ऋषि युग्म की झलक-झाँकी-1

भविष्य द्रष्टा हमारे गुरुदेव

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     कहते हैं- महापुरुषों के पास दिव्य दृष्टि होती है। वह क्या होती है, कैसी होती है? यह तो हम लोग नहीं जानते, किंतु यह जरूर जानते हैं कि पूज्य गुरुदेव सबके मन की बात जान लेते थे। वे अंतर्यामी थे। उनके पास जाकर कुछ कहना नहीं पड़ता था, वे स्वतः ही सब कह देते थे। इतना ही नहीं उन्होंने अपने प्रवचनों में, गोष्ठियों में व साहित्य में भविष्य के विषय में भी जो कुछ कहा वह क्रमशः सत्य होता चला गया।

केशव टीला जरूर जाना

श्री सुदर्शन मित्तल, देहरादून

    श्री जमना प्रसाद बड़ेरिया जी (चैतन्य जी के बड़े भाई) मथुरा में ही एकान्त वास करते हैं। सन् 1957 के आसपास जब वे लड़के ही थे, मथुरा आये व तपोभूमि पहुँचे। गुरुदेव उस समय गेट पर ही टहल रहे थे। उन्होंने पूछा- ‘‘कहाँ से आये हैं?’’ चूँकि वे हकला कर बोले थे अतः उनको भी मजाक सूझी। उन्होंने भी उसी भाषा में हकला कर जवाब दिया, ‘‘आ- जी- -- है।’’

   जब गुरुदेव ने कहा- ‘‘मैं ही आचार्य जी हूँ।’’ तो वे बहुत शर्मिंदा हुए व एक दो दिन पूज्यवर से सामना नहीं कर सके। पुनः गुरुदेव से चर्चा हुई। उन्होंने पूछा- ‘‘कैसे आये हो?’’ बताया- ‘‘घूमने आया हूँ।’’ गुरुजी ने कहा- ‘‘केशव टीला जरूर जाना।’’ वे घूमते- घूमते थक गये थे पर गुरुजी ने कहा है सो जाना था, गये। देखा, काफी दूरी व ऊँचाई पर एक कोठरीनुमा झोंपड़ी थी व पास में ही एक मस्जिद थी। देखने लायक कुछ भी नहीं दिखाई दिया। थके हारे आये और गुरुजी से पूछ ही लिया- ‘‘ वहाँ तो देखने के लिये कुछ भी नहीं था पर आपने वहाँ क्यों भेजा?’’ गुरुजी ने उत्तर दिया- ‘‘25 साल बाद वहाँ भव्य मंदिर बनेगा। आज उसी स्थान पर भव्य ‘श्रीकृष्ण जन्म भूमि स्मारक’ बना हुआ है।’’ जो मथुरा का एक आकर्षण है।

पचास वर्ष के बाद किसी के पास पैसा नहीं रहेगा

श्री शिव प्रसाद मिश्र

   घटना सन् 1965 की है। तब 108 कुण्डीय व 51 कुण्डीय बाजपेय यज्ञों की शृंखला चल रही थी। गुरुदेव तर्कों के माध्यम से समाज में फैले अंधविश्वासों, मूढ़मान्यताओं व परम्पराओं का खंडन करते हुए उसके स्थान पर सद्विचारों, सत्कर्मों, सद्भावनाओं की महत्ता स्थापित कर रहे थे। भरी सभा में कुछ ऐसी घोषणा कर देते, जिससे विज्ञ- जन सोचने को मजबूर हो जाते।

   ऐसा ही एक यज्ञीय कार्यक्रम ग्वालियर में था। वहाँ उस समय महारानी श्रीमती विजय राजे सिंधिया भी उपस्थित थीं। गुरुदेव ने सायंकालीन प्रवचन के दौरान जोरदार शब्दों में कहा- ‘‘मैं, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य, कह रहा हूँ कि आज से पच्चास वर्ष बाद किसी के पास पैसा नहीं रहेगा।’’
इस प्रकार उनने आने वाले समय की जानकारी खुलकर दे दी। आज उस बात को लगभग 44 वर्ष बीत चुके हैं। हम सभी स्पष्ट देख रहे हैं कि किस प्रकार पैसे का निरन्तर समाजीकरण होता चला जा रहा है।

