ऋषि युग्म की झलक-झाँकी-1

उनकी चेतना आज भी सक्रिय है

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   सन् 1990 में जहाँ पूज्य गुरुदेव अपने स्थूल शरीर को समेट रहे थे, वहीं सूक्ष्म शरीर से उनकी चेतना अति सक्रिय थी। अनेकों परिजनों के पास वे सूक्ष्म शरीर से गये, उनसे बातचीत की। स्वप्नों में लोगों की समस्याओं का समाधान किया। इतना ही नहीं, हजारों ऐसे लोगों से भी मिले, (सूक्ष्म शरीर एवं स्वप्र में )) जो उन्हें पहचानते भी नहीं थे। उनके पास जाकर उनकी समस्याओं का समाधान किया। बाद में वे लोग उनके चित्र को देखकर उन्हें ढूँढ़ते हुए शान्तिकुञ्ज पहुँचे व सक्रिय कार्यकर्ता बन गये। गुरुदेव ने लिखा था- ‘‘ये कारवाँ रुकेगा नहीं’’ और इसकी व्यवस्था भी वे स्वयं ही करते रहे हैं। इसी का परिणाम है कि उनके स्थूल शरीर छोड़ने के बाद भी ‘युग निर्माण योजना’ का विस्तार पच्चीस गुनी शक्ति से बढ़ता चला गया है।

    क्रान्तिधर्मी साहित्य की अनेकों पुस्तकों में उन्होंने लिखा है, जो कार्य इस शरीर से बन पड़ा है, वह एक परसेण्ट ही है। शेष 99 प्रतिशत कार्य तो अदृश्य सत्ताओं ने ही किया है। अपनी गोष्ठियों में उन्होंने आश्वासन दिया था, ‘‘बेटा, हम कहीं नहीं जा रहे। यहीं रहेंगे। सजल श्रद्धा- प्रखर प्रज्ञा में निवास करेंगे। जब चाहो हमसे बात कर लेना।’’

आज भी उनकी चेतना पहले की भाँति सक्रिय है। अपने हीरे- मोतियों को ढूँढ़- ढूँढ़ कर इकट्ठा करती रहती है। आज भी परिजनों से मिलती है, कहीं स्वप्नं में, कहीं ध्यान में, कभी- कभी स्थूल में भी तो कभी विचार प्रवाह के रूप में। वह अपने बच्चों का मार्गदर्शन करती रहती है। और ये कारवाँ बढ़ता चला जा रहा है। यहाँ ऐसे ही कुछ प्रसंग हैं, जिनमें गुरुदेव ने स्वप्नों आदि के माध्यम से परिजनों का समाधान किया है।

  मत जाना बेटी

डॉ. मंजू जीजी अपनी अनुभव बताते हुए कहती हैं कि मैंने सन् 1972 में एम.बी.बी. एस. किया एवं सन् 1979 में एम.डी.

मुझे गुरुदेव ने ही ढूँढ कर स्वयं मिशन से जोड़ा है। उड़िया अनुवाद हेतु बिना चिट्ठी पत्री के ही मेरे पास उन्होंने स्वयं मैटर भिजवाया था। दूसरी घटना सन् 1990, श्रद्धांजलि समारोह की है। मैं इस कार्यक्रम में सम्मिलित होने आई थी। एक हफ्ते रही। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद का मेरा रिजर्वेशन था, अतः माताजी से मिलने गई। माताजी ने मुझे ऊपर गुरुजी के कमरे में प्रणाम करने भेजा। वहाँ गई, तो अचानक मुझे गुरुजी की स्पष्ट आवाज सुनाई दी- ‘मत जाना बेटी।’

   मैं आवाज सुनकर बड़े पशोपेश में पड़ गई। मेरी टिकट हो चुकी है। फिर सर्विस का क्या होगा? डॉ. साहब(पति) भी नाराज होंगे। क्या करूँ? सोचते हुए नीचे उतरी। माताजी से बताया। तब माताजी ने कहा- ‘‘तेरी इच्छा, देख ले बेटी।’’

अब निर्णय पूर्णतया मेरे ऊपर ही था। मन को कड़ा किया और जो होगा देखा जायगा, कह कर यहीं शान्तिकुञ्ज में रह गयी। उस समय मैं सात महीने रही। बाद में डॉ. साहब श्री प्रसन्न कुमार जी स्वयं आये व मुझे लेकर गये। उन्होंने कुछ नहीं कहा। इसे मैं पूज्य गुरुदेव की ही कृपा मानती हूँ।

