भगवान् बुद्ध के समय में एक प्रसंग आता है कि अंगुलीमाल से जब
उनकी भेंट हुई तो अंगुलीमाल के जीवन में परिवर्तन आ गया, वह
डाकू से भिक्षुक बन गया। आम्रपाली जब उनके सम्पर्क में आई तो वह
भी अपना सर्वस्व समर्पित कर साधिका बन गयी। ऐसे ही प्रसंग
पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आने पर अनेकों लोगों के साथ घटित
हुए हैं।
पूज्य गुरुदेव का सान्निध्य पाकर, मार्गदर्शन पाकर, उनका साहित्य
पढ़कर लोगों की मान्यताओं तक में परिवर्तन आया, जिसमें सबसे बड़ा
परिवर्तन नारी समाज के प्रति जो संकीर्ण दृष्टिकोण था, उसमें आया।
लोगों ने अपने घर की बहु- बेटियों को न केवल गायत्री उपासना का
अधिकार ही दिया, बल्कि उन्हें मिशन के कार्य के लिए घर से
बाहर निकलने की अनुमति भी दी। इसके साथ ही नारी समाज के प्रति
आदर, सहयोग और सम्मान का भाव भी बढ़ा। लाखों- करोड़ों परिवारों में
नारी समाज को श्रेष्ठ जीवन जीने का अवसर मिला, जो अपने आपमें
एक बहुत बड़ी क्रान्ति है।
जो भी उनके सम्पर्क में आया, उसके चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार
में असाधारण परिवर्तन आता चला गया। परिजनों ने शराब, माँस आदि
दुर्व्यसन एवं अनेकों दुर्गुणों को छोड़कर श्रेष्ठ जीवन जीने का
संकल्प किया। उनके जीवन में आये परिवर्तन को देखकर नाते-
रिश्तेदार दाँतों तले अँगुली दबाकर रह गये कि इनके जीवन में
इतना सुधार कैसे आ गया, ये तो चमत्कार ही हो गया।
श्री शिव प्रसाद मिश्रा जी,
शान्तिकुञ्ज आ जाने पर मेरी ड्यूटी प्रतीक्षालय में लोगों को
गुरुजी- माताजी से मिलाने में लगी। प्राण प्रत्यावर्तन शिविरों के
समय लोग अपने दोष- दुर्गुण निःसंकोच गुरुजी के सामने प्रकट करते
थे, कोई- कोई लिखकर भी देते थे। किसी बहुत बड़ी गलती पर पहले वे
नाराज होते, फिर बड़े वैज्ञानिक ढंग से प्रायश्चित भी बताते थे।
जैसे जितना बड़ा गड्ढा खोदा है, उतनी ही मिट्टी लाकर भरना होगा।
जितना किसी को नुकसान पहुँचाया है, शारीरिक, मानसिक या नैतिक, उससे
अधिक लाभ पहुँचाना होगा।
एक बार रामसुभाग सिंह नाम का एक व्यक्ति उनके पास आया। वह वैगन ब्रेकर के नाम से प्रसिद्ध था, अर्थात् रेल के वैगन ही लूट कर ले जाता था। वह अपनी कमर में हमेशा दो पिस्तौल रखता था। गुरुजी से मिलने के बाद उसने हावड़ा
में 108 कुण्डीय यज्ञ कराया तथा कितने ही अखण्ड ज्योति के
सदस्य केवल धौंस के बलबूते पर बनाये। उसने डाका डालना छोड़ दिया
और सुधर गया।
गुरुजी के पास जब आता तो कहता, ‘‘गुरुजी मैं आपसे क्या कहूँ, आप तो सब जानते हैं।’’
तब गुरुजी कहते कि मैं यदि तेरे अंदर देखूँगा तो मुझे बहुत
कुछ दिख जायेगा, इसलिये तू वही बता जिसका समाधान तू चाहता है।
वाड़िया बापू - डाकू से सन्त
बरवाड़ा बावीसी गाँव के रहने वाले वाड़िया
बापू इतने खूँखार डाकू थे कि पूरे सौराष्ट्र में उनका आतंक
छाया हुआ था। उनके गाँव में गायत्री परिवार का कार्यक्रम होने
वाला था। कार्यकर्तागण कार्यक्रम के लिए चन्दा माँगने डरते- डरते
उनके घर पहुँचे। उन्होंने हड़काकर सबको भगा दिया। वे नशे में धुत्त