बल प्रयोग भी करना पड़ेगा

श्री श्याम प्रताप सिंह

   उन दिनों पंजाब में आतंकवाद अपनी चरम सीमा पर था। सभी अपने- अपने ढंग से शान्ति- प्रयासों में लगे थे। जैनमुनि सुशील कुमार भी पंजाब में शान्ति के प्रयास के लिए प्रस्थान से पूर्व पूज्य गुरुदेव से परामर्श एवं मार्गदर्शन लेने आये। वन्दनीया माताजी से मिले फिर पूज्य गुरुदेव से मिले। गुरुदेव बोले, ‘‘शान्तिप्रयास अवश्य करना चाहिए, आप भी करें। हम भी भगवान से प्रार्थना करेंगे। किन्तु एक बात समझ लें- पंजाब में अशान्ति पाकिस्तान के उकसावे पर है। इसमें मात्र बातों से काम नहीं बनेगा, बल प्रयोग भी करना पड़ेगा।’’ और वैसा ही हुआ, शान्तिवार्ताएँ धरी की धरी रह गईं। समस्या बल प्रयोग से ही सुलझी।

उस दिन वो आ जाता तो बच जाता

श्री केसरी कपिल जी

   जब राजीव गाँधी हरिद्वार आने वाले थे, तो माताजी ने स्वयं उन्हें शान्तिकुञ्ज आने के लिये संदेश भिजवाया था। उन्होंने आने की स्वीकृति भी दे दी थी। माताजी उनका इंतज़ार भी कर रही थीं। पर माताजी को विचित्र प्रकार की आकुलता थी। वे पूछती रहती थीं कि वह कब आ रहे हैं? जिस दिन उनको आना था, उस दिन माताजी ने कहा ‘‘उसको खबर भेजना कि मैं इंतजार कर रही हूँ ’’ और कई बार पूछा, ‘‘लल्लू! वो आ रहा है क्या?’’ हमें आश्चर्य सा लग रहा था कि माताजी को इतनी व्यग्रता क्यों है? शान्तिकुञ्ज के भाई उनके स्वागतार्थ शान्तिकुञ्ज गेट पर खड़े थे। राजीव गाँधी आये, लेकिन शान्तिकुञ्ज से थोड़ा आगे उनकी गाड़ी रुकी। उन्होंने वहीं से हाथ हिला कर कहा ‘‘माताजी से कहना, मैं आ नहीं पाऊँगा। आज मुझे देर हो गई है। अगली बार जरूर आऊँगा’’

   श्री वीरेश्वर उपाध्याय जी, माताजी के पास उनका संदेश देने गए। तब माताजी ने कहा, ‘‘वो आ जाता तो उसी के लिये अच्छा था। अब वो कभी नहीं आ पायेगा’’। उसके तुरंत बाद ही वे मद्रास गये थे। जहाँ से वे कभी नहीं लौटे। उनकी हत्या की खबर सुनते ही, माताजी ने कहा, ‘‘बेटा, यदि उस दिन वो आ जाता तो वो बच जाता।’’

   उनके यह शब्द सुनकर हमें राजीव गाँधी से मिलने की उनकी व्यग्रता, उनका इंतज़ार, उन्हें आशीर्वाद देने की उनकी तड़प, और उनके न आने पर उनकी निराशा, सभी भाव हमारी समझ में आ गये कि वे उनसे मिलने के लिये क्यों व्याकुल हो रही थीं। शायद वे उन्हें आशीर्वाद देकर अपना सुरक्षा कवच पहनाना चाहती थीं।

संस्कृति को जिन्दा रखो

श्रीमती सीता अग्रवाल

    ‘‘यदि भारतीय संस्कृति जिन्दा नहीं रहेगी तो बेटे, कोई किसी की सेवा नहीं करेगा। जिस प्रकार बैल बूढ़ा होने पर कसाई के घर जाता है उसी प्रकार तुम लोग भी जाओगे। लोग कहेंगे बूढ़ा दिन भर घर में रहकर खाँसता है, खाता है और गोबर करता है। इसे कसाई घर भेजो। बुजुर्गों की सेवा की भावना समाप्त हो जायेगी। अतः संस्कृति को जिन्दा रखो, अन्यथा कसाई घर जाने के लिये तैयार रहो।’’

‘‘प्रकृति नाराज है, अतः देखना आने वाले समय में कहीं पानी- पानी होगा तो कहीं सूखा- सूखा। घास नहीं उपजेगी। दुनियाँ भूख के मारे तड़पेगी। प्रलय होगा। केवल 40 प्रतिशत लोग बचेंगे। अतः सदैव तन्दुरुस्त रहकर कार्य करने की कला सीखो।’’

