ऐसे ही छत्तीसगढ़ के बिसाहू राम साहू अक्सर उनके बाल बनाया करते थे। वह जब कभी बाल बनाने के बाद दाढ़ी बनाने के लिए कहते, तो गुरुजी कहते, मैं खुद बनाऊँगा। कभी- कभी वह जिद पकड़ लेते मैं बना देता हूँ गुरुजी | तब वे झल्ला जाते और कहते- तू मेरी दाढ़ी क्यों बनायेगा? क्या मैं नहीं बना सकता?
तू मेरा सब काम करेगा, सब काम करेगा, जा! मेरा सब काम तू ही कर जा! अब तो बेचारे चुप हो जाते और चुपचाप चले जाते। धीरे- धीरे उन्हें मालूम हो गया था कि गुरुजी अपना वही काम दूसरों से कराते हैं जो वे खुद नहीं कर सकते। बाकी अपने सब कार्य वे स्वयं ही करते हैं।
०००
एक दिन शाम के लगभग ४:०० बजे थे। मैं उनके पास बैठा था। एक व्यक्ति उनके पास आया। उसने धोती- कुर्ता पहना था। कंधे पर साफा रखा था। गुरुजी ने पूछा, कहाँ से आयें? वह बोला, हाथरस से आया हूँ। उसके पास एक छोटी सी थैली थी। जिसमें कुछ चीज रखी थी। उसने वह थैली उन्हें दी और चला गया।
गुरुजी ने थैली खोली, उसमें एक आम रखा था। गुरुजी बोले, वो एक ही आम दे गया। दो होते तो एक तू खाता, एक मैं। फिर वो उठे। अल्मारी में से चाकू निकाला। आम को काटा और गुठली प्लेट में रखकर मुझे दे दी। फिर बोले, तू बहुत फायदे में रहा। आम के आम गुठली के दाम |
कल्पना से बाहर की बात है। इतने बड़े सिद्ध पुरुष! स्वयं ने प्लेट निकाली, चाकू निकाला और स्वयं ही काट कर दिया। चाहते तो आदेश भी दे सकते थे।
गायत्री माता के स्टेनो
एक दिन चर्चा के दौरान श्री राम खिलावन अग्रवाल जी ने मुझे बताया कि दिसम्बर १९७७ में वे कुछ कार्यकर्ता गुरुजी के पास छत पर लेखन कर रहे थे। उन दिनों पूज्यवर पूरी टीम को अपने पास बैठाकर लेखन सिखाते थे। उस समय उनसे मिलने का समय निर्धारित नहीं था, कोई भी, कभी भी मिलने चला आता था।
एक पाँच विषय के एम.ए. डिग्रीधारी व्यक्ति आये और गुरुजी से बोले- गुरुदेव! मुझे अपना स्टेनो बना लें, आप जो भी बोलेंगे मैं लिख लूँगा और आपका काम आसान बना दूँगा।
गुरुजी बोले, बेटा! तुम तो पाँच विषय में एम.ए. हो। मेरे पास तो छः- सात विषय के एम.ए. भी आये थे | वे कुछ क्षण चुप रहे, फिर कहा- मैं क्या करूँगा स्टेनो रखकर? मेरी एक मुसीबत है, और वो ये है कि मैं भी, किसी का स्टेनो हूँ। अब स्टेनो, स्टेनो कैसे रखे? वे (गायत्री माता) जो कहती हैं, वही मैं लिखता हूँ।
वह व्यक्ति गुरुजी की सहजता पर दंग होकर चला गया। हम सबने एक दूसरे की ओर देखा। शायद सभी उनके शब्दों का अर्थ ढूँढ़ रहे थे।
उनके हर आचरण में कुछ न कुछ शिक्षण छिपा रहता था।
महापुरुष कितने विनम्र होते हैं, यह उनके व्यवहार से झलकता था। भारत माता मंदिर का उद्घाटन समारोह था। देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री माननीया इंदिरा गाँधी जी द्वारा उद्घाटन हुआ। स्वामी सत्यमित्रानंद जी ने पूज्यवर से भी इस संदर्भ में सलाह- मशविरा किया था। निमंत्रण शान्तिकुंज भी आया था। तीन दिन का कार्यक्रम था। गुरुदेव ने तीसरे दिन मुझे बुलाया और कहा- भारत माता मंदिर चलना है। मैंने कहा- गाड़ी ले आऊँ।