पड़े रहते थे। माँस, मदिरा आदि सभी दुर्गुण उनके अंदर थे। कार्यकत्ता एक छोटी सी पुस्तिका उनके घर में छोड़ आये।
अगले दिन वह पुस्तिका जब उन्होंने पढ़ी तो उन विचारों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने कार्यकर्त्ताओं
के पास जाकर उनसे पूज्यवर की कुछ पुस्तकें ले लीं। उन्हें जब
गहराई से पढ़ने लगे, तो उनके विचारों में बड़ा बदलाव आने लगा।
पूज्य गुरुदेव के सौराष्ट्र दौरे में जब वे उनके सम्पर्क में
आये, तो पूरा जीवन ही बदल गया।
उन्होंने शराब, माँस आदि सब दुर्गुण छोड़ दिये, और अपना जीवन
पूज्यवर का कार्य करते हुए बिताने का संकल्प लिया। आज वे अपने
क्षेत्र में एक समर्पित एवं प्रतिष्ठित कार्यकर्ता के रूप में
जाने जाते हैं। सभी उन्हें संत कहते हैं।
वह मुर्दा खाते हैं
श्री देवी सिंह तोमर
तोमर
जी बताया करते थे कि कैसे उनके जीवन में गुरुजी के केवल एक
प्रवचन से ही आमूल- चूल परिवर्तन आ गया। वे बताते थे कि ‘‘मैं टैलीफोन विभाग में सुपरवाईजर था। मैं खूब माँस खाता था व शराब पीता था। एक दिन गायत्री परिवार के कुछ लोग आये व मुझसे कहा कि गुरुजी आने वाले हैं। राजासाहब का एक महल राजगढ़
में शक्तिपीठ के लिये मिल गया है, उसको ठीक करने व सजाने के
लिये हम चंदा इकट्ठा कर रहे हैं। गायत्री परिवार और गुरुजी से
मैं परिचित था। मैंने उन्हें 1500 रुपये दिये। उन्होंने मुझे
कार्यक्रम में बुलाया। मैंने कह दिया कि मैं शराब पीकर ही आऊँगा
और सचमुच मैं शराब पीकर ही गया। मैंने गुरुजी का भाषण सुना।
गुरुजी ने कहा, ‘‘जो
शराब पीता है वह अपना चरित्र सुरक्षित नहीं रख सकता।
उसके लिये
आत्मीयता, प्रेम, उत्तरदायित्व और परिवार कोई मायने नहीं रखते।’’ मेरा दिमाग ठनका। मैं सामने ही बैठा था। गुरुजी फिर बोले, ‘‘जो
माँस खाते हैं, वे मुर्दा खाते हैं, क्योंकि जब उसे काटा जाता
है तो उसके टुकड़े बिलखते हैं और उस दर्द चीत्कार के हार्मोन्स उसमें मिले होते हैं और मुर्दा तो वह हो ही जाता है।’’
फिर तो मुझे ऐसा लगा कि आज मैंने जो माँस खाया है, शराब पी
है, उसको उँगली डालकर उल्टी कर दूँ। उसके बाद मैंने कभी मांस और शराब को नहीं छुआ। जब मैं रिटायर हो गया तो एक रात दो बजे नींद में गुरुजी ने मुझे एक थप्पड़ मारा और कहा ‘‘उठ! मेरे साथ चल।’’ मैंने पत्नी को जगाया और कहा, ‘‘अब अपन शान्तिकुञ्ज चलते हैं और फिर हम लोग शान्तिकुञ्ज आ गये।’’
जोरा सिंह का जीवन बदला
खीरी लखीमपुर जिले के श्री जोरा
सिंह कभी एक प्रसिद्ध डाकू थे। खूब नशे आदि का सेवन भी करते
थे। उनके गाँव में गायत्री परिवार द्वारा एक महायज्ञ सम्पन्न होना
था। उनकी पत्नी ने परिजनों से निवेदन किया, कि मेरे पति की
शराब आदि छुड़वा दो, तो बहुत कृपा होगी। परिजनों ने उन्हें यज्ञ
में आने हेतु भावभरा निमंत्रण दिया व सपरिवार यज्ञ में आने का
अनुरोध किया। जब वे पत्नी सहित यज्ञ में बैठे, तो उनसे बहिनों
ने कहा- ‘‘आपसे एक देव दक्षिणा माँग रहे हैं। कोई एक बुराई छोड़ दीजिये।’’ उन बहिनों ने आग्रह किया तो उन्होंने उस यज्ञ में शराब छोड़ने का संकल्प ले लिया।
बस एक छोटे से व्रत से उनका जीवन ही बदलता चला गया। धीरे- धीरे उन्होंने सभी दुर्गुण छोड़ दिये। आज वे एक सरपंच