मँहगाई बढ़ जायेगी

  सन् 82 की बात है एक दिन गुरुदेव ऊपर गोष्ठी ले रहे थे। उन्होंने कहा, ‘‘बेटे! मँहगाई इतनी बढ़ जायेगी कि तुम लोग सब्जी नहीं खा सकोगे। अतः अभी से चटनी- रोटी खाने की आदत डालो।’’

  ‘‘अग्रवाल बेटा! ऐसा करना सहारनपुर से करौंदे का पौधा लाना। सबके घरों में लगा दो। सबको छोटा- छोटा बगीचा दे दो। तुलसी के पौधे में अदरक दबा दो। नमक मिर्च, अदरक, करौंदे की चटनी खाओ। कोई अस्वस्थ होगा, तो मेरी जिम्मेदारी है। सुबह चटनी रोटी खाना। शाम को दलिया- खिचड़ी खाना।’’

ईंधन मँहगा होगा

  ‘‘बेटे! एक समय ऐसा आयेगा कि ईंधन काफी मँहगा होगा। कुकर में पकाने से कम ईंधन लगेगा व विटामिन्स भी बने रहेंगे। अतः सब कार्यकर्त्ताओं के पास कुकर होने चाहिए। उसी में पकाओ और खाओ।’’ सभी कार्यकर्त्ताओं ने कुकर खरीदा व उसमें खाना बनाना प्रारंभ किया।

जलाराम बापा का भण्डारा बना दो

श्री प्रेम जी भाई

  अप्रैल सन् 1985 में जब मैं शान्तिकुञ्ज आया, तो मुझे व श्री तोमर जी को भोजनालय में ड्यूटी दी गई। तब एक मासीय शिविर के भाई- बहिनों से प्रति व्यक्ति पचहत्तर रुपये मासिक लिया जाता था।

  बाद में यह शुल्क मँहगाई बढ़ने के कारण सौ रुपये मासिक किया गया। ईश्वर की लीला बड़ी विचित्र होती है। उसे जब कोई भी काम करना होता है, तब वह किसी न किसी को माध्यम बनाता है। स्वयं अपने मन से नहीं करते। उस समय एक घटना ऐसी हुई कि लगा जैसे उनकी ही प्रेरणा है।
  एक दिन एक शिविरार्थी खूब नाराज हो गया। कहने लगा- ‘‘केवल दो समय भोजन का सौ रुपये लेते हैं। यह बहुत ज्यादा है। चाय भी देनी चाहिए।’’
उसे हम लोगों ने समझाया, पर वह अपनी बात पर अड़ा रहा। बात माताजी- गुरुजी तक पहुँची। वे तो लीलाधारी थे। खूब जोर से हँसे, मानो मन चाहा मिल गया हो और कहा- ‘‘आश्रम में जलाराम बापा का भण्डारा बना दो। किसी से खाने का कोई पैसा मत लो।’’ और उस दिन से वह जलाराम बापा का भण्डारा, आज तक चल रहा है।

कभी- कभी वे कहते थे, ‘‘आने वाले दिनों में इतनी भीड़ आयेगी कि तुम लोग सँभाल नहीं सकोगे।’’ उन्हें भविष्य दिखाई देता था। शायद इसीलिये उन्होंने कहा था कि आश्रम में जलाराम बापा का भण्डारा बना दो।

  फिर हमें कैन्टीन में ड्यूटी दे दी गई। बड़े उत्साह से कैन्टीन में काम किया। उसी समय मेरे मन में सवालक्ष्य का अनुष्ठान करने की प्रेरणा हुई। दाढ़ी रखा व केवल एक लीटर दूध पर चालीस दिन रहा। पूर्णाहुति के दिन माताजी के पास गया। बताया, तो परम वन्दनीया माताजी ने गुरुजी के पास ऊपर भेज दिया।

  पूज्यवर उस समय लेटे हुए थे। लेटे- लेटे ही बात की- ‘‘क्या तकलीफ है बेटा!’’ ‘‘कुछ नहीं गुरुदेव’’ मैंने कहा। ‘‘बस, मेरा काम करते रहो। कोई दिक्कत नहीं आयेगी। कुछ चाहिए?’’ गुरुजी ने पूछा। ‘‘ज्ञान, भक्ति, वैराग्य।’’ मैंने शीघ्रता से कह दिया। उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। फिर ‘‘तथास्तु’’ कहा। हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। मैंने प्रणाम किया। पास गया। उन्होंने पुनः मेरे सिर पर प्यार भरा हाथ रख दिया। मैं धन्य हो गया। आज भी उन पलों की याद से हृदय गद्गद् हो जाता है।

