः बोलीं, ‘‘नहीं, तेरे हाथ में फफोले पड़ जायेंगे। मैं, माँ हूँ न बेटा! मुझे पता है। तू देख, मैं कैसे बनाती हूँ।’’ मैंने घड़ी देखी माताजी लगातार 45 मिनट तक उसे चलाती रहीं।

   मैं भाव विभोर हो कर माताजी को देखती रह गई। जब तक माताजी थीं, तब तक जब कभी भी वह हलवा बनता, माताजी टिफिन में भर कर दास जी के लिये जरूर भेजती थीं।

छककर कढ़ी खा

     वे शान्तिकुञ्ज में रहने वाले हम लोगों पर ही नहीं अपितु शिविर में आये हुए भाई- बहनों पर भी ऐसा ही प्यार लुटाती थीं। एक बार एक शिविरार्थी भाई ने माताजी से कहा, ‘‘माताजी आज मैं जा रहा हूँ। मैं एक महीने रहा पर इस बार कढ़ी खाने को नहीं मिली।’’ माताजी ने कहा, ‘‘अच्छा बेटा! बैठ।’’ फिर उन्होंने चौके से एक बहन को बुलाया और उन सज्जन के लिये कढ़ी बनाने को कहा। वे सज्जन सकुचाये और मना करने लगे, पर माताजी ने उन्हें अपने सामने भोजन कराया। बोलीं, ‘‘बेटा छककर कढ़ी खा।’’ इतना ही नहीं रास्ते के लिये भोजन भी बाँध कर दिया।

   लो बाजरे की टिक्की खाओ

     उन दिनों शान्तिकुञ्ज में थोड़े से ही परिवार रहते थे। गुरुजी माताजी के पास आना- जाना, बातचीत करना भी सहज था। माताजी के पास तो कोई भी कभी भी चला जाता था। एक दिन सावित्री जीजी ने माताजी से कहा, ‘‘माताजी, बाजरे की टिक्की खाए बहुत दिन हो गए।’’ माताजी ने तुरंत स्टोर वाले भाई से पुछवाया, ‘‘बाजरा आ गया है क्या?’’ वह बोला माताजी अभी नहीं आया है। माताजी ने उसे कहा ‘‘जैसे ही आये मुझे बताना।’’ अगले दिन, सुबह- सुबह 8:00 बजे ही माताजी ने बुलवा भेजा और बोलीं, ‘‘लो बाजरे की टिक्की खाओ’’ और साथ में दो- चार बाँध कर भी दे दीं।

शान्तिकुञ्ज की बहुत सी बहनें माताजी के साथ बिताये

उन पलों को अक्सर याद करते हुए बताती हैं

   प्रारंभ के दिनों में आस- पास का क्षेत्र विकसित नहीं था। छोटा- छोटा सामान लेने के लिये भी हरिद्वार जाना पड़ता था। माताजी सबके सामान की सूची तैयार करवा लेतीं और एक दो लोगों को भेजकर सबका सामान मँगवा लेतीं। फिर स्वयं ही सबको वितरित करतीं।

यूँ तो गुरुजी- माताजी के साथ बिताया हर क्षण त्यौहार जैसा ही था। पर त्यौहारों का तो अपना अलग ही मजा था। माताजी गीत गवातीं, ढोलक बजवातीं, सबको हँसाती भी रहतीं। त्यौहार के दिनों में माताजी के पास सबका भोजन होता था। माताजी कई प्रकार के पकवान बनाती थीं। हम सब शान्तिकुञ्ज की बहनें माताजी के पास पकवान बनवाने जाती थीं। माताजी एक तरफ बैठतीं और लोई (रोटी बेलने, कचौड़ी भरने हेतु आटे का गोला)बनाती जातीं। उनके काम में इतनी फुर्ती थी कि वे पूरे आटे के पेड़े बना देतीं और हम लोग सब मिलकर आधा भी नहीं बेल पाते थे। कभी- कभी वह कहतीं अच्छा, तुम सब मिलकर लोई काटो, मैं बेलती हूँ। हम लोग उसमें भी पिछड़ जाते थे। हम सब मिलकर लोई बनाते और माताजी सब बेलकर कहतीं, इतने लोग लोई बना रहे हो और मैं अकेली बेल रही हूँ, फिर भी पिछड़ जा रहे हो। इतना प्यार, माताजी ने दिया कि कभी लगा ही नहीं कि हम घर- बार छोड़कर परिवार से दूर रह रहे हैं।