की भूमिका निभाते हुए गाँव वालों की निःस्वार्थ भाव से सेवा
करते रहते हैं। उनकी पत्नी मिशन की बहुत समर्पित कार्यकर्ता हैं।
पूरा परिवार बदल गया
इन्दौर के डॉ. आनंद ढींगरा
बताते हैं कि शान्तिकुञ्ज आने और माताजी से मिलने के पहले तक
मेरा जीवन दिशाहीन था। मैं बिल्कुल निराश, हताश था। हमारे घर में
भी नरक जैसा वातावरण था। आये दिन माता- पिता के बीच लड़ाई- झगड़ा,
कलह- क्लेश होता ही रहता था। माँ ने कई बार आत्महत्या का प्रयास
भी किया था। हम भाई- बहन सदा इसी टेन्शन में रहते कि कहीं
दोनों में से किसी एक को खोना न पड़े। मेरा स्वास्थ
भी ठीक नहीं रहता था। मुझे भूख बिलकुल नहीं लगती थी। मेरी हालत
यह थी कि मुझे दिन भी में आधी रोटी पचाना भी मुश्किल पड़ता
था। मैं बहुत कमजोर हो गया था। मुझे लगता था मैं शायद 6 महीने
और जी पाऊँगा। इस सबका असर मेरी पढ़ाई पर भी पड़ा था।
सन् 1991 में मुझे कहीं से अखण्ड ज्योति मिली। उसे पढ़कर मुझे
लगा कि अभी उम्मीद जगाई जा सकती है। जून 1991 में मैं एक माह
के लिये शान्तिकुञ्ज आया। यहीं से मेरे जीवन में नया मोड़ आया।
मुझे लगा इससे अच्छी और कोई जगह नहीं हो सकती। मैं यहीं रह जाना चाहता था। माताजी से मिला, मैंने कहा, ‘‘माताजी, मैं यहीं आना चाहता हूँ। मुझे यहाँ बहुत अच्छा लग रहा है। मेरा यहीं काम करने का मन है।’’ माताजी ने कहा, ‘‘अभी मत आओ। पहले पढ़- लिख कर कुछ बन जाओ। तब तुम हमारे ज्यादा काम के हो जाओगे।’’ माताजी के इन शब्दों ने मेरे जीवन में आशीर्वाद से भी बढ़कर काम किया।
मेरा पूरा जीवन ही बदल गया। धीरे- धीरे घर में पूर्ण शांति हो
गई। अगले वर्ष 12वीं कक्षा में मैंने अपने शहर में टॉप
किया। मैं माता- पिता को शान्तिकुञ्ज लेकर आया। उनके जीवन में
इतना परिवर्तन आया कि आज मेरे पिता जी प्रतिदिन 8- 10 घण्टे
मिशन का ही काम करते हैं। मेरा घर नरक से स्वर्ग बन गया। आज
मैं एक प्रतिष्ठित डॉक्टर हूँ। मेरा पूरा परिवार गुरुदेव का ऋणी
है। उनके अनुदानों का ऋण तो हम सर्वस्व न्यौछावर करके भी नहीं
चुका सकते।
सीतापुर की सीता आज आपके सामने है
उत्तर प्रदेश, सीतापुर
की एक कार्यकर्ता सीता बहन जब एक मासीय युग शिल्पी सत्र कर
रही थीं तो कक्षा के दौरान नारी जागरण विषय पर चर्चा चल रही
थी। किसी प्रसंग पर वह बहुत भावुक हो गईं और कहने लगीं बहन जी
आज हमें अपने बारे में बताने का मन है। उन्होंने बताया कि मेरे
पति मुझे बहुत परेशान करते थे। शराब, गाँजा, जुआ, वेश्यागमन आदि
सभी दुर्गुण उनमें थे। मेरे साथ आये दिन मारपीट करना आम बात थी।
मैं घर में कैदियों के जैसे रहती थी।
एक बार मैं कुछ बहनों के साथ शान्तिकुञ्ज आई। माताजी को अपनी व्यथा बताई। माताजी ने मुझे भस्मी दी और कहा, ‘‘बेटी,
नियमित साधना करती रहना और चुटकी भर भस्मी को पति के भोजन
अथवा जल में मिलाकर प्रार्थना करके कि इनके सब दुर्गुण दूर हों,
प्रतिदिन देना।’’
मैंने वैसा ही किया। नियम से अपने घर में बलिवैश्व यज्ञ करती
और गुरुजी माताजी का ध्यान करते हुए, मंत्र जप करते हुए ही भोजन
बनाती, उसमें चुटकी भर भस्मी भी डाल देती। माताजी के आशीर्वाद
