ऋषि युग्म की झलक-झाँकी-1

गुरुसत्ता के साथ मनोविनोद के क्षण

<<   |   <   | |   >   |   >>
श्री दिलीप कुमार दत्ता

    श्री दिलीप कुमार दत्ता, डॉ. दत्ता के भाई हैं, उनके पास भी गुरुजी- माताजी के ढेरों संस्मरण हैं। वे बताते हैं, ‘‘सन् 1967 में, मैं व मेरे भाई डॉ. ए. के. दत्ता का परिवार दोनों एक साथ देवास में रहते थे। वहीं दोनों की सर्विस थी। गायत्री यज्ञों की शृंखला में गुरुदेव देवास आए और हमारे यहाँ ही ठहरे। कार्यक्रम की समाप्ति पर जाते समय गुरुजी ने कहा, ‘‘दिलीप तुझे मालूम है? मैं तुझे क्या देकर जा रहा हूँ?’’ मैं हैरानी से उन्हें देखता रहा। मुझे कुछ समझ नहीं आया। उन्होंने पुनः कहा, ‘‘तेरे दो बच्चों में से एक का जीवन आज ही समाप्त था। मैं उसे जीवन देकर जा रहा हूँ।’’

    मैं अवाक् रह गया। जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। गुरुवर ने उसे देख लिया और विधान बदलकर मुझे कृत- कृत्य कर दिया। ऐसी अनेक घटनाएँ मेरे जीवन में बीती हैं जब पूज्यवर ने संरक्षण प्रदान किया है। आज मेरा वह बच्चा अमेरिका में इंजीनियर है।’’

ऐसे ही एक बार मैंने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुदेव मेरी इज्जत का सवाल है। मेरे दो भाई डॉक्टर हो गये हैं।’’ गुरुजी ने पूछा, ‘‘तूने क्या पढ़ाई की है?’’ मैंने कहा, ‘‘एम.काम. किया है।’’ जवाब मिला, ‘‘तब तू डॉक्टर कैसे बनेगा?’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, डॉ. नहीं बन सकता इसलिये तो आपके पास आया हूँ।’’

गुरुजी बोले, ‘‘अच्छा! तुझे डॉक्टर के समकक्ष बना दिया जाय तो चलेगा?’’ मैं खुश होकर हामी भरकर घर चला गया। तथा डॉक्टर के समकक्ष ‘फेमिली प्लानिंग’ ऑफिसर के पद के लिये अप्लाई किया। कुछ दिनों बाद मुझे पत्र मिला, लिखा था रिग्रेट यानि नॉट सिलेक्टेड। मैं फिर गुरुजी के पास गया। कहा, ‘‘गुरुजी, मुझे तो रिजेक्ट कर दिया गया।’’ गुरुजी ने वह पत्र हाथ में लिया और बोले, ‘‘अरे तेरा हो जायेगा सब कुछ।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी आपको अंग्रेजी नहीं आती है। इसमें लिखा है रिग्रेट’’ गुरुजी ने पुनः कहा, ‘‘चिंता मत कर। सब हो जायेगा तेरा।’’ 15 दिन बाद दूसरा पत्र आया। लिखा था यू आर सिलेक्टेड एण्ड पोस्टेड एट रायगढ़। मैं ट्रेन से कहीं जा रहा था। स्टेशन पर पर्चा पढ़ा, रूपराम नगर कॉलोनी में गुरुजी का कार्यक्रम है। मैं तुरंत उतर कर गुरुजी से मिलने चल दिया। गुरुजी के पास पहुँचा व बताया गुरुजी, ‘‘मेरा सलेक्शन हो गया।’’ उन्होंने झट से कहा, ‘‘क्यों रे, तूने तो कहा था कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती। जा, ट्रेन खड़ी मिलेगी।’’ मैं तुरंत वापिस लौट गया और आश्चर्य! सचमुच ट्रेन खड़ी ही मिली। मै बैठा और ट्रेन चल दी, जैसे वह मेरा ही इंतजार कर रही थी। ऐसे कृपालु थे पूज्यवर।

    यह उन दिनों की बात है जब शान्तिकुञ्ज में लगातार वानप्रस्थ शिविरों का आयोजन चल रहा था। मैं अपने दोस्त के साथ शान्तिकुञ्ज आया। प्रवचन के बाद हम दोनों हरकी पैड़ी घूमने चले गये। लौटकर जब वंदनीया माताजी के पास गये, तब तक गुरुदेव वानप्रस्थ संस्कार सम्पन्न करा कर ब्रह्मदण्ड वितरित करके ऊपर अपने कमरे में जा चुके थे।