लोग इसे ही अधिक पसंद करेंगे
 

श्री चन्द्र भूषण मिश्र

  सन् 88 में पूज्यवर यज्ञीय कर्मकांड का संशोधन कर रहे थे। उनका कथन था कि हमें बड़ी संख्या तक जन- जन में पहुँचना है, अतः कम समय में आकर्षक कर्मकाण्ड द्वारा यज्ञीय कृत्य सम्पन्न किए जायें। इस हेतु उन्होंने दीप यज्ञ का विधि- विधान बनाया व अपने बच्चों को समझाया। अधिकांश व्यक्तियों ने शंका की कि इतनी जल्दी में दीपक द्वारा यज्ञ सम्पन्न करने से जनता की श्रद्धा को ठेस पहुँचेगी। वह चलेगा नहीं। उसकी अवहेलना या उपहास न हो, यह शंका उन सबको खाये जा रही थी।

   पूज्यवर ने उनकी समस्याएँ सुनीं व कहा- ‘‘किसी भी कार्य का नयापन कुछ दिन अटपटा तो लगता है, किन्तु देखना, लोग इसे ही अधिक पसंद करेंगे क्योंकि आज अधिक समय किसी के पास नहीं है। दुनियाँ में मैं ही एक मात्र पंडित रहूँगा, जो भी चलाऊँगा, अवश्य चलेगा। मैं कह रहा हूँ और कोई पसंद न करे, ऐसा नहीं होगा। मैं जो कह रहा हूँ, वही दुनियाँ में चलेगा। जितना बड़ा पंडाल बिछा दोगे, उतनी जनता लाने की जिम्मेदारी मेरी होगी।’’
   इसी प्रकार उसी समय संस्कारों की सूत्र पद्धति तैयार की गई, जिसे कोई भी व्यक्ति आसानी से बहुत कम समय में कहीं भी सम्पन्न करा ले। इसी के बाद सन् 89 में दीपयज्ञों की ऐसी शृंखला चली कि सारा राष्ट्र एकता के सूत्र में बँध गया। उनका कोई भी कार्य एक आन्दोलन के रूप में चलता है तथा दीपयज्ञ व संस्कार सूत्रों के आन्दोलन की भी आँधी सी चल पड़ी। उनका कथन पूर्णतया सत्य हुआ।

जो लिखेगा, वही संदर्भ बनेगा

      श्री चन्द्रभूषण जी कहते थे कि जब प्रज्ञा पुराण व अन्य पुस्तकों के विषय में चर्चा हो रही थी, तब गुरुवर ने कहा- ‘‘जो इसमें लिख दिया जायगा वही संदर्भ बन जायगा। अतः आपस में 3- 4 लोग मिलकर निर्धारित कर लें।’’ वे मुझे चन्द्रशेखर कहते थे। उन्होंने कहा, ‘‘चन्द्रशेखर, मुझे तो पढ़े हुए बहुत समय हो गया, पर तू अभी- अभी पढ़कर आया है, तू लिख।’’ मैंने कभी कलम चलाई नहीं थी। कहा, ‘‘गुरुदेव कैसे होगा? मैंने तो कभी कलम नहीं चलाई।’’ वे बोले, ‘‘हो जाएगा और उस दिन से शक्ति प्रवाह ऐसा बरसा कि खूब कलम चलने लगी।’’

      वे हँसते और प्रशंसा भी करते। मिशन के विस्तार की, ब्रह्म दीप यज्ञों की, अश्वमेध यज्ञों की योजना बनी। वे कहते, ‘‘पैसा आयेगा देखना, आसमान तोड़कर, जमीन फोड़कर आयेगा। आवश्यकता के समय कभी भी पैसे की कमी नहीं पड़ेगी।’’

(ज्ञातव्य है कि श्री चंद्रभूषण मिश्रा जी के विषय में गुरुदेव ने उनके शान्तिकुञ्ज आने के पूर्व ही कार्यकर्ताओं से कहा था कि मेरा एक बेटा आने वाला है जो संस्कृत का बड़ा विद्वान् है। उसका बायाँ हाथ कमजोर है, वो तुम लोगों को संस्कृत सिखायेगा। उन्हीं के द्वारा गुरुदेव ने अश्वमेध यज्ञों का कर्मकाण्ड तैयार करवाया। सबको विधिवत् मंत्रोच्चारण सिखलाया। यहाँ तक कि देवकन्याओं की कक्षायें भी वे ही लेते थे।)

