श्री शम्भूसिंह कौशिक को क्षय रोग हो गया। उन्हें सेनिटोरियम में भरती कराया गया। चिकित्सा हुई। कुछ समय बाद उन्हें लाइलाज घोषित कर सेनिटोरियम से छुट्टी दे दी गई। वे कोटा राजस्थान के निवासी थे। मरणासन्न स्थिति में दिन काट रहे थे। ज्योतिषियों ने भी जन्म पत्री देखकर मारकेश बताया था, सो मुत्यु की प्रतीक्षा के अतिरिक्त कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था।
जिसके जवान इकलौते बेटे को डॉक्टरों ने जवाब दे दिया हो और ज्योतिषियों ने उसकी मृत्यु के निकट होने की भविष्यवाणियाँ की हों, उस माँ की स्थिति क्या होती है, यह विज्ञजन स्वयं समझ सकते हैं। कौशिक जी की माँ दिन- रात अपने इष्टदेव से यही विनती करती रहती थी कि कैसे भी करके उनका बेटा ठीक हो जाए। ईश्वर भले ही उसके प्राण ले लें पर उनके बच्चे को जीवन दान दे दें।
शायद इसी आर्त पुकार की ही परिणति थी कि पूज्य गुरुदेव वहाँ पहुँच गए। उन्हीं दिनों कोटा राजस्थान में एक विशाल यज्ञायोजन किया गया था। उसे सम्पन्न कराने के लिए स्वयं गुरुदेव वहाँ पहुँचे हुए थे। दुखियारी माँ को किसी ने सलाह दी मथुरा से एक तपस्वी आए हैं, उनसे मिलो। तुम्हारा बेटा ठीक हो जाएगा वह सब काम छोड़कर दौड़ पड़ीं।
गुरुदेव के पास पहुँचकर उन्होंने विनती की- गुरुदेव हम लोग बहुत गरीब हैं, आपके चरणों की धूल के बराबर भी नहीं। हमारी शक्ति आपको बुलाने की तो नहीं है, फिर भी हमारी विनती है कि हमारे बेटे पर आपकी कृपा दृष्टि हो जाए, तो शायद हमारी तकदीर बदल जाए। हम सब ओर से निराश हो गए हैं, गुरुदेव! डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया है और ज्योतिषियों ने भी मारकेश बताया है। कहते- कहते वह फूट- फूट कर रो पड़ी। उसकी रुलाई से सभी द्रवित हो गए। गुरुदेव ने अपने पास खड़े सहयोगी से कहा- बेटा, इसका पता नोट कर, दूसरे के घर जाने को समय मिले या न मिले, इसके घर मैं अवश्य जाऊँगा।
पूज्य गुरुदेव के इन शब्दों से माँ के मन में आशा की किरण जाग उठी। वे दौड़कर घर वापस गई और जो भी अपनी स्थिति अनुरूप कर सकती थीं, स्वागत सत्कार की तैयारी कर ऋषिवर के आने का इंतजार करने लगीं।
इधर यज्ञीय कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद अपने विश्राम क्षणों में कटौती कर पूज्य गुरुदेव उस दुखियारी माँ के घर की ओर चल पड़े। घर क्या था, एक कच्चा सा मकान था, छावनी की ऊँचाई भी बहुत कम थी। पूज्य गुरुदेव का कद वैसे भी बहुत लम्बा था। अतः अन्दर घुसने के क्रम में बाँस का एक कोना पूज्यवर के माथे में जा लगा। माथे से खून निकल आया। खून देखकर मेजबान बनी माँ ग्लानि से गड़ गई। अपराधियों की तरह सिर झुकाकर वह स्वयं को धिक्कारने लगी। कहने लगी- यदि मैंने आपको घर आने के लिए नहीं कहा होता......।
पूज्य गुरुदेव अपनी पीड़ा को छिपाते हुए हँसते रहे और कहा- बेटे, इस बाँस की इतनी हिम्मत कि इसने मुझे चोट पहुँचाई। अब यह बाँस यहाँ नहीं रहेगा।
उनके इस कथन का आशय उस समय तो शायद ही किसी की समझ में आया हो, लेकिन कुछ ही दिनों में जब वह कच्चा मकान पक्के मकान में बदल गया, तब जाकर लोगों की समझ में आया कि जैसे पेड़ चोट खाकर भी बदले में फल ही देता है, वैसे ही गुरुदेव ने घायल होकर भी उस परिवार को पक्के मकान का अनुदान दे दिया। जब मकान ही पक्का हो गया तो बेचारा बाँस कहाँ रहेगा।
पूज्य गुरुदेव अन्दर पहुँचे तो देखा कि वह बीमार इकलौता बेटा मरणासन्न स्थिति में लेटा था। मुश्किल से हाथ जोड़े। आँखों से बहती हुई अश्रुधारा ने बिना कुछ कहे उनकी स्थिति बता दी। गुरुदेव ने ढाढस बँधाते हुए कहा- चिन्ता मत कर। गायत्री माता सब ठीक करेंगी।
घर के लोगों ने विस्तार से बताना शुरू किया कि इस बीमारी का इलाज कहाँ- कहाँ कराया गया और कितने बड़े- बड़े डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है। गुरुदेव मुस्कराते हुए शान्त भाव से सारी बातें सुनते रहे। जब ज्योतिषियों द्वारा कही गई मारकेश की बात बताकर उनकी ओर जन्म पत्री बढ़ाई गई, तो पूज्य गुरुदेव ने तुरन्त जन्मपत्री हाथ में ली, उसे पढ़ा और कहा- बेटे। ज्योतिषियों ने जन्मपत्री में जो मारकेश की बात कही है वह तो सही है, पर देख ले हम इस मारकेश को अभी फाड़ देते हैं।
इतना कहकर गुरुदेव ने वह जन्मपत्री फाड़कर फेंक दी और कहा- तेरा मारकेश समाप्त, तेरी जन्म पत्री ही मैंने फाड़ दी, अब कहाँ रहेगा मारकेश? फिर उन्होंने कागज- पेन मँगाया और तुरन्त दूसरी जन्म पत्री बनाकर दे दी। बोले अब तुझे बहुत लम्बी आयु देंगे। अपने से भी अधिक, हमारे रहते तुझे कुछ नहीं हो सकता। दुखियारी माँ को मानो वांछित वरदान मिल गया। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसे लगा उसके निर्जीव शरीर में किसी ने अकस्मात् प्राणों का संचार कर दिया हो। स्वागत- सत्कार तो भूल ही गई। निढाल होकर गुरुदेव के चरणों में गिर पड़ी व अन्तरमन से गुरुदेव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने लगी।
सबको सांत्वना देकर गुरुदेव वापस आए और अन्य कार्यों में व्यस्त हो गए। शम्भु सिंह शनैः- शनैः ठीक होने लगे। स्वयं महाकाल के अवतार ने जिसकी कुण्डली फाड़कर दुबारा बनाई हो, उसे तो ठीक होना ही था। एक माह में वे बिना किसी उपचार के पूर्णतया स्वस्थ हो गए।
पूज्यवर की अनुकम्पा से नया जीवन प्राप्त हुआ था। वे एक अध्यापक थे। सो कृतज्ञता का भाव लिए हुए उन्होंने नौकरी छोड़ दी व गुरुदेव के दिए हुए जीवन को उन्हीं के श्रीचरणों में समर्पित करने हेतु मथुरा आ गए। यहाँ आकर उन्होंने नरमेध यज्ञ के चार आत्मदानियों में एक बनने का गौरव प्राप्त किया।
प्रस्तुतिः श्रीमती विमला अग्रवाल
शांतिकुंज, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)