माताजी ने हम दोनों को ऊपर, गुरुजी से मिलने भेज दिया। गुरुजी ने दो ब्रह्मदण्ड मँगाए व एक मुझे दे दिया। फिर मेरे दोस्त को देखकर बोले, ‘‘तुझे ब्रह्मदण्ड दूँ कि नहीं। तू जब घर से आया तो तूने अपनी पत्नी को थाली फेंक कर मारी, जिससे उसकी नाक पर चोट लग गई। अब तू ब्रह्मदण्ड से मारेगा। चाय में शक्कर कम थी न। ब्रह्मदण्ड से मारेगा तो मुझे भी पाप लगेगा।’’

      घटना बिलकुल सत्य थी। मेरा दोस्त सुनकर हैरान रह गया कि गुरुजी को कैसे मालूम हुआ? गुरुजी के चरणों में श्रद्धावनत होकर उसने माफी माँगी और आगे से ऐसा न करने की कसम खाई। तब गुरुदेव ने उसे भी ब्रह्मदण्ड प्रदान किया।

      एक और संस्मरण है। मुझे हरिद्वार आना था और उस दिन मुझे तेज बुखार था। मेरा रिजर्वेशन भी नहीं था। फिर भी गुरुजी से मिलने की उत्कंठा इतनी अधिक थी कि मैं घर न जाकर ट्रेन में ही बैठा रहा। रिजर्वेशन कराने जाने की भी मुझमें हिम्मत नहीं थी। अचानक, एक कुली आया और बोला, ‘‘आपको रिजर्वेशन चाहिए?’’ मैंने कहा, ‘‘हाँ’’ और बिना कुछ पूछे उसे टिकट और पच्चास रुपये दिये। वह टिकट और पैसा लेकर चला गया। उसके जाने के बाद मन में विचार आया, यदि वह न लौटा तो क्या होगा? जो टिकट था वह भी गया।

फिर सोचा, अब जो होगा देखा जायेगा। थोड़ी ही देर में वह कुली आ गया और जिस सीट पर मैं बैठा था, वह उसी सीट का रिजर्वेशन करा कर लाया था। मैंने भगवान को धन्यवाद दिया और चैन से सो गया।

      हरिद्वार पहुंचा। माताजी से मिला तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, गुरुजी के दो फोन आ गये। तुझे ऊपर बुलाया है।’’ मैं कुछ समझा नहीं। मन में सोचा, मैं तो अभी आ रहा हूँ। दो फोन पहले से कैसे आ गए?

      ऊपर पहुँचा। देखते ही गुरुजी ने कहा, ‘‘रिजर्वेशन मिल गया? और बुखार भी उतर गया न?’’ मैंने गुरुजी से पूछा, ‘‘गुरुजी आप कहाँ पर थे?’’ पर फिर तुरंत ही मन में सोचा, मैं क्या पूछ रहा हूँ? वे तो सर्वज्ञ हैं, हो न हो, उस सहृदय व्यक्ति के रूप में गुरुदेव ही तो पहुँचे थे और तुरंत श्रद्धावनत हो उनके चरण पकड़ लिये। बहुत से संस्मरण हैं, पूरा जीवन क्या अनेकों जन्म उनका ऋण चुकाने में लगा दें तो भी संभव नहीं है, बस इतना ही कहूँगा कि न जाने किन जन्मों के पुण्य होंगे जो गुरुदेव हम लोगों का इतना ध्यान रखते हैं।

3. गुरुसत्ता के साथ मनोविनोद के क्षण

    गुरुजी काम करने के साथ- साथ मनोरंजन भी करते रहते थे। कितना भी काम का दबाव हो वे वातावरण को कभी बोझिल नहीं होने देते थे। सबके साथ हँसते- हँसाते रहते थे। उनके हास्य में भी कोई न कोई रहस्य या शिक्षण अवश्य छिपा रहता था। ऐसा लगता था जैसे उनकी कोई भी बात व्यर्थ नहीं है। हँसते- हँसाते भी वे कुछ न कुछ सिखा देते थे। पढ़ें उनकी विनोद प्रियता से संबंधित कुछ प्रसंग --