से मेरे पति में इतना सुधार आया कि उन्होंने सारे दुर्व्यसन छोड़
दिये। वे भी मेरे साथ उपासना- साधना करने लगे। पहले वे मुझे घर
से बाहर नहीं निकलने देते थे अब वही मुझे गुरुदेव के कार्यों
के लिये प्रेरित करने लगे।
सीता बहन की आँखों से आँसू बह रहे थे। उनकी हिचकी बँध गई। फिर थोड़ी देर बाद वो बोलीं, ‘‘कहाँ जिस सीता को घर से एक कदम बाहर रखने की इजाजत नहीं मिलती थी, वहीं वह सीतापुर
की सीता आज आपके सामने, एक माह से शान्तिकुञ्ज में है। देखिये
माताजी के आशीर्वाद का कमाल। मेरा घर स्वर्ग बन गया। मेरे पति ने
स्वयं ही मुझे एक मासीय सत्र के लिये शान्तिकुञ्ज भेजा है।’’
ऐसे हजारों प्रसंग हैं जो हमें अक्सर ही सुनने को मिलते हैं। न
केवल गुरुजी- माताजी के आशीर्वाद में बल्कि उनके साहित्य में भी
वैसी ही शक्ति है कि जीवन बदल गया। एक बार जिसने आत्मसात् कर
लिया उसका तो कायाकल्प ही हो गया।
एक नए जीवन का प्रारम्भ
राजेश अग्रवाल, कुरुक्षेत्र
सन् १९९१ में मैं जब शान्तिकुञ्ज गया, मेरा स्वास्थ्य बहुत खराब रहता था। सुल्तानपुर इंजिनियरिंग
कॉलेज में पढ़ते हुए छात्रावास के दूषित वातावरण में व गलत
संगति के कारण मुझमें अनेक बुराइयाँ जन्म लेने लगी। मेरा शारीरिक
व मानसिक संतुलन बिगड़ गया। चिकित्सकों को दिखाया तो नींद की
गोलियाँ साल भर तक खाईं। उससे क्षणिक आराम तो मिला, परंतु 24
घंटों में 16 घंटे नींद आती रहती। किसी तरह गिरते- पड़ते इंजिनियरिंग पूरी की और आर० ई० सी० कुरुक्षेत्र में प्रवक्ता के पद पर नौकरी मिली। सौभाग्य से उसी समय मैं शांतिकुंज
गुरुदेव के साहित्य से जुड़ा। एक दिन रात्रि को मुझे विचित्र
स्वप्न दिखाई दिया। एक तीव्र प्रकाश मेरे कमरे में उभरा फिर
उसमें परम पूज्य गुरुदेव प्रकट हुए और मुझसे कहने लगे, ‘‘तुम्हें मेरी योजना के क्रियान्वन में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है।’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘मैं तो कुछ नहीं कर सकता, अपने स्वास्थ्य से लाचार हूँ।’’ गुरुदेव बोले, ‘‘उसकी चिंता मत करो। समय के साथ- साथ सब ठीक हो जाएगा।’’
यह कहकर गुरुदेव चले गए। तुरंत मेरी नींद खुल गई। मैं उस समय
अपने अंदर बहुत शक्ति व ताजगी महसूस कर रहा था।
मैंने घड़ी देखी
तो दो बजकर तीन मिनट हुए थे। उस दिन के बाद मुझे फिर कभी
नींद की दवा खाने की आवश्यकता नहीं पड़ी और मेरा अधिकतर समय
गुरुदेव का साहित्य पढ़ने एवं गुरुदेव का कार्य करने में बीतने
लगा। अब मेरा गलत चिंतन धीरे- धीरे समाप्त होने लगा और दिव्यता,
पवित्रता, गुरुभक्ति के अंकुर मुझमें फूटने लगे। इसी के साथ मेरी
बीमारी समाप्त हो गई। ब्रह्मचर्य के प्रति अगाध श्रद्धा मेरे मन
में उभरी। मुझे लगने लगा जैसे मुझसे अधिक प्रसन्न व सुखी व्यक्ति
शायद ही इस दुनियाँ में कोई दूसरा हो। यदि गुरुदेव से न जुड़ा
होता तो नींद की दवा खा- खाकर अब तक मात्र २५
वर्ष की उम्र में ही परलोक सिधार गया होता। अब जीवन में यही
इच्छा है कि गुरुदेव के विचारों को अधिक से अधिक विद्यार्थियों,
लोगों तक पहुँचा दिया जाए ताकि अज्ञानता के कारण मेरी जैसी
दुर्गति किसी और की न हो।
बेटे, क्या छोड़ा ?