उत्तर मिला, पैदल चलेंगे। सन्तों के दर्शन पैदल चल कर ही करना चाहिए।
हम दोनों पैदल भारत माता मंदिर के कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे। बड़ी सहजता से उन्होंने मंच पर विराजमान सन्तों को प्रणाम किया और पण्डाल में अंतिम पंक्ति की कुर्सी पर विनम्रतापूर्वक बैठ गये।
स्वामी सत्यमित्रानंद जी के स्वयंसेवक सभी ओर फैले थे। चूँकि शान्तिकुञ्ज बहुत पास है, अतः बहुत से स्वयंसेवक गुरुदेव को पहचानते थे। उन्होंने मंच पर जाकर गुरुदेव के आने की सूचना दी।
गायत्री वाले आ गये हैं, सबसे पीछे की अंतिम कुर्सी पर बैठे हैं।
सुनकर सत्यमित्रानंद जी गद्गद् हो गये। उस समय उनका ही प्रवचन चल रहा था। उसे बीच में ही रोककर उन्होंने कहा, महापुरुष जब भी आते हैं, उनमें कभी कोई बनावट नहीं होती। ऐसी सहजता, सरलता कहीं देखने को नहीं मिलती। ऐसा ही एक महापुरुष हमारे आयोजन में, हमारे सौभाग्य से उपस्थित है। जो हमारे लिये ऐतिहासिक बात है। मैं आचार्य जी से कर- बद्ध प्रार्थना करता हूँ कि वे हमारे मंच की शोभा बढ़ाएँ और अपने आशीर्वचनों से हमें कृतार्थ करें|
पूज्यवर उसी सहजता से उठकर मंच की ओर चल दिए। साथ में मैं भी था। स्वामी जी ने आचार्य जी को बैच लगाया व आशीर्वचन हेतु पुनः निवेदन किया।
पूज्यवर हर वस्तु में निर्माण की कल्पना करते थे। अतः इसे भी उसी दृष्टि से लेते हुए उन्होंने कहा- देवियो सप्तसरोवर क्षेत्र में अभी तक कोई दर्शनीय स्थल नहीं था। स्वामी जी ने भव्य मंदिर बनाकर यह कार्य पूर्ण किया। यह हिमालय का क्षेत्र है, इसमें केवल बड़े- बड़े जंगल ही थे। अब यह विशाल मंदिर इन्सान को देवता बनाने के कार्य में लगकर अपनी सार्थकता सिद्ध करेगा। सन्त, सुधारक, शहीद की पीढ़ियाँ प्रदान करेगा।
बड़ी सहजता से भविष्य का निर्देशन भी दे दिया। ऐसी थी उनकी सहजता- सरलता।
गुरुजी की सादगी के विषय में
चाँदवानी जी बताते हैं कि सन्
१९६८
में जब पूज्यवर शान्तिकुञ्ज हेतु भूमि लेने आये थे। स्टेशन के
पास ही काफी जमीन और मकान मिल रहे थे। पर उन्हें अपने गुरु का
जैसा आदेश मिला, वैसा ही उन्होंने किया। सप्तऋषि आश्रम में,
अनुसुइया
कुटी में ठहरे। जब तक शान्तिकुञ्ज में उनके ठहरने लायक स्थान
नहीं बना, तब तक गुरुदेव जब भी आते उसी कुटी में ठहरते थे।
सप्तऋषि आश्रम के पास की यह भूमि जो उस समय बहुत दलदली
थी, खरीदी और इसी भूमि पर उन्होंने निर्माण करने की ठानी। श्री
रामचन्द्र सिंह जी को उन्होंने कहा, एक साइकिल किराये से ले लो।
किसी ठेकेदार को देखकर आते
हैं।फिर उनको साथ लेकर
चान्दवानी बिल्डर्स, ज्वालापुर, के पास गये। उन्हें लेकर आये, जमीन दिखाई। पूछा, यहाँ निर्माण कैसे हो सकेगा, बताओ?
चाँदवानी जी ने जमीन देखकर कहा, यहाँ तो निर्माण करना बहुत मुश्किल होगा और महँगा भी। आप कोई और जमीन देख
लीजिये। गुरुजी ने कहा,
हमें तो यहीं बनाना है। आप बताइये कैसे होगा?
चाँदवानी
जी ने कहा, आपको यहीं बनाना है, तो आप हमें छः महीने का समय
दीजिये, तब हम बना सकते हैं। पूज्यवर बोले, आप छः माह लें या एक
वर्ष, पर हमें बनाना यहीं है। बताओ, कैसे बन सकेगा?