मूछों वाला मुन्ना

श्री वीरेश्वर भाई साहब-

   श्री गिरजा सहाय व्यास चार आत्मदानियों में से एक हैं। उनके छोटे पुत्र मथुरा आये, तब बहुत छोटे थे। सभी उसे ‘‘मुन्ना’’ कहते थे। उस बालक को गुरुवर की गोद में खेलने का बहुत सौभाग्य मिला था। समय के साथ वे बिलासपुर चले गये। बड़े होकर इंजीनियर बन गये।

एक बार वे शान्तिकुञ्ज आये। पूज्यवर से मिलने के क्रम में उन्होंने बताया कि मैं गिरजा सहाय व्यास का लड़का हूँ। गुरुजी उस समय लेखन कर रहे थे। जब उन्होंने सुना कि गिरजा सहाय का पुत्र है तो कलम रोक कर ऊपर से नीचे तक देखा। फिर पूछा- ‘‘तुम्हारा क्या नाम है?’’ उसने कहा- ‘‘मुन्ना।’’
गुरुजी को झट से चुहल सूझी और जोर से बोले- ‘‘वीरेश्वर! इधर आना।’’ और वे पैर के ऊपर पैर रख बच्चों से मनोरंजन के मूड में आ गये व कहा- ‘‘जल्दी आ, देख तुझे मूछों वाला मुन्ना दिखाता हूँ।’’ पहली आवाज में ही मैं, लेखन छोड़कर गुरुवर के सामने तक पहुँच चुका था। उसी वाक्य को दुहराते हुए उन्होंने फिर कहा, ‘‘देख! तुझे मूछों वाला मुन्ना दिखाता हूँ। देख! यह वही है न, जो हमारे साथ इतना सा (दोनों हाथ से छोटेपन का इशारा करते हुए) खेला करता था।’’

माजरा समझकर, मैं भी हँसने लगा। गुरुजी ने बालक से हाल- चाल पूछा। बहुत स्नेह दुलार दिया एवं विदा किया।

विश्वामित्र- 2 में चले जाओ

श्री वीरेश्वर भाई साहब-

एक दिन गुरुजी के पास एक सज्जन आये और बोले, ‘‘गुरुजी, मुझे मुक्ति चाहिये।’’ गुरुजी उससे दो बार बोले, ‘‘मुक्ति चाहिये, तुझे मुक्ति चाहिये। अच्छा! ठीक है बेटा। जा, विश्वामित्र- 2 में चला जा। तुझे मुक्ति मिल जायेगी।’’ हम लोगों को सुनकर हँसी आ गई। क्योंकि मुक्ति जीजी उन दिनों विश्वामित्र -2 में ही रहती थीं।

वह सज्जन नीचे उतरे और विश्वामित्र- 2 में पहुँचे। मुक्ति जीजी सामने ही बैठी थीं। उन्होंने पूछा, बताइये भाई साहब, किससे मिलना है। वे सज्जन बोले, ‘‘गुरुजी ने मुझे यहाँ भेजा है।’’ मुक्ति जीजी ने पूछा क्या काम है? वे बोले, ‘‘मुझे मुक्ति चाहिये।’’ मुक्ति जीजी बोलीं, ‘‘मेरा ही नाम मुक्ति है। कहिये।’’ सुनकर वे झेंप गये और बोले, ‘‘मेरा मतलब... मेरा मतलब...उस मुक्ति से था।’’ सुनकर मुक्ति जीजी को भी हँसी आ गई और गुरुजी ने आपसे मजाक किया है, कहकर उन्होंने उन्हें विदा किया।

जब मुक्ति जीजी, गुरुजी के पास गईं तो गुरुजी उनसे बोले, ‘‘आज एक व्यक्ति मुझसे मुक्ति माँगने आया था। मैंने उसे तेरे पास भेज दिया। उसे मुक्ति मिली कि नहीं।’’ फिर तो हम सब खूब हँसे।