तेरी माँ बुला रही है

   बहन, श्रीमती ऊषा श्रीवास्तव, आजमगढ़, गुरुटोला, उ०प्र० बताती हैं कि मेरे जीवन में कई परेशानियाँ आईं। बहुत बार ऐसा आभास हुआ कि गुरुदेव ने साक्षात रूप में स्वयं आकर सहायता की। 1992 में मेरी तीनों बच्चियों को एक साथ बड़े दाने वाली चेचक निकली। मेरी बड़ी बेटी कक्षा दस में पढ़ती थी। उसकी बोर्ड की परीक्षा थी। दो- तीन पेपर हो चुके थे। इसी बीच वंदनीया माताजी का समयदान हेतु पत्र आया। घर की परेशानी देख कर मेरे पति ने कहा कि मैं शान्तिकुञ्ज पत्र भेज देता हूँ कि घर में परेशानी है, बच्चे ठीक हो जाऐंगे तब मैं समयदान में आऊँगा। हम लोग बातचीत करके सोये ही थे कि पतिदेव ने देखा, ‘‘गुरुजी आये हैं और कह रहे हैं, तेरी माँ बुला रही है और तू जाने से इन्कार कर रहा है। तू जा समय दे। तेरे बच्चों को मैं देख लूँगा।’’

  मेरे पति समयदान के लिये चले गये। मैं अकेले ही बच्चों को, घर एवं बाहर के सब कामों को देखती। बड़ी बेटी की परीक्षा दिलवाने उसे कालेज भी ले जाती रही। गुरुजी की शक्ति का एहसास भी होता रहा और उनकी कृपा से मेरे बच्चे बहुत जल्दी ठीक हो गये। बड़ी बेटी का हाई स्कूल का रिजल्ट भी बहुत अच्छा रहा। ऐसे ही जीवन में अनेकों बार मुझे एहसास हुआ है कि गुरुजी ने अपने बच्चों से जो वादा किया है कि ‘बेटा तू मेरा काम कर, तेरा काम मैं करूँगा’ तो उसे वह समय आने पर निभाते भी हैं। बस! हमारे विश्वास और समर्पण में कहीं कमी नहीं रहनी चाहिये।

तू कहाँ रुक गया?

डॉ० शिवानंद साहू

   1970 में जब मैं मेडिकल का छात्र था, उन्हीं दिनों पूज्य गुरुदेव द्वारा बिलासपुर के एक कार्यक्रम में मैंने दीक्षा ली थी। डाक्टर बनने के बाद हर यज्ञ आयोजन के साथ निःशुल्क चिकित्सा व उत्तम स्वास्थ्य पर गोष्ठियाँ लेने लगा और ज्ञानरथ भी चलाता रहा। शान्तिकुञ्ज भी आता रहता था।

   1991 में सितम्बर माह में रात्रि लगभग 2.30 बजे निद्रा अवस्था में ही पूज्य गुरुदेव की आवाज अंतरात्मा में सुनाई पड़ी, लगा जैसे गुरुदेव बोल रहे हैं, ‘‘बेटा उठ! चल आ जा। कहाँ रुका हुआ है? तुझे तो किसी और काम के लिए भेजा गया है और तू कहाँ रुक गया? इस रूप में तो एक बार में एक की ही नाड़ी पकड़ पाता है। पर तू तो एक बार में एक साथ हजारों का इलाज कर सकता है’’। इस आवाज़ में मेरी नींद खुल गई। चारों ओर देखा, कहीं कुछ दिखाई नहीं पड़ा। फिर सोने का प्रयास किया पर नींद ही नहीं आई। यह क्रम लगातार 3 दिनों तक चला।

   मैंने माताजी को पत्र लिखा। जवाब आया, ‘‘बेटा! शान्तिकुञ्ज तो तेरा घोंसला है। अपने घोंसले में जल्दी आ जा।’’ तब मैं मध्य भारत पेपर मिल में मेडिकल एडवाइजर के रूप में कार्यरत था। एक माह के अन्दर ही वहाँ का हिसाब कर मैं, 3 नवम्बर 1991 को स्थायी रूप से शान्तिकुञ्ज आ गया।