चाँदवानी जी ने कहा- हम यहाँ
यूकिलिप्टस के पेड़ लगायेंगे। उससे पानी
सुखायेंगे, तब निर्माण हो सकेगा
| गुरुजी ने कहा, ठीक है, जैसा आप उचित समझें
| फिर यहाँ एक हजार
यूकिलिप्टस के पेड़ लगाये गये। तब कहीं जाकर
ज़मीन का कुछ पानी सूखा और ईंट गारा रखने लायक जगह बनी। फिर यहाँ निर्माण कार्य सम्पन्न किया गया।
चाँदवानी
जी बताते हैं कि निर्माण के बाद भी गुरुजी उनके पास अक्सर
आया करते थे। उनसे पारिवारिक सम्बन्ध बन गये थे। गुरुजी उनके घर
भी आया करते, और सब जनों के हाल- चाल पूछते। सबको प्यार- आशीर्वाद
लुटाते। शान्तिकुञ्ज में उस समय कार भी आ गयी थी, परन्तु वे फिर
भी रिक्शे से ही उनके पास आते- जाते। ऐसे सादगी- सम्पन्न थे
पूज्य गुरुदेव।
ऐसे ही सन्
१९८२ की बात है।
खड़खड़ी में श्री
रामकिंकर
उपाध्याय जी की कथा का आयोजन था। आयोजकों ने शान्तिकुञ्ज में
भी निमंत्रण भेजा था। एक दिन गुरुजी ने मुझे बुलाया और कहा,
उन्होंने बहुत बार बुलाया है, उसमें चलना है। उस समय तक
शान्तिकुञ्ज में कार नहीं थी। सामान ढोने वाला एक
टैंपो
था, उसे बुलवाया। उन दिनों भास्कर जी चालक थे। गुरुजी उनके बगल
वाली सीट में बैठ गए। हम दो- तीन लोग पीछे बैठ गए। जब उसे
स्टार्ट किया तो वो बंद हो गया। गुरुजी बोले, अरे
बच्चो! उतरो, धक्का लगाओ
|धक्का लगा कर गाड़ी को
स्टार्ट
किया और उस आश्रम में पहुँचे जहाँ कथा हो रही थी। कथा चल रही
थी। गुरुजी बोले, देखो, कथा चल रही है। चुप- चाप चलकर पीछे बैठ
जाना| उनकी स्वयं की महानता इतनी बड़ी कि स्वयं भी चुप- चाप हमारे साथ पीछे बैठ गये।
व्यास पीठ से उस युग के सबसे बड़े,
विश्वप्रसिद्ध कथावाचक, श्री
रामकिंकर
उपाध्याय जी ने देख लिया। उन्होंने कथा को विराम दिया और मंच
से कहा, हम सबका सौभाग्य है कि हमारे देश के महापुरुष, संत हमारे
बीच आये हैं। जिन्होंने गायत्री और यज्ञ को जन- जन तक पहुँचाया
है। जिनके लाखों- करोड़ों शिष्य हैं, भक्त हैं। मैं उनसे प्रार्थना
करता हूँ कि वो मंच पर आ जायें
|
भीड़ मुड़ कर देखने लगी, कौन आया? पर गुरुजी तो सबसे पीछे बैठ
गए थे। दिखाई नहीं पड़े। गुरुदेव ने हाथ जोड़ कर संकेत किया कि
मैं ठीक हूँ। आप कथा प्रारंभ करिये। लेकिन
रामकिंकर जी ने कहा, जब तक आप आगे नहीं आयेंगे, मैं कथा प्रारंभ नहीं करूँगा।
गुरुजी आगे जाकर अग्रिम पंक्ति में बैठ गए। मंच पर फिर भी नहीं बैठे।
रामकिंकर
जी गुरुदेव को पहचान गये थे, अतः कथा कहते- कहते उन्होंने कहा
आज का दिन मेरे जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य का दिन है। देश- विदेश
में जिनकी कथा मैं कहता आया हूँ, आज वो स्वयं मेरी कथा श्रवण
करने के लिये मेरे सम्मुख बैठे हैं।
महापुरुष कितने अव्यक्त होते हैं, यह पूज्यवर के पास ही देखने
को मिला। उनकी सादगी से हर कोई चकित हो जाता था। उनकी सादगी
देखकर पहली नजर में तो किसी को विश्वास ही नहीं होता था कि वे
ही गुरुजी हैं।
एक बार लन्दन से एक व्यक्ति गुरुजी से मिलने आया। मैं
ऊपर ही बैठा था। साथ में दो तीन व्यक्ति और थे। उस समय कोई भी,
कभी भी गुरुजी के पास चला जाता था। वह भी ऊपर आया पर गुरुजी
को वह पहचानता नहीं था। आकर गुरुजी से बोला, मैं गुरुजी से मिलना
चाहता हूँ। गुरुजी ने उत्तर दिया, मुझे ही लोग गुरुजी कहते हैं।
उनकी सादगी व वेश- विन्यास देखकर उसे विश्वास ही नहीं हुआ। शायद
मन में किसी जटाजूटधारी की कल्पना थी, अतः उसने फिर कहा, मैं
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी से मिलना चाहता हूँ।
गुरुजी ने उत्तर दिया, हाँ
भई! मैं ही आचार्य श्रीराम शर्मा हूँ।
कुछ देर तक तो वह हैरानी से उन्हें देखता ही रह गया। फिर बोला, इतने बड़े
महापुरुष!