अच्छा तो हम मूँछ मुँड़ा लेते हैं

डॉ. मंजू चोपदार

अपने बुजुर्गों के मुँह से मैंने सुन रखा था कि व्यक्ति जिस किसी भी प्रतिभा का धनी हो, उसे उसकी आवश्यक सामग्री सदैव अपने साथ रखनी चाहिए। यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी थी। चूँकि मैं स्त्रीरोग विशेषज्ञा थी, अतः प्रसूति के समय हेतु आवश्यक औजार अपने साथ बैग में ही रखने लगी।
इसी बीच मैं हरिद्वार आई। बैग हमेशा मेरे साथ ही रहता था। मैं ऊपर खाना खा रही थी, तभी माताजी- गुरुजी के पास खबर पहुँची कि ब्रह्मवर्चस के श्री भास्कर तिवारी जी की पत्नी को प्रसव का दर्द उठा है। अतः शीघ्र अस्पताल जाने की व्यवस्था करनी है।

मैं डाक्टर हूँ। यह बहुत लोगों को मालूम था। किसी ने मुझे बुलाया और माताजी के पास भेजा। उन्होंने पूछा, मैंने कहा- ‘‘माताजी मेरे पास सब सामान है, कुछ आवश्यकता नहीं पड़ेगी।’’

  अब तो माताजी बहुत खुश हुईं व बहुत आशीर्वाद देकर ब्रह्मवर्चस भेजा। शीघ्रता के कारण मेरे लिये कार निकलवाई गई, जिसे आदरणीय डॉ. प्रणव भाई साहब ने स्वयं चलाया। हम ब्रह्मवर्चस पहुँचे। सुखपूर्वक प्रसव करवाया। लड़का हुआ, जिसका नाम बाद में ‘‘शरद’’ रखा गया। शान्तिकुञ्ज वापस लौटकर वन्दनीया माताजी को रिपोर्ट दी। माताजी ने खूब पीठ थपथपाई। उस समय गुरुजी व माताजी दोनों धूप में, छत पर बैठे थे। माताजी ने जैसे ही सुना ‘‘लड़का हुआ है।’’ खुशी से बोल पड़ीं ‘‘मैं जीत गई’’

पता नहीं, गुरुजी एवं माताजी की परस्पर क्या चर्चा हुई थी? पर उसमें माताजी का कथन सत्य हुआ था। अतः गुरुजी ने कहा, ‘‘अच्छा! हम हार गये? तो चलो, मूँछ मुँड़ा लेते हैं।’’ उल्लेखनीय है कि गुरुदेव क्लीन शेव रहा करते थे। अतः वातावरण ठहाकों से गूँज उठा। पुत्र जन्म की खुशी अनन्त गुनी हो गई।

उसके मुँह से धुँआ निकले

श्रीमती श्रीपर्णा दत्ता

    एक बार मैंने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुजी जो झूठ बोलते हैं, बेईमानी, चोरी करते हैं। यदि ऐसी कोई व्यवस्था होती कि पाप करते ही उसका पता लग जाता, तो सारे पाप नष्ट हो जाते।’’ गुरुजी बोले, ‘‘तू बड़ी होशियार है। अब जब मैं भगवान के पास जाऊँगा, तो तेरी बात कहूँगा कि जब कोई झूठ बोले तो उसके मुँह से धुँआ निकले, और चोरी करे तो उसके हाथ कट जायें।’’ और जोर से हँस दिये। वहाँ उपस्थित अन्य लोग भी हँसने लगे।

आज उसे डाक खाने दो

श्री राम खिलावन अग्रवाल

    सन् 1977, दिसम्बर की बात है। गुरुजी डाक स्वयं ही देखते थे। उन दिनों पोस्टमास्टर का काम श्री अभिनेष जी देखते थे। गुरुजी को डाक के विषय में कुछ जानकारी चाहिये थी। उन्होंने पास बैठे कार्यकर्त्ता से कहा, ‘‘जा, अभिनेष को बुला ला।’’

कार्यकर्त्ता पोस्ट ऑफिस में गया तो पता चला कि वह हरिद्वार के पोस्ट ऑफिस में गया है। उसने गुरुजी के पास आकर कहा, ‘‘गुरुजी, अभिनेष तो डाक खाने गया है।’’

गुरुजी अपने काम में तल्लीन थे सो पूरे शब्द ठीक से नहीं सुने और पूछा, ‘‘क्या कहा?’’ कार्यकर्त्ता ने पुनः अपनी बात दुहराई, ‘‘गुरुजी, अभिनेष तो डाक खाने गया है।’’ उसका बोलने का ढंग कुछ अलग सा था। सो गुरुजी को मजाक सूझी। बोले, ‘‘अच्छा, डाक खाने गया है।’’ फिर कुछ देर बाद पुनः बोले, ‘‘अच्छा, अच्छा! डाक खाने गया है, तो अच्छा है, आज उसे डाक खाने दो, हमारा खाना बचेगा।’’ और पूरा वातावरण ठहाकों से गूंज पड़ा। ऐसे विनोदी थे पूज्यवर।

इतने बड़े गुरुजी यज्ञ करा रहे हैं!