जब मैं स्वप्न के ऋषि को ढूँढ़ती रही

   पटियाला की अनीता शर्मा बहिन ने बताया कि बात मई- जून 1990 की है। अचानक ही हमारे परिवार पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। मेरे पति का बिजनेस फेल हो गया। वे जिस भी काम में हाथ डालते उसी में घाटा हो जाता। घर में कलह क्लेश रहने लगा। मैं रोज ही किसी न किसी ज्योतिषी के चक्कर काटने लगी। मैं बहुत परेशान थी। एक रात को मैं रोते- रोते सो गई, तो सपने में क्या देखती हूँ कि एक ऋषि बहुत ही शांत मुद्रा में पहाड़ी पर बैठे हुए कुछ लिखते ही जा रहे हैं। मन हुआ कि उनसे पूछूँ कि हमसे क्या गलती हुई है? हमारे ऊपर, क्यों इतने कष्ट आ पड़े हैं? पर वह तो आँख ही नहीं उठाते, उनकी कलम ही नहीं रुक रही। काफी देर बाद जब उन्होंने लिखना छोड़ कर सिर उठाकर मेरी ओर देखा, तो मैंने उन्हें प्रणाम किया। वे बोले, ‘‘सब क्या कहते हैं, तेरे पति का काम बाँध दिया है।’’ मैंने ‘हाँ’ में सिर हिलाया।

फिर वे बोले, ‘‘तू कल मेरे पास आ जाना।’’ इससे पहले कि मैं उनसे पूछती कि क्या- क्या लेकर आऊँ? वे फिर लिखने लगे। सुबह जब आँख खुली तो उन ऋषि का आभा मंडित चेहरा मेरी आँखों के सामने घूमने लगा। मैंने दैनिक उपासना के क्रम में गीताजी की समाप्ति के बाद उसमें लिखा गायत्री मंत्र पढ़ा और उस दिन से मैं गायत्री मंत्र का पाठ करने लगी। फिर कहीं से गायत्री महाविज्ञान की किताब हाथ लगी तो उसमें से गायत्री चालीसा का पाठ रोज करने लगी। गायत्री माँ का पँचमुखी चित्र भी घर में स्थापित कर लिया। पर वह ऋषि मुझे कहीं नहीं मिले। मैं हर जगह, हर व्यक्ति में उस चेहरे को ढूँढती रहती। दिन, महीने और साल बीत गए। जिस दिन मेरे चालीसा पाठ की निश्चित संख्या पूर्ण हुई, मैं कुछ सामान खरीदने बाजार गई तो एक दुकान पर एक पर्चा लगा देखा। लिखा था, ‘गायत्री यज्ञ एवं दीपयज्ञ का कार्यक्रम पटियाला के नौहरियाँ मंदिर में, बसंत पंचमी 1994 को हो रहा है।’

   मैंने उस कार्यक्रम में भाग लिया। आखिर में श्री शुक्ला जी, जो मुख्य वक्ता थे, ने सभी से देवस्थापना का आग्रह किया। जब मैंने देवस्थापना चित्र लिया और उसमें गुरुदेव की फोटो देखी तो मैं हैरान रह गई। यह वही ऋषि थे जो चार साल पहले मुझे सपने में दिखाई दिये थे। मैं खुशी से नाच उठी। मैंने आयोजकों से गुरुदेव के विषय में पूछा तो पता चला कि उन्होंने तो 1990 में शरीर छोड़ दिया है। मुझे ऐसा लगा जैसे वर्षों के प्यासे को पानी तो मिला पर पीने से पहले ही छिन गया। मेरी आँखों से बरबस अश्रुधारा बहने लगी। जब हम शान्तिकुञ्ज आये तो पता चला कि एक महीने पहले ही माताजी गुरुसत्ता में विलीन हुई हैं। मेरी पीड़ा का कोई अंत नहीं था। मेरे आँसू थम नहीं रहे थे। मेरे पति नाराज भी हुए, ‘‘बस भी करो, कितना रोओगी?’’

