सन् 1970 से ही मैं अखण्ड ज्योति पढ़ता आ रहा हूँ। उससे हमेशा प्रेरणा- प्रकाश प्राप्त होता रहता है। शान्तिकुञ्ज पहली बार गया सन् 1985 की जनवरी में। एक मासीय शिविर में भाग लेने के लिए पहुँचा था। गुरु देव उन दिनों सूक्ष्मीकरण साधना में थे। वे किसी से मिलते नहीं थे। उनके कक्ष में गिने- चुने लोगों को ही जाने की अनुमति थी।
गुरुदेव के दर्शन नहीं हो पाये इसका मुझे बहुत मलाल रहता था। मैं अपनी किस्मत को कोसता रहता कि इतने दिनों से मानसिक रूप से जुड़े होने के बावजूद मैंने एक बार भी आकर गुरुदेव से मिलने का प्रयास क्यों नहीं किया। पता नहीं फिर कभी दर्शन हो पाएँगे भी या नहीं। बार- बार मन ही मन उनसे याचना भी करता रहता कि हे गुरुदेव! किसी प्रकार, कभी तो दर्शन दे दो।
उसी वर्ष फरवरी की बात है। मैं पटना से गया जा रहा था। ट्रेन में बहुत भीड़ थी। लोग बोगियों की छत पर भी सवार थे। बोगियों के अन्दर स्थान न होने के कारण हम कुछेक भाई दरवाजे के पास खड़े थे। मेरा पूरा शरीर बाहर की ओर लटका हुआ था। चूँकि मैं गाड़ी की गति की विपरीत दिशा में मुँह किए था, इसलिए सामने से आने वाले खतरे की तरफ से मैं बिल्कुल अनभिज्ञ था। गाड़ी बहुत तेजी से एक खम्भे को पार कर रही थी। हमारी बोगी उसके पास तक आते- आते सामने वाले सहयात्री को खतरे का आभास हुआ। वे ‘गया- गया’ करके चिल्ला उठे। मेरे कुछ समझ पाने से पहले ही दो बलिष्ठ हाथों ने मेरे सिर को अन्दर की ओर धकेल दिया। दूसरे ही पल मैंने जाना कि एक पल की देर हो गई होती तो मेरा सिर उस खम्भे से टकराकर चूर- चूर हो जाता।
निश्चित मृत्यु के हाथों से मुझे बचाने वाला कौन है- मालूम करने का प्रयास किया, तो सहयात्रियों ने बताया- एक बूढ़ा आदमी पता नहीं कहाँ से अचानक आ पहुँचा। ऐसा लगा मानो वहीं प्रकट हुआ हो; क्योंकि हमारे साथ जितने लोग खड़े थे, उन सभी से वे अलग थे। चेहरे का वर्णन जैसा उन्होंने किया, उससे मुझे मालूम हो गया कि वे पूज्य गुरुदेव के अतिरिक्त कोई और नहीं हो सकते।
दर्शन न कर पाने का दुःख जाता रहा। उनका स्पर्श आज भी अनुभव होता रहता है। उसी दिन मैंने जाना कि गुरुदेव को मन से पुकारने वाले को वे कभी खाली नहीं लौटाते। उनका सहयोग संरक्षण आज भी अनुभव करता रहता हूँ।
प्रस्तुति: रामानन्द सिन्हा
नालन्दा (बिहार)