श्री शिवप्रसाद मिश्रा जी,

    यह गायत्री तपोभूमी मथुरा का प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव के पास मिलने वालों का ताँता लगा ही रहता था। उस समय 24 कुण्डीय यज्ञ चल रहा था। श्री रमेश चन्द्र शुक्ला जी यज्ञ सम्पन्न करा रहे थे। पूज्यवर उठने ही वाले थे कि एक आगन्तुक आया व गुरुजी से ही पूछने लगा ‘‘पं. श्रीराम शर्मा कहाँ हैं? मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।’’

गुरुदेव को मजाक सूझा। उन्होंने कहा- ‘‘अरे! अरे! देख नहीं रहे हो! इतने बड़े गुरुजी यज्ञ करा रहे हैं।’’ और उसे श्री रमेश चंद्र शुक्ला जी की ओर भेज दिया। चूंकि वह अनजान था। श्री शुक्ला जी लम्बी दाढ़ी रखते थे। सो उसने भी गुरुजी की बात पर अविश्वास नहीं किया। उनकी बात को सत्य समझकर वह श्री शुक्ला जी के पास गया और साष्टांग प्रणाम किया।

उसके प्रणाम करते ही श्री शुक्ला जी हड़बड़ा गये और बोले- ‘‘हैं..! हैं..! यह क्या कर रहे हो भाई! आप प्रणाम गुरुदेव का करिये। वे वहाँ बैठे हैं।’’ तब उन सज्जन ने कहा, ‘‘मैं तो उन्हीं से पूछकर आया हूँ। उन्होंने ही आपके पास भेजा है।’’

अब तो उनसे कुछ कहते नहीं बना। समझ गये, गुरुदेव ने मजाक किया है। अतः उनसे पुनः बोले, ‘‘भाई, मेरी बात का विश्वास करें। वे ही पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य हैं। उन्होंने आपसे विनोद किया है। आप जाइये, उनके ही चरण पकड़िये।’’

जब वह लौटकर आया तो पूज्य गुरुदेव ने मंद- मंद मुस्कराते हुए पूछा, ‘‘पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य नहीं मिले क्या?’’

‘‘क्यों हमारा मजाक बनाते हैं प्रभु..? कहते हुए वह सज्जन उनके चरणों में गिर पड़े।’’

गुरुजी को बैठने दो

श्री शिव प्रसाद मिश्रा जी

   उन दिनों पूज्यवर सारे देश में गायत्री एवं यज्ञ के प्रचार- प्रसार हेतु जाते थे। वे सदैव ही तीसरे दर्जे में सफर करते।

एक बार श्री रमेश चन्द्र शुक्ला जी व पूज्य गुरुदेव ट्रेन में चढ़े। उस दिन भारी भीड़ थी सो बैठने की जगह नहीं मिली। दोनों सामान को एक किनारे जमाकर थोड़ी देर खड़े रहे। कुछ देर बाद गुरुदेव ने रमेश चन्द्र शुक्ला जी की ओर इशारा करते हुए ट्रेन में एक व्यक्ति से कहा- ‘‘थोड़ी जगह हमारे गुरुजी को बैठने के लिये दे दीजिए।’’ श्री शुक्ला जी कुछ बोलते इसके पूर्व ही गुरुदेव ने उन्हें अपनी बड़ी- बड़ी आँखे दिखाते हुए चुप रहने का निर्देश दे दिया। बेचारेक्या करते, चुप रहे।

    श्री शुक्ला जी लंबी दाढ़ी एवं लंबे बाल रखते थे। जिससे वे संत जैसे दिखाई पड़ते थे। अतः उन्होंने उन्हें सचमुच ही गुरुजी मान कर थोड़ी जगह बना दी। गुरुदेव ने उन्हें पुनः आँख दिखाकर बैठने का निर्देश दे दिया। मरता क्या न करता वे चुप- चाप बैठ गये। वे बैठ तो गये पर उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था कि वे बैठें और गुरुदेव खड़े रहें।