स्टीकर छाप

   श्री बसंत भाई जरीवाला, (जो गायत्री ज्ञान मंदिर कांदीवली के नाम से स्टीकर निर्माता हैं) ने बताया कि किस प्रकार गुरुदेव ने स्वयं इसे प्रारंभ कराया।
मुम्बई में मेरा गजी १६ साड़ी वाला छपाई का प्रेस था। गुरुजी ने कहा, ‘‘इसे बंद कर, स्टीकर छाप। नफे में रहेगा।’’

‘‘मैंने पहले लगे बोर्ड को उतरवाकर गुरुदेव के कहे अनुसार- गायत्री ज्ञान मंदिर कांदीवली का बोर्ड लगाया। तब से स्टीकर छाप रहा हूँ। गुरुदेव दो बार, सन् 1966 व 1972 में स्वयं हमारे घर पधारे थे। दूसरी बार जब आए, तब उन्होंने स्वयं अपने हाथ से लिखा- ‘‘25 वर्ष की सेवा के उपलक्ष्य में उज्ज्वल भविष्य हेतु आशीर्वाद।’’

जिसे मैंने बड़े साइज में फ्रेम करा कर आज भी अपने कमरे में रखा है।

अब की बेटा होगा

सावित्री जीजी, आ० वीरेश्वर उपाध्याय जी की बहन

    सन् 64 में गुरुदेव भिलाई आये। मैं अपनी दोनों बेटियों को मिलाने ले गई। बड़ी 6 वर्ष की थी छोटी दो वर्ष की। परिचय के दौरान पूछा- ‘‘दो बेटियाँ हैं?’’ थोड़ी देर चुप रहे फिर कहा, ‘‘अब की बेटा होगा।’’ इसके तीन वर्ष बाद पुत्र हुआ। वह जब छह माह का था तब रायपुर में वे पुनः आये। हम लोग बच्चे को आशीर्वाद दिलाने ले गये। उन्होंने बहुत आशीर्वाद दिया व कहा, ‘‘जाकर नामकरण संस्कार सम्पन्न करा लें।’’

चूंकि बच्चा उस समय अस्वस्थ था अतः देर तक बैठ नहीं पायेंगे कहने पर उन्होंने स्वयं नामकरण संस्कार कर दिया और कहा, ‘‘इसका नाम ज्योति प्रकाश रखना यह चारों तरफ प्रकाश फैलायेगा। बहुत भाग्यवान है तुम सबका बहुत ध्यान रखेगा।’’ सचमुच आज वह पूरे परिवार का बराबर ध्यान रखता है।

सूर्य की ओर देखकर समाधान किया

    राजनांदगाँव के श्री बुधराम साकुरे जी के ससुर तीर्थ यात्रा के लिए निकले थे। उनके घर एक समाचार मिला कि जिस नाव में बैठकर वे नदी पार कर रहे थे, वह नाव डूब गयी है। उनका कुछ अता- पता नहीं है। वे जीवित भी हैं कि नहीं, कुछ ज्ञात नहीं है। अब घर वाले बहुत परेशान थे कि उनका पता कैसे लगाया जाय? संयोग से उन दिनों पूज्यवर राजनांदगाँव व दुर्ग (छ.ग.) गये हुए थे। साकुरे जी ने घर वालों से कहा- ‘‘आप सब परेशान न हों, हम अपने गुरुजी से उनके बारे में पूछेंगे। वे सब समाधान कर देंगे।’’

उन्होंने दुर्ग आकर गुरुजी का पता किया कि वे कहाँ हैं। किसी ने बताया कि वे स्टेशन पहुँच चुके हैं। वे रेलवे स्टेशन आकर पूज्यवर से मिले। आते ही चरण स्पर्श कर गुरुजी से कहने लगे- ‘‘गुरुजी! घर में एक समस्या है। हमारे ससुर जी तीर्थ यात्रा को गये थे। ऐसा सुनते हैं कि उनकी नाव डूब गयी। घर वाले बहुत परेशान हैं।’’ पूज्यवर ने एक क्षण के लिए सूर्य की ओर निहारा। फिर बोले, ‘‘बेटा! बिल्कुल चिन्ता न करो। वे कल सुबह तक यहाँ आ जायेंगे।’’ उन्हें स्वयं को तो पूर्ण विश्वास था कि पूज्यवर का कोई कथन असत्य नहीं हो सकता। पर अपने ससुराल पक्ष को कैसे समझाएँ जो अभी परिवार से जुड़े नहीं थे। उन्होंने कहा, ‘‘आप लोग सुबह तक धैर्य रखो।’’