हमारी बहू को मेंहंदी तो लगा

श्री महेंद्र शर्मा जी व मुक्ति दीदी, शान्तिकुञ्ज

   महेंद्र शर्मा जी ने बताया, ‘‘मुझे हरी मिर्च व धनिया की चटनी बहुत पसंद थी। माताजी अक्सर मेरे लिये वह चटनी पिसवा कर रखती थीं।
एक दिन मैं माताजी के पास किसी काम से गया। माताजी के पास एक कटोरी में कुछ हरा- हरा सा रखा दिखाई दिया। मैंने सोचा चटनी रखी है।
मैंने माताजी से पूछा, ‘‘आज चटनी बनी है क्या?’’ माताजी बोलीं, ‘‘न लल्लू! मेंहंदी धरी है। आज करवाचौथ है, ले थोड़ी मेंहंदी मुक्ति के लिये भी ले जा, वो भी लगा लेगी।’’ मैंने कहा, ‘‘माताजी ये सब महिलाओं का काम है। मैं नहीं करता।’’ फिर मज़ाक में कहा, ‘‘मेरे यहाँ 21वीं सदी नहीं आयेगी माताजी, कि ये सब महिलाओं के काम करता फिरूँ, मैं?.. और... मेंहंदी ले जाकर दूँगा?’’ कहकर मैं मेंहंदी लिये बिना ही नीचे आ गया।’’

     मुक्ती दीदी- ‘‘कुछ समय बाद मैं किसी काम से गुरुजी के पास गई। उन दिनों शान्तिकुञ्ज में थोड़े से ही लोग थे और काम खूब रहता था। हम लोग दिन भर काम में व्यस्त रहते थे। गुरुजी ने मुझसे पूछा, ‘‘मुक्ति तूने मेंहंदी नहीं लगाई।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी समय नहीं मिला, अभी लगा लूँगी।’’ गुरुजी बोले, ‘‘महेंद्र को बता देना, उसकी भी 21वीं सदी आयेगी और जरूर आयेगी। बेटा, तेरे घर में भी 21वीं सदी आयेगी।’’

    मैंने सोचा पता नहीं, गुरुजी क्या कह रहे हैं। मैं माताजी के पास गई तो माताजी ने कहा, ‘‘मुझे पता है, तैने मेंहंदी नहीं लगाई होगी। महेंद्र को ले जाने को बोला तो वो यहीं छोड़ गया।’’ फिर निर्मला भाभी (माताजी की बहू) को बोलीं, ‘‘निर्मला, हमारी बहू को मेंहदी तो लगा।’’ मैंने कहा, ‘‘माताजी अब समय ही कहाँ है? पूजा होने वाली है और मुझे पूजा का सामान भी लाना है।’’ माताजी बोलीं, ‘‘अरे, पूजा में अभी आधा घण्टा है। तू मेंहंदी लगा फिर या संग बैठ के पूजा भी कर लेना।’’ माताजी ने नई चूड़ियाँ मँगवाईं, अपने हाथ से पहनाईं और पूजा आदि करने के बाद ही मैं वापिस आई।

    कमरे में लौट कर जब मैंने गुरुजी की बात बताई तो इन्होंने माताजी के साथ हुई बातचीत बताई। हम दोनों हैरान थे कि गुरुजी को सब बात कैसे पता हो जाती है? वास्तव में वे दोनों एक ही थे। कोई नीचे माताजी से बात करता, ऊपर गुरुजी को स्वतः ही वह बात पता हो जाती। कभी गुरुजी से कोई बात करता तो माताजी को नीचे सब पता हो जाती थी।

हम लोग अक्सर गुरुजी की डाँट भी सुनते थे। डाँट सुनकर नीचे उतरते तो माताजी पहले ही आवाज लगा कर बुला लेतीं और प्यार- दुलार लुटाकर मन हल्का कर देतीं। हम लोग सोचते ही रह जाते कि माताजी को कैसे पता चल गया कि गुरुजी ने हमें डाँट लगाई है, पर वो तो जगत्जननी थीं। सबके दिल का हाल- चाल उन्हें पता रहता था। उनका प्यार पाते ही हम लोगों को जैसे पंख लग जाते थे और हम गुरुजी की डाँट भूलकर दुगुने उत्साह से काम में लग जाते। ऐसा हम सभी कार्यकर्ता महसूस करते रहे हैं।

जब गुरुजी ने बारिश में खड़े होकर दीक्षा दी

   श्रीमती मिथिला रावत ने बताया कि यह शक्तिपीठों की प्राण प्रतिष्ठा के समय की बात है। 26 जनवरी 1982 को छतरपुर में गुरुदेव का कार्यक्रम चल रहा था। अगला कार्यक्रम वल्लभगढ़ में था। हम गुरुदेव को लेने छतरपुर पहुँचे। गुरुदेव को सुबह 8:00 बजे छतरपुर पहुँचना था। गाड़ी लेट थी सो गुरुदेव 2ः00 बजे पहुँचे। लोगों का उत्साह देखते ही बनता था। उस दिन खूब बारिश हो रही थी। फिर भी स्टेशन से शक्तिपीठ तक जगह- जगह लोग गुरुदेव के स्वागत के लिये छाते लिये, भीगते हुए खड़े थे। सबसे मिलते- मिलाते गुरुदेव 7ः00 बजे शक्तिपीठ पहुँच पाये। पंडाल में जनता दीक्षा लेने के लिये बैठी थी। देर हो जाने व तेज बारिश के चलते आयोजकों ने कार्यक्रम में परिवर्तन करना चाहा तो लोगों ने कहा कि हम गुरुजी के दर्शनों के लिये बैठे हैं, हमें तो दीक्षा भी लेनी है। \