  जब हम अखण्ड दीप दर्शन करने गए तो जीजी, डॉ. साहब वहीं पर बैठे थे। जीजी ने मुझसे पूछा, ‘‘मैं इतना क्यों रो रही हूँ?’’ मैं और भी फूट- फूट कर रोने लगी और बताया कि मैं कितनी अभागी हूँ, जो गुरुजी- माताजी से मिल नहीं पाई। तब जीजी ने कहा,‘‘वे तो अब भी तुम्हारे साथ हैं। उन्हें अपने से अलग मत समझो। शांत हो जाओ। वे ही तुम्हें यहाँ लेकर आये हैं। अब भोजन किये बिना मत जाना।’’ उस क्षण मुझे ऐसा लगा जैसे वास्तव में मुझे मेरे गुरुदेव मिल गए हैं। अब तो बस यही प्रर्थना है कि यह जीवन मन, वचन और कर्म से समर्पित ही रहे, तभी जीवन सार्थक है।

स्वप्न में आकर आश्वासन दिया

   बात तीन- चार वर्ष पूर्व की है। उस समय मैं ‘‘श्री कृष्णा आयुर्वेदिक कालेज, कुरुक्षेत्र’’ में अस्थाई रूप से लैक्चरर के पद पर कार्य कर रहा था। स्थाई पद हेतु इंटरव्यू होना था। बिना सिफारिश के, सफलता असम्भव थी। मैं मन ही मन गुरुदेव से सफलता की प्रार्थना करता रहा। उसी रात मुझे गुरुदेव स्वप्न में दिखाई दिए और कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारा चयन स्थायी पद हेतु अवश्य हो जाएगा, तुम निश्चिन्त होकर जाओ।’’ अगले दिन परिस्थितियों ने ऐसा मोड़ लिया कि मेरा चयन हो गया। कितना ध्यान रखते हैं गुरुदेव हमारा। उनके अनुदानों से हम कभी उऋण नहीं हो सकते।
- डॉ. रामकिशोर पारिक, कुरुक्षेत्र

1999 में फोटो खींचा

   बड़ौदा के श्री नारसिंह भाई परमार, बताते हैं कि वे वसंत पंचमी 1999 में अपनी बेटी के साथ शान्तिकुञ्ज आये थे। उनकी बेटी के मन में आया कि क्या अब गुरुजी यहाँ नहीं हैं? अब हम उन्हें कैसे मिल सकेंगे? और इस भाव को लेकर वह बहुत अधिक व्याकुल हो रही थी। उसे गुरुदेव के दर्शनों की प्रबल इच्छा थी। वे प्रवचन के बाद अखण्ड दीप दर्शन हेतु लाईन में लगे थे। जब तक उनका नम्बर आया, तब तक दोपहर की साधना का समय हो चुका था। 15 मिनट के लिए अखण्ड ज्योति के दर्शन के कपाट बन्द हो गये। 15 मिनट बाद जब कपाट खुले, और वे सीढ़ियों पर चढ़े, तो जहाँ गुरुजी- माताजी के चरणों का चित्र लगा है, वहाँ उन्हें पूज्य गुरुदेव उतरते हुए दिखाई दिये। वे ऊनी टोपी सिर पर लगाये हुए थे। हम उन्हें देख कर हतप्रभ रह गये। एक क्षण को लगा, क्या हम सत्य देख रहे हैं? इतने में पूज्यवर ने मेरी बेटी से कहा, ‘‘बेटी! मैं यहीं रहता हूँ। केवल दुनिया वालों को दिखाई नहीं देता, तू चाहे तो मुझे अपने कैमरे में कैद कर डाल।’’ उनके ऐसा कहने पर मैंने भी उसे कहा, ‘‘बेटा, फोटो खींच लो।’’ उसने फोटो खींच लिया।

   वे फोटो दिखाते भी हैं। उस फोटो में लोगों की लाइन ऊपर प्रणाम हेतु जा रही है, और गुरुजी आशीर्वाद की मुद्रा में नीचे उतरते हुए नजर आ रहे हैं। नारसिंह भाई का कहना है कि मुझे गुरुजी के साथ सातों ऋषि भी दिखाई दिये, पर वे फोटो में नहीं आये।