इतने सरल, इतने सीधे- साधे भी हो सकते हैं क्या? उसने उन्हें
प्रणाम किया और उनके चरणों में ही बैठ गया। उठाये नहीं उठ रहा
था। पूज्यवर ने ही स्नेहपूर्वक उसे उठाया। उसने अपनी
जिज्ञासाओं का
समाधान पाया और उनकी सहजता को हृदय में धारण कर शान्तिकुञ्ज
से विदा हुआ।
श्रीमती श्रीदेवी यादव
(श्रीमती
श्रीदेवी यादव माताजी सन्
१९६२ में गुरुदेव से मिलीं। मथुरा आती- जाती रहीं। सन्
१९८२ में गुरुदेव के बुलाने पर पूर्णरूप से शान्तिकुञ्ज आ
गईं।)
गुरुजी से बातचीत
श्रीदेवी अम्माजी बताती हैं कि
१९५८
का यज्ञ होने वाला था। उसके लिये गायत्री मंत्र लेखन अभियान चल
रहा था। एक राव जी साहब हमारे घर आते थे, उनके कहने पर मैंने
मंत्र लेखन किया, पर कुछ दिनों बाद ही राव जी का देहांत हो
गया और हम उस यज्ञ में शामिल नहीं हो पाये। बाद में सन्
१९६२
में पिताजी के साथ मैं, मथुरा में गुरुजी से मिली। गुरुजी ने
हाल- चाल पूछा। बहुत कम उम्र में ही मेरे पति चल बसे थे। गुरुजी
ने कहा,
बेटी, तेरा मन नहीं लगता, तो तू मेरे पास आ जाया
कर। फिर
तो हमारा आना- जाना लगा ही रहता। गुरुजी खूब बातचीत करते और
खूब प्यार देते। सत्र पूरा होने के बाद भी हम कई- कई दिन तक
गुरुजी के पास गायत्री तपोभूमि, मथुरा में रुक जाते थे। मैं
गुरुजी के पास बैठी रहती, वे अपना लेखन, लोगों से मिलना- जुलना
आदि काम करते रहते।
एक दिन गुरुजी ने मुझे अपने पास बिठाया। मैं गुरुजी के पास ही तखत पर बैठ गई। गुरुजी ने कहा,
तुम रामायण पढ़ती हो, सो ठीक है। गीता पढ़ती हो, वो भी ठीक है। द्वादश
अक्षरी (ॐ नमो
भगवते वासुदेवाय नमः।) जपती हो ये भी अच्छी बात है। एक माला गायत्री मंत्र की और कर लिया
करना। मैंने कहा,
गुरुजी, मैं
२४ बार तो जपती
हूँ। गुरुजी बोले,
च्च्एक माला कर लिया
करना। फिर गुरुजी ने मुझे अपने पास बिठाया और रामायण की कुछ चौपाइयाँ बोलने लगे,
परपति रति
करईं,
रौरव नरक
कलप सत
परहिं....आदि,
आदि। और बोले,
तू इन सबका चिंतन क्यों करती रहती है? विधवा होने के कई एक कारण होते हैं। तू ऐसा सब क्यों सोचती रहती
है ? मैं गुरुजी की बात सुनकर
हक्की- बक्की रह गई।
गुरुजी मन की बात भी पढ़ लेते
हैं ! मेरे हृदय की सब बात जान रहे
हैं!