थोड़ी देर तक वे सोचते रहे फिर बोले, ‘‘भाई इन्हें भी थोड़ी जगह दे दो।’’ उन्हीं महाशय ने पुनः थोड़ी जगह बनाई और कहा- ‘‘आप भी बैठ जाइये।’’ अब गुरुजी भी बैठ गये।

ट्रेन से उतरने पर जब श्री शुक्ला जी ने फिर से ऐसा न करने की बात कही तो उन्होंने कहा, ‘‘तुझे बैठाया तो बाद में मुझे भी बैठने को मिल गया न। अन्यथा दोनों ही खड़े रहते।’’ और ठहाका मार कर हँसने लगे। अब शुक्ला जी भी हँसने लगे और दोनों हँसते हुए आगे बढ़ गये।

मज़ाक में भी भविष्य की ओर इशारा

श्री केसरी कपिल जी


    मथुरा की बात है। श्री शरण जी सपरिवार मथुरा पहुँचे। रास्ते में उनका सामान चोरी हो गया। उनकी पत्नी इस कारण बहुत दुःखी हो रही थीं। वे गुरुजी से बोलीं, ‘‘गुरु जी, हमने कौन सा पाप किया जो हमारा सारा सामान चोरी हो गया?’’ इस पर गुरुजी ने पहले उन्हें थोड़ा समझाया फिर मजाक करते हुए कहने लगे, ‘‘राम के जमाने में तो रावण सीता जी को भी उठा कर ले गया था। तुम्हारा तो सामान ही गायब हुआ है।’’

फिर मेरी ओर इशारा करते हुए कहने लगे, ‘‘परसों ये लखनऊ जाने वाला है इसका कोई बिस्तर ही उठा कर चलता बनेगा, तो यह क्या कहेगा?’’ उस समय तो हम सबको हँसी आ गई और वातावरण हल्का हो गया। पर मज़े की बात यह हुई कि वास्तव में उस यात्रा के दौरान लखनऊ स्टेशन पर से कोई मेरा बिस्तर लेकर चलता बना।

कौआ कान न काट ले जाय

श्रीमती मुक्ति शर्मा

    एक दिन जब मैं माताजी को प्रणाम करने गई, तो जैसे ही मैंने माताजी को प्रणाम किया, माताजी हँस दीं। मैंने माताजी से हँसने का कारण पूछा तो बोलीं, ‘‘रात को गुरुजी मजाक कर रहे थे। उन्होंने अखबार में कोई खबर पढ़ी है कि शहर में कोई ऐसा कौआ आया है जो महिलाओं के कान काट कर जेवर ले जाता है। फिर मुझे पूछने लगे कि हमारे यहाँ कौन कान में बाली पहनती है? मैंने कहा, और का तो मुझे ख्याल नहीं पर मुक्ति पहनती है। इस पर गुरुजी बोले, ‘‘हाँ, वह तो रोज ब्रह्मवर्चस से आना जाना भी करती है। तुम उसे समझा देना कि ध्यान रखे, देखना कहीं कौआ कान न काट ले जाये’’ और हँसने लगे। सो मुझे, तुझे देखकर उनकी बात याद आ गई।’’ मुझे भी माताजी की बात सुनकर हँसी आ गई और बोली गुरुजी भी मजाक करते रहते हैं। माताजी भी हँसने लगीं।

रात को मैंने इनसे माताजी की बात बताई तो इन्होंने कहा, ‘‘तुमको तो हर बात मजाक लगती है। गुरुजी के मजाक में भी रहस्य छिपा रहता है। तुम अपनी ये बाली- वाली उतार कर रख दो।’’ मैंने बालियाँ उतार कर रख दीं। सुबह जब माताजी को प्रणाम करने गई तो माताजी बोलीं, लाली, ‘‘बाली कहाँ गई।’’ मैंने कहा माताजी आपने ही तो कल कहा था कि कौआ कान काट ले जाता है। मैंने इनसे सब बात बताई तो ये बाले कि गुरुजी की हर बात में कोई न कोई रहस्य रहता है सो तुम तो इन्हें उतार कर रख ही दो। इसलिये मैंने उतार दीं। माताजी बोलीं, ‘‘कहने दे उसे, कहीं कौआ भी कान काट ले जाता है। ले भी जाता होगा तो मैंने तुझे संरक्षण दिया। तू तो अपनी बाली पहन, नंगे कान अच्छे नहीं लग रहे। आज ही पहन लेना।’’ मैंने कहा, ‘‘ठीक है, माताजी।’’