बड़ी एकादशी को दरवाजा खोलेंगे

श्रीमती मणी दाश

   सुल्तानपुर उ० प्र० के श्री श्याम सुन्दर सिंघल जी शान्तिकुंज में कई वर्षों तक रहे। सन् 2003 में उनकी पत्नी 40 प्रतिशत जल गई थीं। जलने की असह्य पीड़ा होती है। फिर भी वे शान्तिकुंज चिकित्सालय में धैर्य पूर्वर्क सब सहती रहीं। इतने कष्ट में भी वह प्रतिक्षण गायत्री मंत्र जपती रहतीं। बीच- बीच में कराहती भी थीं, पर सहनशीलता की प्रतिमूॢत बनी रहीं। कभी- कभी वे बेहोश भी रहतीं।

   एक दिन जब हम लोग उनके पास बैठे थे तो वे बोलीं ‘‘गुरुजी- माताजी आये थे।’’ उन्होंने कहा है, ‘‘बेटी! अभी तुम्हारा समय पूरा नहीं हुआ है। 3- 4 दिन बाद बड़ी एकादशी को हम तुझे लेने आयेंगे। अभी 3- 4 दरवाजे खोले हैं। शेष दरवाजे उसी दिन खोलेंगें।’’ और सचमुच ही अपने कथनानुसार बड़ी एकादशी को उन्होंने शरीर त्याग दिया।

उस पल हमें वे क्षण याद आ गये जब गुरुदेव व्यक्तिगत चर्चा में व प्रवचनों में कार्यकर्ताओं से कहा करते थे- ‘‘बेटा! तेरे अन्तिम क्षण में हम तेरे साथ रहेंगे व तुझे भौतिक कष्टों से मुक्ति दिलायेंगे।’’ और वास्तव में समय आने पर अनेकों परिजनों को अनेकों प्रकार से वे इसका आभास कराते रहते हैं।

मुझे उसे बचाना है।

   राजनांदगाँव के श्री जुगल किशोर लढ्ढा जी बताते हैं कि 2003 में उनके शहर में नव चेतना शिखर यज्ञ था। हम लोग उसकी तैयारी में लगे थे। हमारा संकल्प था कि सुबह पहले दो घंटा गुरुदेव का काम करेंगे तब अपनी दुकान आदि खोलेंगे। इस समय में हम लोग प्रचार करने व चंदा आदि लेने का काम करते थे।

   एक दिन सुबह मेरे मन में आया कि आज सुबह न जाकर शाम को चलेंगे। मैं दुकान खोलने ही जा रहा था कि श्री यशवंत भाई ठक्कर जी का फोन आ गया। मैंने कहा, ‘‘शाम को चलेंगे।’’ इस पर वे बोले कि हमारा संकल्प तो सुबह का है। कम से कम दो घर में तो जाना ही है। मैंने कहा, ‘‘ठीक है। मैं आता हूँ,’’ और दुकान का शटर जो आधा खोला था, बंद करके मैंने अपनी मोटरसाइकिल उठायी और उनके घर की ओर चल दिया।

रास्ते में शमशानघाट पड़ता था। उस तरफ ज्यादा भीड़ नहीं रहती इसलिये मैंने मोटरसाइकिल की रफ्तार थोड़ी तेज कर दी। जैसे ही मैं शमशान घाट के सामने से निकल रहा था कि एक साइकिल सवार ने सड़क क्रास किया। सामने से एक व्यक्ति हीरो पुक पर तेज स्पीड से आ रहा था। साइकिल सवार के चक्कर में हम दोनों ही एक दूसरे को देख नहीं पाए और आपस में टकरा गए। मैं इतना ही देख पाया था कि सामने वाले व्यक्ति को काफी चोट आई है। इतने में मुझे ख्याल आया कि मैं तो गुरुजी का काम करने जा रहा हूँ। मुझे चोट आई होगी तो मेरे काम का क्या होगा? मैंने गुरुजी का ध्यान किया और गायत्री मंत्र जपने लगा। मैं भी गिर पड़ा था मोटर साइकिल मेरे ऊपर थी। मुझे चक्कर भी आ रहा था। इतने में हमारे आस- पास कुछ लोग इकट्ठे हो गये। उन्होंने हीरोपुक सवार को रिक्शा पर बिठाया और अस्पताल भेज दिया। उसे काफी चोट लगी थी। मुझे भी उठा कर पानी पिलाया। मेरे कपड़े आदि व्यवस्थित किये। मोटरसाइकिल को खड़ा किया। जब मुझे थोड़ा होश आया तो मैंने देखा मेरे कपड़े फट गये हैं पर मुझे खास चोट नहीं आई है। मैंने खुद को व्यवस्थित किया और फिर यशवंत भाई के घर चला गया। उन्होंने मेरी हालत देखी और सारा वृतांत सुना तो कॉफी पिलाने के बाद बोले, ‘‘आज रहने देते हैं, कल चलेंगे’’ तो मैंने कहा कि अब मैं ठीक हूँ। आ ही गया हूँ तो काम करके ही लौटूँगा। हम दोनों ने उस दिन 4- 5 घरों में से चंदा लिया। जब मैं घर लौटा तो मेरे कपड़ों की हालत देखकर सबने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। मैंने सब हाल बताया।