मैंने गुरु जी से पूछा,
गुरुजी, मेरा भविष्य कैसा
निकलेगा? गुरुजी बोले,
तेरा भविष्य मैंने बना कर रख दिया है। तू चिंता मत
कर |
एक दिन बात करते- करते मैंने गुरुदेव के दोनों हाथ पकड़े और पूछा,
गुरुजी आप कौन हैं? गुरुजी बड़े सहज ढंग से अपनी ओर इशारा करते हुए बोले,
देखती नहीं, मैं कौन
हूँ ? मैंने कहा,
गुरुदेव, सब तो आपको भगवान् कहते
हैं। गुरुजी बोले,
चहाँ बेटा, तेरा तो मैं भगवान् ही हूँ। तुझे भगवान् से मिलाऊँगा और भगवान् के कंधों पर बिठाऊँगा
भी।
यह कहकर गुरुदेव हँसने लगे, पर उस दिन से आज तक, मैं जब ध्यान
करती हूँ तो मुझे गुरुजी ही दिखाई देते हैं। गायत्री माता या
और कोई देवी- देवता नहीं।
एक बार मैं और पिताजी शान्तिकुञ्ज आये हुए थे। पिताजी ने गुरुजी से
कहा,गुरुजी, हमारा तो समय अब नजदीक है, आप इसका ध्यान
रखना। गुरुजी बोले,
हाँ, मैं ध्यान रखता हूँ। अब मैं क्या करूँ? क्या
दूँ... देने के लिये? हाँ, देने लायक जो है वो दूँगा, साहस दूँगा, धैर्य
दूँगा। वास्तव में मैंने देखा, मेरे पास हिम्मत बहुत है।
दिव्य आनंद
गुरुजी बार- बार आने के लिये कहते थे, सो पिता जी की मृत्यु के बाद सन्
१९८२ में मैं शान्तिकुञ्ज आ गई। एक बार मैंने गुरुजी से कहा,
गुरुजी, आप मेरा ध्यान
रखना। गुरुजी बोले,
बेटा!
मैं धोखा देने वाला आदमी नहीं हूँ। तुमने मेरा पल्ला पकड़ा है
तो निराश नहीं होने दूँगा। किसी को तुझे सताने नहीं दूँगा। ध्यान
तो मैं तेरा पहले भी रखता था, अब विशेषकर रखूँगा। सूक्ष्म शरीर
से सौ वर्ष तक तुम्हारे साथ
रहूँगा। फिर
उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और कान में उँगली डाली। मुझे
बड़ी दिव्य अनुभूति हुई। ऐसा लगा जैसे मेरे चारों ओर आनंद ही
आनंद छा गया। हर क्षण गुरुदेव की निकटता का आभास होता रहा। ऐसा
लगता रहा जैसे सर्वत्र गुरुजी ही गुरुजी छाये हैं। तीन दिन तक
मैं उस दिव्य आनंद, अलौकिक आनंद की मस्ती में डूबी रही।
हर पल संरक्षण
एक बार मैं बद्रीनाथ गई। पिताजी बद्रीनाथ का विवरण
सुनाते थे। रास्ते में बहुत ऊँची- ऊँची पहाड़ियाँ हैं, गहरी खाइयाँ
हैं। मैं सोचती थी जाने कैसा लगता होगा? बस में से जब मुझे गहरी
खाई दिखाई दी तो मुझे बहुत डर लगने लगा। साँस फूलने लगी,
घबराहट होने लगी। इतने में मुझे लगा जैसे खिड़की में गुरुजी खड़े
मुस्कुरा
रहे हैं। मैंने गौर से देखा तो ओझल हो गये। फिर थोड़ी देर में
लगा जैसे खिड़की में गुरुजी हँस रहे हैं। तीन- चार बार गुरुजी
मुझे खिड़की में हँसते, मुस्कुराते दिखाई दिये। उनकी इस आँख- मिचौनी
में और उनके दर्शन करके मेरा मन इतना प्रसन्न हो गया कि मेरा
सारा डर कहाँ चला गया, मुझे पता ही नहीं चला। फिर रास्ते भर
मुझे डर नहीं लगा।
हमारे पिताजी के पास काफी जमीन- जायदाद थी। पिताजी की
अकेली संतान होने के नाते मैं उसकी अकेली वारिस थी। पिताजी के
बाद सब
संपत्ती
मुझे मिलेगी यह सोचकर, हमारे ही परिवार के कुछ लोगों ने मेरी
हत्या करने की साजिश रची। वे लोग मुझे कभी- कभार कह भी देते थे
कि अकेली वारिस हो, कोई मार डाले तो? पर मेरे मन में शंका तो
दूर ऐसा कोई ख्याल भी नहीं आया कि इनकी बात में कोई सच्चाई भी
हो सकती है।
सन्
१९७७ में परम वंदनीया माताजी का पत्र आया। लिख था,
तू शान्तिकुञ्ज आ जा। गुरुदेव चिंता करते हैं। कहते हैं, छोरी वहाँ अकेली है, कोई गला घोंट
देगा। कुछ दिनों बाद वीरेश्वर भाई साहब कार्यक्रम के लिये हमारे क्षेत्र में आये तो उनके पास भी संदेश दिया और कहा,
लड़की वहाँ अकेली पड़ी है, देखकर आना और उसे आने के लिये
कहना।
मैंने भाई साहब को शान्तिकुञ्ज के लिये कुछ अनुदान दिया और
कुछ दिन में अपना काम समेट कर आने का संदेश दिया। सप्ताह भर
बाद मैं शान्तिकुञ्ज आ गई, और आने के कुछ ही दिनों बाद मुझे
समाचार मिला कि हमारे घर की एक बहू की हत्या हो गई है। बाद
में उस बहु के मायके वालों के द्वारा यह रहस्य खुला कि पैसा
तो मुझे मारने के लिये दिया गया था और धोखे से उनकी बेटी की
हत्या हो गई। इस प्रकार पूज्य गुरुदेव ने दूर रहते हुए भी आने
वाली
विपत्ती की ओर संकेत ही नहीं किया बल्कि मेरी रक्षा भी की। \
सन्
१९८१ में एक दिन
शिकोहाबाद,
जि.