सुबह होते ही स्टेशन से ससुर जी का फोन आ गया, कि मैं यहाँ पहुँच गया हूँ। मैं रिक्शा से घर आ रहा हूँ। घर पहुँच कर उन्होंने बताया कि नाव तो डूबी थी, पर बचाने वाले परमात्मा ने बचा लिया। जैसा कि कहा गया है, ‘जाको राखे साइयाँ, मार सके न कोय।’ साकुरे जी का विश्वास है कि पूज्य गुरुदेव ने ही हमारे ससुर जी को बचा लिया।

साकुरे जी बताते हैं कि वे स्वयं नशे में डूबे रहते थे। उनकी शराब किसी भी भाँति उनसे छूट नहीं रही थी। पूज्य गुरुजी ने ही उनका जीवन बदला।
गुरुजी ने उन्हें जीवन की कीमत समझायी, और जीवन को यूँ ही आग लगाते रहने से बचा लिया। जीवन में कुछ विशिष्ट कार्य करवाकर जीवन को सफल एवं सार्थक बना दिया। शान्तिकुंज से पूज्यवर ने उन्हें देश में विभिन्न कार्यक्रम सम्पन्न करवाने के लिए टोलियों में भी भेजा।

मैं स्वयं सूर्य रूप हूँ

   यह प्रसंग सन् 1982 का है। दिल्ली के एक प्रोफेसर को कैंसर हुआ। वे गुरुजी से जुड़े तो थे पर बुद्धिवादी होने के नाते गुरुजी की परीक्षा लेना चाहते थे। अतः पूज्यवर से मिलने के लिये वे शान्तिकुञ्ज तो आये किंतु नीचे ही प्रतीक्षालय में बैठे रहे जबकि उस समय उनसे मिलने हेतु कोई भी कभी भी जा सकता था।

थोड़ी देर में गुरुदेव ने स्वयं ही उन्हें बुलवा लिया व शिकायत भरे लहजे में कहा, ‘‘बेटा! तुझे कैंसर है और तूने बताया तक नहीं।’’

वे गुरुजी के चरणों में गिर पड़े और सुबकते हुए बोले, ‘‘गुरुजी, चाहता था कुछ दिन ठीक से जी लूँ।’’ गुरुजी ने कहा, ‘‘ अरे बेटा! कुछ नहीं है, तू बिल्कुल ठीक है। जा! तुझे कुछ नहीं होगा। बेटा! मैं स्वयं सूर्य स्वरूप हूँ, ब्राह्मण हूँ जो निरंतर सभी को देना ही जानता है।’’

   श्रद्धेय डॉ. प्रणव भाई साहब बताते हें कि मैं उस समय ऊपर ही था। डॉक्टर बुद्धि। मैंने भी उनका पता नोट किया कि देखें, आखिर होता क्या है? सन् 1982 से 1991 तक वे बिल्कुल स्वस्थ रहे। कैंसर का कहीं अता- पता भी नहीं था।

तेरा घाटा मैं पूरा करूँगा

श्री उमा शंकर चतुर्वेदी, बिलासपुर

   बिलासपुर के एक कार्यकर्त्ता के घर बँटवारे की बात उठी। छोटा भाई बहुत कुछ लेने पर अड़ा हुआ था। बड़े ने गुरुजी से कहा, ‘‘गुरुजी क्या करूँ? छोटा भाई मान ही नहीं रहा। कहता है, सब लूँगा।’’

   पूज्यवर ने एक क्षण सोचा फिर कहा, ‘‘बेटा घर व जर्म्सकिलर की दुकान छोड़कर, वह जो लेता है दे दे। तेरा घाटा मैं पूरा करूँगा।’’ गुरुजी की बात मानकर शिष्य ने पूज्यवर के कथनानुसार छोटे भाई को, जो उसने माँगा, दे दिया। कुछ दिनों बाद घर में निर्माण हेतु खुदाई हुई। जमीन में एक अलमारी निकली। उसमें उस समय साठ तोला सोना व कुछ किलो चाँदी निकली। इस प्रकार उन्होंने अपने प्रिय शिष्य का सारा घाटा पूर्ण कर दिया।