   मेरे छोटे भाई को जब पता चला तो वो बड़ी हैरानी से बोला, ‘‘अरे! भइया का ऐक्सीडेन्ट हो भी गया।’’ उसकी बात सुनकर सबको बड़ी हैरानी हुई। वह दौड़ा- दौड़ा मेरे पास आया। हैरानी से मुझे ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला, ‘‘आपका ऐक्सीडेन्ट हो भी गया! सुबह पाँच बजे ही तो गुरुजी मेरे सपने में आये थे और मुझे बोले कि आज जुगल का ऐक्सीडेन्ट होने वाला है। मुझे उसे बचाने जाना है। क्योंकि वह मेरा काम करता रहता है।’’
‘‘मैं आपको बताने ही वाला था। पर मुझे क्या पता था कि इतनी जल्दी आपका ऐक्सीडेन्ट हो जाएगा।’’

   श्री जुगल किशोर लढ्ढा जी कहते हैं कि उनके पास गुरुजी के इतने संस्मरण हैं कि उनकी एक डायरी भरी हुई है।

जब हमारी गाड़ी 40 फुट गहरे गड्ढे में थी

श्री ओंकार पाटीदार

   श्रद्धेय डॉ० प्रणव पण्ड्या जी के साथ कनाडा में 23.6.2000 को कार्यक्रम समाप्त कर रात्रि लगभग 12.00 बजे ओटावा से मान्ट्रियल लौट रहे थे गाड़ी में मैं, जमुना साहू, राजकुमार वैष्णव एवं श्रद्धेय डॉक्टर साहब थे। गाड़ी को छगन भाई पटेल चला रहे थे। दो बहिनें भी गाड़ी में थीं। गाड़ी बिल्कुल नई थी। 100 कि.मी. की गति से घनघोर घने जंगल में दौड़ती हुई गाड़ी ने आधा रास्ता तय कर लिया था। आचानक छगन भाई पटेल को झपकी आई और देखते ही देखते गाड़ी एकाएक सड़क से नीचे उतर गई। घरघराहट की ज़ोर से आवाज़ आने लगी। गाड़ी उछलते- उछलते गेंद की तरह नीचे जा रही थी
घनघोर जंगल में बड़ी- बड़ी घास के बीचों- बीच गाड़ी खड़ी हो गई। इंजन के बोनट से धुँआ आने लगा। दूसरी गाड़ी के परिजन आवाज देकर हमें गाड़ी से बाहर आने को कह रहे थे। हमारी गाड़ी 40 फुट गड्ढे में थी और आटोमैटिक दरवाजे खुल नहीं रहे थे। श्रद्धेय डॉ० साहब हम सबको हिम्मत बँधा रहे थे। धीरे- धीरे उन्होंने ही दरवाज़े खोले। बाहर आकर देखा कि गाड़ी के पास ही गहरा नाला बह रहा है और सामने पत्थर है। कनाडा जैसे देश में इतनी गति से दुर्घटना सुनिश्चित थी। श्रद्धेय डॉ० साहब ने बताया उन्हें अनुभूति हुई कि दो विशालकाय हाथ सहारा देकर गाड़ी को रोक रहे हैं। गाड़ी बिना पलटे, टकराये, बगैर नुकसान के स्वयं रुक गई और उस महाकाल की सत्ता ने सभी को नया जीवन प्रदान किया।