फिरोजाबाद में हमारे पैतृक घर में डाकू आ गये। घर में पिताजी,
मैं और एक दो लोग और थे। लगभग रात हो गई थी। हम लोग चारपाई पर
मच्छरदानी लगाकर सोने ही जा रहे थे कि डाकू घर में घुसे, उनके
हाथ में बंदूकें थीं। सामने के रास्ते से पुलिस वाले अक्सर
आया- जाया करते थे। वे लोग कभी- कभी पानी पीने के लिये घर में
भी आ जाते थे। हमने सोचा पुलिस वाले होंगे। इतनी देर में वह लोग
आँगन में हमारी चारपाई के पास आ गये। मच्छरदानी खींच कर एक
तरफ कर दी और बंदूकें तान कर बोले,
हम आप लोगों को कुछ नहीं कहेंगे, बस पानी पिला
दो।जब
तक हमने उन्हें पानी पिलाया उन्होंने घर का जायजा ले लिया कि
घर में कितने लोग हैं। दो लोग हमारे ऊपर बंदूकें ताने खड़े रहे।
बाकी लोगों ने, जो कुछ उनके काम की चीज घर में मिली, उसे बाँध
लिया। घर में
१५-
२०
तोला सोना रखा था। जहाँ वह रखा था, वहीं काष्ठ पात्र आदि पूजा
के बर्तन रखे थे। डाकुओं ने सोचा यहाँ तो सब पूजा का सामान है
और उस अल्मारी की ज्यादा छान- बीन नहीं की। इस प्रकार जेवर आदि
सब बच गये।
घर में कुछ विशेष सामान था नहीं, सो डाकुओं को
ज्यादा कुछ मिला नहीं। वे पिताजी के पास आकर बोले,
इतना बड़ा घर है, पैसा भी खूब होगा। बताओ कहाँ
है? पिताजी ने कहा,
मैं तो अपने पास कुछ रखता नहीं, ये मेरी बेटी है इसी को सब दे देता हूँ।
इसीसे पूछ
लो।ज्ज् उन्होंने मुझसे पूछा,
माताजी, पैसा तो बहुत होगा आपके पास, कहाँ रखा
है ?
घर में कुछ विशेष पैसा तो था नहीं। मैंने उन्हें सब सच- सच
बता दिया कि पैसा तो हमारे पास बहुत है, पर घर में नहीं है।
सामने जो इंटर कालेज है, कुछ पैसा उसको बनवाने में लगा दिया। कुछ
पैसा, शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार, में हमारे गुरुजी रहते हैं, उन्हें दे
दिया। अपने खर्चे के लिये जो रखा है, वह बैंक में जमा है। घर
खर्च के लिये थोड़ा सा पैसा घर में है, वह सामने कोठरी में पूजा
के पास डब्बे में पड़ा है। वह पैसा डाकुओं को पहले ही मिल गया
था। मेरी बात सुनकर डाकुओं में से एक ने कहा, सबको कमरे में
बंद कर दो। इतने में, किसी एक डाकू की नजर छत पर पड़ी। उसे लगा
वहाँ कोई है। उसने पूछा,
घर में और कौन- कौन
है? हमने कहा,
हमारे अलावा और कोई नहीं
है। वह बोला,
छत पर कौन
है? हमने कहा,
कोई नहीं
है। पर डाकुओं को छत पर कोई सफेद धोती- कुर्ता पहने, हाथ में बड़ा सा डंडा लिये खड़ा दिखाई दे रहा था। वे बोले,
छत पर सफेद धोती- कुर्ते वाला कौन है? ऊपर जाने का रास्ता
किधरहै?