    गुरुजी तक संदेश पहुँचा तो गुरुजी बोले, ‘‘अच्छा बेटा! यदि हमारे बेटे इस बारिश में भी हमें सुनना चाहते हैं और दीक्षा लेना चाहते हैं तो हम तैयार हैं। गुरुदेव के लिये मंच पर कुर्सी रखी गई। आधा घण्टा गुरुजी ने प्रवचन दिया। सबको दर्शन दिया। छतरी के नीचे खड़े- खड़े ही उन्होंने दीक्षा दी। वे थके हुए भी थे, चाहते तो मना भी कर सकते थे। पर भक्तों की इच्छा का मान रखने वाले भक्त वत्सल, वे भला कैसे मना कर सकते थे?

    कार्यक्रम के पश्चात् जैसे ही मैं गुरुदेव से मिलने पहुँची, गुरुदेव हमें देखते ही बोले बेटा! तू क्यों चली आई? क्या मैं बच्चा हूँ, जो तू लेने चली आई? अगले दिन 27 तारीख को हम लोग वल्लभगढ़ के लिये रवाना हुए। गुरुजी ने मुझे भी अपने साथ ही बिठा लिया। बोले, ‘‘चल! बैठ, बैठ, बैठ। रास्ते भर कितनी बातें करते गये। मैं थोड़ा संकोच से बैठी थी। बोले बेटा! ठीक से बैठ जा। थोड़ी- थोड़ी देर में ध्यान भी देते रहते कि मैं ठीक से तो बैठी हूँ। रास्ते में एक जगह लघुशंका के लिये गाड़ी रुकवाई। मुझसे बोले, ‘‘बेटा! तू भी चली जा।’’ फिर इधर- उधर नजर दौड़ाई और बोले, ‘‘जा! उधर झाड़ी में चली जा।’’ गिलास में पानी लिये खड़े रहे। मैं लौटी तो बोले, ‘‘ले! पानी ले ले।’’ स्वयं पानी दिया। इतनी आत्मीयता, इतना प्यार, इतनी व्यावहारिकता, कोई पिता भी क्या दे सकता है, जो गुरुजी ने दिया।

    हम शान्तिकुञ्ज आये हुए थे। बड़ी बेटी का रिश्ता रावत जी जहाँ करना चाहते थे, वहाँ के लिये वह तैयार नहीं थी। जिसकी चार बेटियाँ हों, उनकी शादी के लिये पिता को चिंता होना तो स्वाभाविक ही है। रावत जी रात में हमें बहुत नाराज हुए। गुस्से में यह भी कह गये कि जा अपने बाप के पास जा। वहीं जाकर कर लेना इसकी शादी। हम रात भर खूब रोये। सुबह होते ही गुरुजी ने हम तीनों को बुलाया और रावत जी से बोले, तू इस पर नाराज क्यों होता है? ये मेरी बड़ी प्यारी बेटी है। इस पर नाराज मत हुआ कर।’’ और बोले, ‘‘जाओ।’’ हम लोग लौट आये।

    उसी दिन मुझे घर भी लौटना था। बाकी परिवार घर पर ही था। मैं अपना सामान उठा कर चलने ही वाली थी कि मन में आया, जाते- जाते गुरुजी से मिल लूँ। मैं दौड़ कर गुरुजी के पास चली गई। गुरुजी अपने कमरे में टहल रहे थे। मैंने प्रणाम किया और पता नहीं क्या हुआ, मैं जोर- जोर से रोने लगी। गुरुजी ने मुझे छोटे बच्चे की तरह अपने सीने से लगा लिया। मेरे आँसू पोंछे। प्यार से वे मुझे बेबी बुलाते थे। बोले, ‘‘रो मत बेबी! मैं हूँ न तेरा बाप। मैं करूँगा तेरी बेटियों की शादी। जैसे तू कहेगी, जैसे ब्राह्मण से तू कहेगी, सर्विस वाला, बिजनेस वाला जैसा लड़का कहेगी वैसा ढूँढ़ दूँगा। तू चिंता मत कर। बेटा! मैं तेरा पिता हूँ।’’

फिर बोले, ‘‘अब बेटा तू आ जा। बार- बार कहता हूँ, तू सुनती नहीं।’’ हम �
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118