चिंता मत करना

   अन्नपूर्णा साहू के पिताजी पोरथा, जिला- सक्ती के सक्रिय कार्यकर्त्ता थे, अक्सर शान्तिकुञ्ज आते- जाते रहते। एक दिन पूज्य गुरुदेव ने उनसे पूछा ‘‘बेटे, तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’’ बोले, ‘‘गुरुजी, दो बच्चे हैं। एक लड़का, एक लड़की।’’ पूज्यवर वहीं से अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देख रहे थे कि उनकी पत्नी के गर्भ में भी एक बच्ची है। बोले, ‘‘बेटा! तुम तीन- तीन बच्चों को कैसे पालोगे, इसकी चिंता मत करना।’’ फिर पूज्य गुरुदेव ने कहा कि बेटा कुछ गड़बड़ नहीं करना। (गर्भ से छेड़छाड़ नहीं करना) ‘‘बेटा, तू नहीं, उसे हम पालेंगे। वो हमारी बच्ची है।’’ जबकि उन्होंने सोचा हुआ था कि अब दो बच्चे ही पर्याप्त हैं। इस गर्भस्थ शिशु का एबार्शन करा देंगे। ऐसे अंतर्यामी थे गुरुदेव। सबके मनों को पढ़ लेते थे, और सब समाधान कर देते थे।

   एक साल बाद उसी से शादी होगी

पं. लीलापत शर्मा जी सुनाया करते थे कि सन् 65 के पूर्व की बात है। मैं एक बार पूज्यवर से मिलने ग्वालियर से मथुरा आया था। चूँकि तब तक मैं गुरुवर के बहुत निकट आ चुका था, अतः गुरुदेव ने कहा, ‘‘एक शादी का निमंत्रण है, तुम चले जाओ।’’

मैंने सोचा, ‘‘गुरुदेव के प्रतिनिधि रूप में जाना है, तब तो पाँचों उँगली घी में हैं।’’ सहर्ष तैयार होकर आगरा चला गया। वहाँ पता चला लड़की गुरुजी की एकनिष्ठ साधिका है। किन्तु विवाह के समय अचानक अनहोनी घट गई। बारात आई। अचानक लड़के की तबीयत बहुत खराब हो गई, वह बेहोश हो गया। दरवाजे पर दोनों परिवारों में न जाने क्या कहा सुनी हुई। बारात दरवाजे से वापस चली गई।

मैं स्तब्ध था। गुरुजी का प्रतिनिधि जो ठहरा। मेरी बोलती बंद थी। कहाँ तो मैं घी में ऊँगली डालने की सोच रहा था, कहाँ मेरी फजीहत हो रही थी। लड़की ने मुझसे प्रश्र किया- ‘‘बताइये, अब मैं क्या करूँ?’’

   वहाँ तो इज्जत का सवाल था। अतः जैसे- तैसे उसे ढाँढस दिया। कहा, ‘‘बेटी, भगवान की इच्छा स्वीकार करो। उन्होंने कुछ अच्छा ही सोचा होगा।’’
मथुरा आकर गुरुजी पर सारा गुस्सा उतारा। ‘‘क्या मुझे फजीहत कराने भेजा था?’’ बहुत झल्लाया।

गुरुजी शांत रहे। जब मेरा गुस्सा ठंडा हुआ। मैं अपनी पूरी बात कह चुका तो उन्होंने शांत स्वर में कहा। ‘‘एक साल के बाद उसकी वैधव्य दशा थी। अतः शादी रोक दी। उस लकड़ी से कहो, अपनी शादी का सामान उठा कर रख दे। एक साल बाद उसी से शादी होगी।’’

मैंने यह बात लड़की से कह दी। सचमुच लड़का कुछ महीनों बाद बहुत बीमार हुआ। मुशिकल से बचा। बाद में माता- पिता दूसरी जगह शादी तय कर रहे थे। किन्तु लड़के ने जिद की व कहा कि उस लड़की की तप- निष्ठा से ही मैंने नव जीवन पाया है, अतः उसी लड़की से शादी करूँगा। ठीक एक साल बाद उस लड़की का उसी लड़के के साथ विवाह हुआ। मैं गुरुदेव के भविष्य दर्शन पर नत मस्तक था।