और घर के एक व्यक्ति को आगे करके वे सीढ़ियों की तरफ गये। वे
सीढ़ियाँ चढ़ ही रहे थे कि पता नहीं क्या हुआ वे हाँफते हुए और
डर के मारे काँपते हुए, उल्टे पैरों भागे और भागते ही चले
गये। घर का जो कुछ सामान उन्होंने पोटलियों में बाँधा था, उसे भी
थोड़ी दूर जाकर एक पेड़ के नीचे छोड़ गये। इस प्रकार पूज्य
गुरुदेव ने घर में घुस आये डकैतों को भगाया।
डॉ. ओ. पी. शर्मा एवं डॉ. गायत्री शर्मा
(
डॉ. ओ. पी. शर्मा जी एवं
डॉ.गायत्री शर्मा
१९८० में पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आये। उसके बाद लगातार संपर्क में रहे, टोलियों में भी जाते रहे।
१९८९ में
डॉ. ओ. पी. शर्मा जी स्थाई रूप से शान्तिकुञ्ज आ
गये।)
मन की बात सुनने वाले हमारे गुरुदेव
बात जनवरी
१९८१
की है, परम पूज्य गुरुदेव सुल्तानपुर गायत्री शक्तिपीठ व गायत्री
प्रज्ञापीठ में प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम हेतु आये थे। वहाँ
से उन्हें लखनऊ जाना था। हम दोनों के मन में प्रेरणा हुई कि
गुरुजी को लखनऊ तक विदा करने चला जाय। उन दिनों हम दोनों महिला
और पुरुष चिकित्सालय में अधीक्षक के पद पर तैनात थे, सो छुट्टी
बड़ी मुश्किल से मिलती थी, लेकिन उस दिन रात में
सी. एम. ओ. से बात
हुई
और छुट्टी मिल गई। हम दोनों जब विदाई स्थल पर पहुँचे तो वहाँ
बहुत भीड़ थी। हम दोनों दूर से ही एक ऊँचे स्थान पर खड़े हो कर
गुरुवर को देखने लगे। हमने
सोचा,जैसे ही गुरुदेव उठेंगे, हम अपनी कार में बैठ कर उनकी गाड़ी के पीछे चल देंगे।
गुरुदेव को लेने के लिये लखनऊ से क
ई
गाड़ियाँ आई थीं। हम सोच रहे थे कि यदि गुरुदेव हमारी कार में
बैठ कर चलते, तो हमारा कितना सौभाग्य होता? गुरुदेव के उठते ही
हम अपनी कार के पास पहुँच गये। गुरुदेव आये और हमारी कार के
पास आकर खड़े हो गये और बोले,
हम इसी में
बैठेंगे। डॉ.
शर्मा जी ने कार का दरवाजा खोला और गुरुदेव उसमें बैठ गये।
हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था। मन ही मन हम सोच रहे थे कि हम
कितने सौभाग्यशाली हैं, जो गुरुवर ने हमारे मन की बात बिना कहे
ही पढ़ ली और हमारी अभिलाषा पूरी की।
रास्ते में एक जगह गुरुदेव ने कार रोकने को कहा। कार
जहाँ रुकी थी, वहाँ दूर- दूर तक कोई नहीं दिख रहा था, पर अचानक
पता नहीं कहाँ से पंद्रह- बीस लोग आरती का थाल ले कर आ गये।
उन्होंने गुरुवर की आरती उतारी। गुरुदेव ने उन सभी से घर वालों
के नाम ले- लेकर सबका
हाल- चाल पूछा। हमें आश्चर्य हुआ कि अभी तो कोई नहीं था, अचानक
ये लोग कहाँ से आ गये और गुरुदेव को इनके घरवालों के, पत्नी-
बच्चों के जो यहाँ हैं भी नहीं, नाम कैसे याद हैं? यह सब देखकर
हम उनकी सर्वज्ञता के
आगे नतमस्तक थे।
पत्ती- पत्ती में गुरुदेव
गायत्री दीदी बताती हैं कि अपने पिता के घर में, बचपन
में मैं एक फोटो टँगी देखती थी। जिसमें एक कदम्ब के पेड़ के
नीचे राधा- कृष्ण खड़े थे और उस वृक्ष के प्रत्येक पत्ते में भी
वही राधा- कृष्ण बने थे। मैं सोचती थी कि पत्ती- पत्ती में भगवान