   कमरे में आकर मैंने अपनी बालियाँ पहन लीं। इन्होंने देखा तो कहा कि तुमने फिर लटका लीं। मैंने कहा माताजी ने संरक्षण दे दिया है। लेकिन वास्तव में गुरुजी की बात व्यर्थ नहीं थी। कुछ दिन बाद मेरी ससुराल से पत्र आया जिसमें लिखा था कि एक रात घर में चोर घुस आया था। अम्मा ने उसे देख लिया और तो वो कुछ नहीं कर पाया लेकिन अम्मा के कान का एक बूंदा खींच ले गया जिससे अम्मा का कान कट गया। पत्र पढ़कर इन्होंने कहा कि ‘‘देखा! तुम्हें तो माताजी ने संरक्षण दे दिया, पर घटना तो घटी ही, यहाँ नहीं तो, घर में। गुरुजी मजाक- मजाक में भी कुछ न कुछ संकेत करते रहते हैं।’’

   कौए वाली खबर भी सच थी। उसने शहर में आतंक मचा रखा था। प्रायः रोज ही कोई न कोई घटना घटती थी सो पुलिस उसके पीछे लगी थी। एक दिन फिर अखबार में छपा कि कान काटने वाला कौआ पकड़ा गया और उसके कोटर में से बहुत से कान के जेवर मिले।

मिठाई की दुकान तो खूब चलेगी

श्री मिठाईलाल जी

एक बार 1981 में जब मैं शान्तिकुञ्ज आया और पूज्यवर को प्रणाम करने गया तो मुझे देखते ही गुरुजी मज़ाक करते हुए बोले- ‘‘अहा! मिठाईलाल जी भी आ गये। अब तो इनके आगे पीछे सब बच्चे घूमते रहेंगे। इनकी मिठाई की दुकान तो खूब चलेगी।’’ वहाँ उपस्थित सब लोग हँसने लगे। मुझे भी हँसी आ गई।

लेकिन गुरुजी के यह शब्द तो वरदान थे। यह मैं नहीं जानता था। हमारे एक मित्र की मिठाई की दुकान थी। जो उन दिनों चलती नहीं थी। पर उसके बाद जब भी मैं उनकी दुकान पर जाकर बैठ जाता तो थोड़ी सी ही देर में उनकी खूब बिक्री हो जाती। आज उनकी वह दुकान खूब तरक्की कर रही है।

गायत्री माँ चाय पिलाती थी

डॉ.अमल कुमार दत्ता

सतीश भाई साहब की शादी थी। गुरुजी का एक भतीजा जिसका प्यार का नाम सत्तो है, अपने जीजा जी की खूब तारीफ कर रहा था। जब कुछ ज्यादा ही तारीफ होने लगी तो गुरुजी उसका मजा लेते हुए बोले, ‘‘सत्तो! तुमने अपने जीजा जी की तारीफ तो बहुत की, बस एक ही बात की कमी रह गई कि तुमने यह नहीं कहा कि हमारे जीजा जी को गायत्री माँ चाय पिलाती थी।’’ गुरुजी की बात सुनकर सब लोग जोर से हँस दिये।

भूत तुझे उठा ले जायेगा

एक बार गुरुजी हमारे यहाँ आये हुए थे। मुझसे बोले, ‘‘डॉक्टर, तुझे कार चलाना नहीं आता।’’ मैंने कहा, ‘‘गुरुजी, मैं सीख रहा हूँ। मेरा मन था कि जब तक आप रहें कार मैं ही चलाऊँ पर अभी ठीक से सीख नहीं पाया।’’ गुरुजी बोले, ‘‘तू चला।’’ मैंने ड्रायवर को पीछे भेज दिया। गुरुजी बतलाते रहे कार कैसे बचा- बचाकर चलायें और हम अमई पहुँच गये।

