अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -2

शरणागति से मिला आरोग्य

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        एक बार विचित्र तरीके से मेरे गले में कुछ समस्या उत्पन्न हुई। ऐसा लगता था मानो गले में काँटे जैसा कुछ चुभ रहा है। डॉक्टर को दिखाया। कुछ समझ में नहीं आया तो डॉक्टर ने गरम पानी से गरारा करने की सलाह दी। एहतीयात के तौर पर कुछ दवा भी दी। इन सब से कोई लाभ न होते देख मैंने बड़े डॉक्टर से दिखाने की सोची। एक डॉक्टर का पता चला कि वे पूरे एशिया में छठे स्थान पर माने जाते हैं।

        उनके पास गया। उन्होंने पूरी गम्भीरता के साथ मेरी तकलीफें सुनीं। खून, थूक- खखार की जाँच करवाई। मशीन से गले की जाँच की। इतनी जाँच- पड़ताल के बाद उन्होंने बताया कोई बीमारी नहीं है। संदेह की कोई गुँजाइश नहीं रह गई थी। लेकिन मेरी तकलीफ का क्या करूँ ,, जो सोते- जागते हर क्षण याद दिला रही थी कि कुछ तो अवश्य ही है। धीरे- धीरे तकलीफ इतनी बढ़ गई कि खाना खाने और पानी पीने में भी तकलीफ होने लगी। आखिरकार हार कर दूसरे डॉक्टरों के पास गई। जिनके पास भी जाती, जाँच के बाद सब यही बताते कि कोई बीमारी नहीं है। टी.एम.एच, डॉ.भटनागर, फिर परसूडीह के चिकित्सक अनिल कुमार ठाकुर सबने देखा- जाँचा, गले की चुभन दूर करने के लिए सभी ने कोई- न कोई नुस्खे दिए, पर मुश्किल दूर न हो सकी।

        कहड़गोड़ा में दिखाया। वहाँ बताया गया, कटक में एक बहुत बड़े डॉक्टर हैं डॉ. सनातन रथ- वहाँ दिखाइए। उनके क्लीनिक और डायग्रोस्टिक सेन्टर में गया। वहाँ डॉक्टर ने कुरेद- कुरेद कर काफी सवाल पूछे। इसी दौरान मुझे याद आया कि मुझे दोनों स्तनों में अक्सर दर्द रहता है, जिस पर पहले बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया, लेकिन डॉक्टर के पूछने पर मैंने बताया। उन्होंने संभावना जताई कि संभव है इसी के प्रभाव से गले की समस्या आ रही हो। उन्होंने कहा- कैन्सर की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। कई तरह की जाँच करवाई गई, लेकिन रोग का निदान नहीं हो सका। इस बीच मेरी हालत और खराब होती गई। कमजोरी के कारण गले की चुभन इतनी अधिक बढ़ गई कि खाना पीना भी बन्द होने की नौबत आ गई।

        जीवन का अन्त बहुत नजदीक दिखाई देने लगा। इन्हीं दिनों आध्यात्मिकता की ओर मेरा कुछ रुझान होने लगा। पड़ोस में एक भाई गायत्री परिवार के थे। कभी- कभार उनसे कुछ पुस्तकें मिल जाया करती थीं। पढ़कर आकर्षण अनुभव करती थी। अचानक तबीयत के बिगड़ जाने से ऐसा आभास होने लगा कि जिन्दगी के इतने दिन काट लिए, लेकिन परलोक के बारे में कुछ सोचा ही नहीं। कहते हैं, दीक्षा से सद्गुरु का मार्गदर्शन मिलता है, जिससे मृत्यु के बाद सद्गति मिलती है, आत्मा को भटकना नहीं पड़ता। कुछ इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर मैंने गुरुदीक्षा ले ली। पड़ोस के वे सज्जन गुरु भाई के नाते कभी- कभार हाल- चाल पूछ लिया करते थे। एक दिन शक्तिपीठ से लौटते समय मेरे पति से भेंट हुई तो उन्होंने साधारण तौर पर कुशल समाचार पूछे। पति ने मेरी हालत बताई तो उन्होंने कहा- ऐसी समस्याओं में एलोपैथी की तुलना में आयुर्वेदिक दवाएँ अधिक कारगर होती हैं। उन्होंने मुसालनी में डॉ.एम.एन.पाण्डेय (आयुर्वेदिक चिकित्सक) के यहाँ दिखाने की सलाह दी। वैसे भी इसके अलावा हमारे पास और कोई चारा नहीं था। इतने दिनों से इस अजीब रोग के इलाज के पीछे इतने पैसे बहा चुके थे कि अब अधिक सामर्थ्य भी नहीं रह गई थी। कैन्सर की सम्भावना जानने के बाद से ही मैं सोच रही थी कि वैलूर में चेकअप करवा लूँ। वहाँ की काफी प्रसिद्धि सुन रखी थी। लेकिन पैसे के अभाव में वैसा सम्भव नहीं था। डॉ. पाण्डेय से ही दिखाना तय हुआ।

        डॉ. पाण्डेय ने केस हिस्ट्री पढ़कर और यह सुनकर कि मैं पैसे के अभाव में वैलूर न जा सकी, वहाँ जाने के लिए खर्च स्वयं देने की पेशकश की और तात्कालिक तौर पर कुछ दवाएँ दीं। बोले जब तक अच्छी तरह चेकअप नहीं हो जाता तब तक इन्हें लेते रहिए। उन्होंने दवा की कीमत भी नहीं ली। अभी इलाज शुरू ही हुआ था कि अचानक एक दिन घर में आग लग गई। इलाज भी बन्द हो गया। अब डॉक्टर के यहाँ जाती भी कैसे! एक बार दवा मुफ्त में दे दी तो दुबारा कैसे माँगी जाय- इस पशोपेश में कई दिन गुजर गए। वैलूर जाने की बात भी अधर में रह गई। दीक्षा के बाद से मैं नियमित साधना करने लगी थी। एक दिन साधना के बाद यों ही अनमनी- सी बैठकर मैं अपनी समस्याओं के बारे में सोच रही थी। अचानक ध्यान आया कि आजकल पहले जैसा दर्द और गले की चुभन अनुभव नहीं हो रही। पता नहीं वह बीमारी अपने आप कैसे छूट गई और आज तक में ठीक हूँ। ऐसा मात्र गुरुकृपा से सम्भव हुआ है।

प्रस्तुति :- विभा देवी
    परसूडीह, टाटानगर (झारखण्ड)

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