कैसे हो सकते हैं? इसकी स्पष्ट अनुभूति मुझे उस समय हुई जब हम
गुरुदेव को लखनऊ छोड़ कर वापिस लौटे।
परम पूज्य गुरुदेव को विदा करके डॉ. शर्मा जी और मैं जब सुल्तानपुर के लिये रवाना हुये
तो मन बहुत भारी था, लग रहा था जैसे कुछ छूटा जा रहा है।
प्रातःकाल का समय था और पूज्य गुरुदेव की बहुत याद आ रही थी।
भारी मन से रास्ते के पेड़ों को देखते हुए जा रही थी कि अचानक
अन्तःकरण में प्रेरणा आयी कि गुरुवर तो पत्ती- पत्ती में
विराजमान हैं और मुझे ऐसा प्रतीत भी होने लगा, ठीक वैसे ही जैसे
बचपन में पत्ती- पत्ती में राधाकृष्ण को देखती थी।
यह भाव इतना प्रबल था कि आँखों से अश्रु झरने लगे। डॉ. शर्मा जी ने पूछा, रो क्यों रही हो? हमने कहा, भगवान्
गुरुदेव के रूप में आये हैं। वह पत्ती- पत्ती में विराजमान
हैं, ऐसा हमें अनुभव हो रहा है और ये दुःख के नहीं खुशी के
आँसू हैं कि भगवान् ने गुरुवर के रूप में हम लोगों को दर्शन
दिया है।
यह अनुभूति इतनी स्पष्ट, इतनी सजीव थी कि इसे वाक
शक्ति से बताया नहीं जा सकता। उसी दिन अन्दर से संकल्प जागा
कि दोनों या दोनों में से कोई एक परम पूज्य गुरुदेव के चरणों
में आजीवन समर्पित हो कर उनका कार्य करेंगे। बच्चे छोटे थे, एक
पहली में और दूसरा पाँचवी
में पढ़ रहा था और मुझे निर्देश हुआ कि अपनी जिम्मेदारी पूरी
करने पर ही आयें। यह अनुशासन मान कर एक के आने का दृढ़ निश्चय
हो गया और डॉ.
शर्मा जी शान्तिकुञ्ज आ गये और हम वहीं रह कर पारिवारिक
जिम्मेदारी, चिकित्सक की नौकरी और गुरुवर का कार्य करते रहे। कण-
कण में उनके स्वरूप की वह अनुभूति आज भी ज्यों की त्यों मन
में सजीव है।
हम भगवान से लेना जानते हैं
२७ अप्रैल १९८१
को बस्ती में प्राण- प्रतिष्ठा का कार्यक्रम था। कार्यक्रम के
पश्चात् पूज्यवर जब लोगों से मिलने के लिये बैठे तो हमसे बोले, तुम हमारे पास खड़े रहना और लोगों को दवा लिख देना हम सोचने लगे, हम क्या दवा लिखेंगे?ज्ज् खैर हम उनके पास खड़े हो गये। लोग अपनी- अपनी समस्या कहते और गुरुदेव आशीर्वाद दे देते। कोई गंभीर बिमारी
से पीड़ित था, तो उसे भी गुरुदेव ने आशीर्वाद दे दिया। कार्यक्रम
समाप्त होने के बाद निवास स्थान पर जाकर हमने गुरुदेव से
निवेदन किया कि गुरुदेव, बीमारी कैसे ठीक होगी? गुरुदेव ने कहा, बेटा, करता तो भगवान है। लोग भगवान से लेना नहीं जानते। हम उनसे लेना जानते हैं, हम उनसे कहते हैं, वो करते हैं।
उनके यह शब्द सुनते ही मेरी शंका का समाधान हो गया और मुझे एम.बी.बी.एस में पढ़े हुए वे शब्द याद हो आये, हार्ट कैसे कार्य करता है यह विज्ञान का विषय है, लेकिन हार्ट किसने बनाया? सर्जन कट्स एण्ड गॉड युनाइट्स |
१९८२ जनवरी में, मैं १५ दिन के प्रज्ञा- पुराण प्रशिक्षण हेतु सुल्तानपुर से शान्तिकुञ्ज आया था। ५- ६ दिन बाद लगभग नौ बजे के करीब हम गुरुदेव के पास बैठे थे कि श्री रामजनम वर्मा जी अपने आठ वर्ष के बेटे को लेकर आये और कहा, गुरुजी, इसकी साँस फूलती है। गुरुदेव ने कहा, अभी से साँ