बात सन् १९९८ की है। नवम्बर का महीना था। घर में कुछ अशांति के कारण मैं अकेले ही हरिद्वार आ गई थी। अखण्ड परमधाम (सप्तसरोवर) में ठहरी थी। मन बहुत अशान्त था, बच्चों की चिन्ता सता रही थी। एक दिन भोर में नहाकर मैं अकेले ही मंदिरों के दर्शन करने निकल पड़ी।
रास्ते में अचानक एक अधेड़ उम्र की महिला मुझसे बड़ी आत्मीयता से मिली और मेरा हालचाल पूछने लगी। बातों ही बातों में उन्होंने मुझसे कहा कि- यहाँ एक बहुत सुन्दर आश्रम है, शान्तिकुञ्ज। क्या आप वहाँ गईं? मैंने कहा- नहीं तो। वे बड़े प्यार से मेरा हाथ पकड़कर शान्तिकुञ्ज ले आईं। गेट में प्रविष्ट होकर मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वह महिला नज़र नहीं आईं। मैंने अन्दर जाकर जब माताजी और गुरुजी का फोटो देखा, तब स्तब्ध रह गई। क्योंकि उस महिला की शक्ल और आकृति- आकार बहुत कुछ माताजी से मिलता- जुलता था।
इस घटना ने मुझे भावविभोर कर दिया। उसी दिन मैं अपना सामान लेकर शान्तिकुञ्ज आ गई। उसी दिन शुरू हो रहे नौ दिवसीय सत्र में मैंने भाग लिया। पहले से दीक्षित होते हुए भी मैंने पुनः दीक्षा ली। इस प्रकार उस दैवी मार्गदर्शन ने मेरी पूरी जिन्दगी ही बदल दी। तब से लेकर आज तक मैं पूरी तरह गायत्री माता की उपासना और गुरुकार्य में संलग्न हूँ और गुरुदेव की कृपा से बड़ी- से विपत्तियों का बड़ी ही सहजता से निराकरण हो जाता है।
प्रस्तुति :: डॉ. मृणालिनी चटर्जी
वर्धमान (प.बंगाल)