गोली पीछे चली जायेगी

श्रीमती उर्मिला श्याग (सुनीता) किक्करवाली, फाजिलका, पंजाब

   उर्मिला बहन जी ने बताया कि श्री मनमोहन जी श्याग की वह दूसरी पत्नी हैं। पहली पत्नी से उन्हें तीन संतानें हैं। एक बेटी, दो बेटे। बेटी की वे शादी कर चुके थे। मेरे पति की तीन सौ कीले जमीन है। दामाद के मन में उनकी जायदाद को लेकर लालच आ गया था। एक दिन उसने मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि इनके दोनों बेटों की शादी तो मैं होने ही नहीं दूँगा। यदि तुम मेरे साथ मिल जाओ तो मनमोहन जी को मैं देख लूँगा। सब पैसा हम दोनों लोग आपस में बाँट लेंगे। मैंने उसको डाँट लगाई और भगा दिया। पति के आने पर उसकी सारी योजना उन्हें बता दी। उन्हें जब यह बात पता चली तो उन्हें बहुत कष्ट हुआ और ससुर- दामाद की आपस में थोड़ी कहासुनी भी हो गई। विक्रम इस बात से मुझसे बहुत नाराज था, पर हमने उससे यह आशा नहीं की थी कि वह इस हद तक गिर जायेगा।

   यह घटना 4 जून 2007 की है। विक्रम शाम को चार बजे शराब पीकर, मेरे घर आया। उसके दोनों हाथों में दो पिस्टल थी। मैं हॉल में बैठी थी। उसने दरवाजे से ही तीन गोलियाँ मेरे ऊपर चलाईं। एक गोली मेरे पेट के आर- पार हो गई। एक पेट के अन्दर, नाभी के नीचे धँस गई और एक गोली दिल के वॉल्व के पास लगी। सामने दीवार पर गुरुदेव का चित्र लगा था। जैसे ही उसने मुझपर हमला किया, मेरी निगाहें उस चित्र से टकरायीं और मैंने कहा हे गुरुदेव! मुझे बचाओ। यह कहते ही मेरी आँखें बंद हो गईं। मुझे गुरुदेव के स्पष्ट दर्शन हुये और गुरुदेव आशीर्वाद मुद्रा में दिखाई दिये। बोले, ‘‘बेटा तुझे कुछ नहीं होगा, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।’’

   मुझे तुरंत लुधियाना के डी.एम.सी. अस्पताल ले जाया गया। लुधियाना पहुँचने में हमें चार घण्टे लगे। इस बीच मुझे पूरा होश था, मैं सबसे बात कर रही थी और सबको धीरज बँधा रही थी कि मुझे कुछ नहीं होगा। मेरे अन्दर पता नहीं कहाँ से ताकत आ गई थी। मुझे बिल्कुल डर नहीं लग रहा था।

   हॉस्पिटल में पहुँचने पर डॉक्टरों ने तुरंत पेट का ऑपरेशन करके गोली निकाल दी। लेकिन हार्ट के ऑपरेशन के लिए साफ मना कर दिया। कहा कि गोली वॉल्व के बिल्कुल पास है, ऑपरेशन करने से खतरा है, इसे हम नहीं कर सकते। मैं चार दिन बेहोश रही। डॉक्टर हर तीसरे घण्टे में मेरे हार्ट का एक्सरे लेते थे, कि क्या स्थिति है। पाँचवे दिन मुझे होश आया। जब मुझे पता चला कि दिल के पास लगी गोली तो वहीं पर है, अभी संकट टला नहीं है। यह जानकर कि मेरे बचने की कोई उम्मीद नहीं है, मुझे बहुत निराशा हुई। मैं रातभर रोती रही और गुरुजी से प्रार्थना करने लगी कि इससे तो अच्छा था मैं उसी समय मर गई होती। मेरी छोटी सी बेटी है, उसका क्या होगा? रोते- रोते पूरी रात बीत गई, मेरे आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे।

   सुबह चार बजे मुझे गुरुजी के दर्शन हुये। वे मेरे सामने खड़े थे। उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, कुछ नहीं होगा। गोली पीछे चली जायेगी। चिंता मत करो तुम्हें कुछ नहीं होगा।’’ सुबह जब डॉ. चैक करने आये तो डॉ. ने पीठ में देखा कुछ सूजन है। एक जगह थोड़ी फूल गई है। डॉ. ने छू कर देखा। गोली अपनी जगह से खिसक कर पीठ में चमड़ी की ऊपरी परत में आ गई थी। डॉ. ने तुरंत नर्स को बुलाया और वहीं बिस्तर पर ही एक हल्का सा चीरा लगाकर गोली को निकाल दिया।