श्री लक्ष्मण प्रसाद अग्रवाल, बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
सन् 59 में पहली बार बिलासपुर छ.ग. में 51 कुण्डीय यज्ञ की घोषणा हुई। श्री छाजू लाल शर्मा वैद्यनाथ वाले मेरे यहाँ अनुदान लेने आए। श्रद्धापूर्वक एक सौ एक रु० दिया। रसीद देकर उन्होंने कहा, ‘‘पीला कुर्ता पहन कर यज्ञ में भाग जरूर लेना और इसके लिये कुछ गायत्री मंत्र लेखन कर लें।’’ जानकारी पाकर मैंने चौबीस सौ मंत्र लिखे, यज्ञ में भाग लिया, अच्छा लगा, श्रद्धा बढ़ती गई। एक दिन माँ से पूछा, ‘‘माँ जीवन में गुरु बनाना आवश्यक होता है क्या?’’ माँ ने कहा, ‘‘हाँ बेटे, शास्त्रों में कहा गया है कि बिना गुरु बनाये कोई भी पुण्य कार्य करने पर वे फलदायी नहीं होते।’’
उसी दिन मैंने मन में ठाना कि मैं आचार्य जी को गुरु बनाऊँगा
और सन् 70 के यज्ञ में गुरुदीक्षा ले ली पर किसी को बताया
नहीं।
दुर्व्यसन छोड़ने की बात जब गुरुदक्षिणा में कही गई तब मैंने संकल्प लिया। गुरुजी ने पूछा, ‘‘बेटे, क्या छोड़ा?’’ मैंने जवाब दिया, ‘‘सिगरेट व तम्बाकू।’’ इसके तत्काल बाद गुरुदेव ने ‘एवमस्तु’
कहा। मैं चुप रहा, क्योंकि मुझे लगता था यह छूट नहीं सकता। इस
लत को छोड़ने के लिये मैंने डाक्टरों की मदद भी ली थी, पर सफलता
नहीं मिली थी।
गुरुदेव के पास से लौटने के बाद न जाने क्या हुआ मैं तम्बाकू खा ही नहीं सका और मुझे
लगने लगा जैसे सिगरेट में कोई टेस्ट ही नहीं रह गया है। अतः
चमत्कारिक ढंग से दोनों ही छूट गये। मुझे आश्चर्य हुआ व गुरुदेव
के प्रति मेरी श्रद्धा निरन्तर बढ़ती रही।
माताजी ने स्वप्न में व्यसन छुड़ाये
सीताराम ग्रोवर मोदीनगर (यू.पी.)
मैं बहुत ही शराब पीता था। बड़ी विस्फोटक स्थिति थी मेरी। एक
रात मैंने स्वप्न में माताजी के दर्शन किये। तब तक मैं माताजी
से कभी मिला नहीं था। माताजी ने दर्शन दिया और मुझे शराब न
पीने के लिए कहा और हरिद्वार आने का निर्देश दिया। सौभाग्य से
ठीक कुछ दिन बाद मैं पत्नी सहित हरिद्वार आया और शान्तिकुञ्ज
पहुँचा। वहाँ जब मैंने माताजी के दर्शन किए तो सबकुछ बिल्कुल
वैसा ही पाया जैसा मुझे सपने में दिखाई दिया था। मैं देखकर
हैरान रह गया। उस दिन से मैंने शराब पीना छोड़ दिया। अब बहुत खुश
हूँ।