रमन जी की पत्नी निर्मला जीजी भी हमारे साथ थीं। हम और गुरुजी आगे बैठे थे। इतने में पीछे से ड्रायवर बोला, ‘‘गुरुजी, इस दायीं तरफ की बिल्डिंग में भूत रहता है।’’ गुरुजी बोले, ‘‘निम्मो, यह ड्रायवर कह रहा है, यहाँ भूत रहता है। सँभलकर बैठ, नहीं तो भूत तुझे उठा ले जायेगा।’’ वह बोलीं, ‘‘गुरुजी, आप बैठे हैं तो डर क्या? ’’ गुरुजी बोले, ‘‘गुरुजी तो सामने बैठे हैं, पीछे से तुझे उठा ले गया तो मैं क्या करूँगा?’’ और हम सब हँसने लगे।

गुरुजी का बच्चा गुरुजी

मेरा छोटा बेटा सिद्धार्थ 3- 4 वर्ष का था। उन दिनों हम लोग अशोक नगर में रहते थे। गुरुजी अशोकनगर आये हुये थे। लोगों ने उन्हें बहुत सी फूल मालायें पहनाई थीं। गुरुजी फूलमाला रखकर अपने स्थान से उठे तो सिद्धार्थ ने वह सब अपने गले में पहन लीं। इतने में पंडित लीलापत शर्मा जी वहाँ से निकले। वह बच्चे से हिले- मिले हुए थे। सिद्धार्थ ने उन्हें बुलाया और कहा,‘‘मुझे प्रणाम करो, मैं गुरुजी हूँ।’’ लीलापत शर्मा जी भी उसे ‘‘गुरुजी प्रणाम! गुरुजी प्रणाम!’’ कहते हुए गोद में उठा कर गुरुजी के पास ले गये और बोले, यह कहता है, ‘‘मैं गुरुजी हूँ।’’ गुरुजी ने उसे गोद में उठाया और बोले, ‘‘ठीक तो कहता है यह अमलकुमार का बेटा। शेर का बच्चा शेर। बकरी का बच्चा बकरी। गुरुजी का बच्चा गुरुजी।’’ और ठहाका लगाकर हँस दिये। हम सब भी जो वहाँ खड़े थे, हँसने लगे।

पर उनकी इस बात के पीछे गहरी प्रेरणा भी छिपी थी, जिसे हम सबने हृदयंगम भी किया। वे अपने प्रवचनों में भी अक्सर कहते थे, ‘‘बेटा! शेर का बच्चा शेर होता है। तुम शेर के बच्चे बनना। बकरी के नहीं।’’

कुहनी मारो!

श्रीमती विमला अग्रवाल

अक्षय तृतीया का दिन था। सरोज अग्रवाल का विवाह दिन था व मेरे सवा लक्ष अनुष्ठान की पूर्णाहुति थी। तारीख से हमारा भी विवाह दिन था सो हम दोनों दम्पत्ति एक साथ वंदनीया माताजी के कमरे में दाखिल हुए। माताजी ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘अरे! आज तो सब इकट्ठे चले आ रहे हो, क्या बात है?’’ मैंने कहा, ‘‘माताजी, सरोज का विवाह दिन है।’’

सरोज ने बताया, ‘‘माताजी, भाभी का भी सवा लक्ष का अनुष्ठान पूरा हुआ है।’’

सुनकर माताजी ने कहा, ‘‘लगता है दिन गिन कर अनुष्ठान शुरु किया था। यह तेरी भाभी है कि तू इसकी भाभी है।’’

मैंने कहा, ‘‘यह मेरी ननद है।’’ तब उन्होंने पुनः चुटकी ली, ‘‘ननद भाभी हो तो कुहनी मारो।’’ और खिलखिला कर हँस पड़ी। हम सबको भी हँसी आ गई।

रोटियाँ तो तुम्हारे जैसे ही फूल रही हैं

प्रणाम के समापन व लेखन के पश्चात् गुरुजी चौके में आकर थोड़ी देर टहलते थे। साथ- साथ सबके कार्यों का निरीक्षण करते, आवश्यक निर्देश देते व हँसी मजाक करते हुए हँसाते भी रहते। कभी- कभी कोई लड़की किसी से गुस्सा हो जाती तो उस समय तो गुरुजी- माताजी उसे समझा देते। किंतु बाद में गुरुजी सबका मनोरंजन करते हुए कहते- ‘‘छोरियो! रोटीयाँ तो तुम्हारे जैसे ही फूल रही हैं’’

सबको हँसी आ जाती। जो गुस्सा होती वह भी समझ जाती और गुस्सा भूलकर सबके साथ हँसने लगती।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118