   डॉ. हैरान थे, ऐसा कैसे हो गया? थोड़ी देर बाद डॉक्टरों की पूरी टीम ने मुझे घेर लिया। दुबारा एक्स- रे लिया गया। पहले के सब एक्स- रे को वे बार- बार देख रहे थे। रात्रि 3:00 बजे भी जो एक्स- रे लिया गया था, उसमें भी गोली अपनी जगह पर ही थी। सब हैरान थे कि अचानक सुबह तक गोली इतनी पीछे कैसे पहुँच गई? डी.एम.सी. हॉस्पिटल की पूरी टीम बैठी। फिर से उन्होंने कई ऐंगल से एक्स- रे करके देखा, पर कुछ रहस्य समझ नहीं आया।
   फिर मुझसे बोले, ‘‘आश्चर्य है! हमारी समझ से बाहर है कि ऐसा कैसे हो गया? आप बहुत भाग्यशाली हैं।’’ तब मैंने उन्हें गुरुदेव के दर्शनों के बारे में बताया। मेरे सिरहाने गायत्री महाविज्ञान रखा था। अस्पताल का हैड डॉ., ‘‘क्या मैं इसे देख सकता हूँ?’’ कहकर उसे मुझसे माँग कर ले गया। अगले दिन वह वह पुनः आया और मुझे उसका पैसा यह कहकर दे गया कि इसे तो मैं अपने पास रखूँगा।

   वे भावुक होकर कहने लगीं, ‘‘मैं तो मर गई थी। मेरा यह जीवन गुरुजी का दिया हुआ जीवन है।’’ कौन कह सकता है गुरुदेव नहीं हैं? वे आज भी हैं, मैं इसका प्रमाण हूँ। उर्मिला बहनजी ने गोली के निशान भी दिखाये।

जीवन सार्थक जीना चाहिये

   श्री रमेसर कुमार निर्मलकर रैता, रायपुर के नये जुड़े परिजन हैं। वे सन् 1991 से ड्राईविंग का काम करते रहे हैं। वे कहते हैं कि मेरा जीवन बहुत घटिया हो गया था। जीवन में शराब, माँस आदि अनेक विकार जुड़ गये थे। मैं अधिकाँश घर से बाहर ही रहा, देश भर में भटकते हुए ही जीवन कटा। घर पर तो मैं बस, पत्नी- बच्चों के लिए पैसा भेजता रहता था।

   घर जाता तो पत्नी आवेशित होती, झगड़ा करती, ढेरों उलाहने देती। मेरे जीवन में शांति नहीं थी। पत्नी केझगड़े व तानों से तंग आकर मैं आत्महत्या करने का विचार करने लगा। मुझे अपने जीवन से घृणा होने लगी थी। फाँसी लगाकर या विष खाकर आत्महत्या करने का विचार, बार- बार मन में आता। एक दिन पत्नी ने भोजन तो परोसा, पर खूब खरी- खोटी भी सुनायी। मन में आया, अब तो बिल्कुल जीना ही नहीं है। भोजन सम्मुख रखा था, पर खाने का मन नहीं हो रहा था। आत्महत्या का विचार प्रबल होता जा रहा था।

यह घटना दिसम्बर माह, 2010 की है। थाली मेरे सामने परोसी रखी थी और मैं आत्महत्या के विचारों में खोया हुआ था। तभी मैंने देखा, पूज्य गुरुदेव- वन्दनीया माताजी सम्मुख आकर बैठ गये हैं। मैं हैरान रह गया। वे मुस्कुराते हुए कहने लगे, ‘‘बेटा! भोजन क्यों नहीं करता, चल भोजन कर।’’ फिर प्रेरणा देते हैं कि ‘‘बेटे, यह जीवन गँवा देने के लिए नहीं है, जीवन सार्थक जीना चाहिए।’’ मैं जब तक भोजन करता रहा मुझे बराबर उनकी उपस्थिति का अहसास होता रहा। आत्महत्या का विचार मन से तिरोहित हो गया और उसी क्षण से मेरा जीवन बदल गया। जीने की उमंग पैदा हो गई और उसके बाद मैंने सब दुर्व्यसन छोड़ दिये।
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