प्रतिदिन डायरी लिखना

श्रीमती प्रमिला बैगड़

   कृष्ण के ग्वाल- बाल एवं राम के रीछ- बन्दरों को यह मालूम नहीं था कि हम जो कार्य कर रहे हैं, वह कभी इतिहास के पन्नों पर अमर होगा। इसी प्रकार हम सब भी नहीं जानते थे कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं, जो उनके साथ जुड़ कर कार्य कर रहे हैं। किन्तु वे तो सर्वज्ञ थे। भूलना मनुष्य का स्वभाव है, आदत है। अतः समय को याद रखने के लिये उन्होंने गोष्ठी बुलाई और कहा, ‘‘सभी कार्यकर्ता अपनी दैनिक दिनचर्या लिखें।’’ सुबह से शाम तक कहाँ, क्या काम किया, वह लिखें व हमारे पास जमा करें।

हम सब अपनी दिनचर्या एवं गुरुवर के साथ किये सभी कार्य लिखते व प्रणाम करने जाते तो अपनी डायरी गुरुजी को दे आते।
 
दूसरे दिन प्रणाम करने जाते तो उसे ले आते व दूसरी डायरी दे आते। गुरुदेव कहते- ‘‘बच्चो! अपनी- अपनी डायरी लेते जाओ।’’

हम लोग डायरी लेकर बच्चों की तरह बहुत खुश होते, क्योंकि डायरी में ‘सही’ का निशान जो मिलता। हमें यह देख कर अतीव प्रसन्नता होती कि गुरुजी ने हमारी डायरी पढ़ी है।

इस प्रकार उन्होंने अनेकों घटनाओं को डायरी में अंकित करवा कर इतिहास रचने की पूर्व भूमिका बना दी।

मेरे मना करने के बाद भी चली गई

श्री जे. पी. कौशिल,

   शान्तिकुञ्ज में जब एक वर्षीय कन्या प्रशिक्षण सत्र आरंभ हुआ। तब मेरी बड़ी लड़की कल्पना भी सन् ७८- ७९ के सत्र में शामिल हुई थी।

माघ पूर्णिमा के पहले दिन कल्पना जब किसी कार्यवश परम वंदनीया माताजी के कमरे में गई तो गुरुजी ने उसे देखते ही कहा, ‘‘बेटा, कल तू गंगा नहाने मत जाना।’’ कल्पना ने पूछा- ‘‘क्यों गुरुजी?’’

गुरुजी ने जोर देते हुए कहा, ‘‘मैं कह रहा हूँ, तू कल गंगाजी नहीं जायेगी।’’ ‘‘ठीक है गुरुजी, आप कहते हैं तो नहीं जाऊँगी।’’ कल्पना ने कहा। गुरुदेव ने पुनः कहा, ‘‘हाँ, मैंने कह दिया, कल तू गंगाजी नहीं जायेगी।’’ इस प्रकार उन्होंने तीन बार उसे गंगा नहाने से मना किया।

   दूसरे दिन उसकी सहेलियाँ जो एक साथ कमरे में रहती थीं, उसे गंगाजी चलने के लिये जिद करने लगीं। कल्पना ने कहा कि मुझे गुरुदेव ने गंगा नहाने से मना किया है, इसलिये मैं नहीं जाऊँगी।

सहेलियों ने पुनःजिद की कि अच्छा, नहाने के लिए ही तो मना किया है। साथ चलो बाहर बैठे रहना। नहाना मत।

   कल्पना को बात जँच गई। होनी को कौन टाल सकता था। अतः वह गंगा जी चली गई। गंगा जी पहुँच कर वह किनारे बैठ गई। उसकी सहेलियाँ नहा रही थीं। उनमें से कुछ को लगा ‘‘बेचारी अकेली बैठी है।’’

और 3- 4 सहेलियाँ आकर उसे जबर्दस्ती खींच कर ले गईं। कुछ देर तो उसने भी स्नान किया। फिर अचानक ही वह बहने लगी।

उसे बहते देख, लड़कियों के होश उड़ गये और वह चिल्लाने लगीं। वहीं 4- 5 आदमी बैठे थे। उन्होंने तुरंत कल्पना को डूबने से बचाया और पानी में से बाहर निकाला। अब सभी सहेलियाँ स्वयं में अपराध बोध महसूस करने लगीं। बोलीं, ‘‘गुरुदेव अन्तर्यामी हैं। उन्होंने पहले �
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