महायोगी अरविंद

गिरफ्तारी और कारागारवास-

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अब श्री अरविंद स्वतंत्रता के संदेश का नगर- नगर में प्रचार करने लगे। कलकत्ता वापस आने पर उनका बहुत धूमधाम से स्वागत किया गया। इन दिनों भाषण देते समय वे आँखे बंद करके सोच- विचार करना छोड़ देते थे और जो कुछ आवाज स्वभावतः आत्मा में से निकलती थी, उसी को श्रोताओं के सामने प्रकट कर देते थे। ये भावनाएँ ऐसी होती थीं जैसे 'डायनमो ' चलने से विद्युत्- धारा की उत्पत्ति होती है। श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते थे और उन पर सनसनी भरा प्रभाव पड़ता था। उनको ऐसा जान पड़ता था कि वे किसी राजनैतिक नेता का नहीं, वरन् किसी प्राचीन ऋषि या देवदूत का उपदेश सुन रहे हैं।

देश में चारों ओर उत्तेजना के वातावरण की वृद्धि और जनता में राजद्रोही भावों का प्रसार होते देखकर सरकार ने जबर्दस्त दमन करके इस आंदोलन को कुचल डालने का निश्चय कर लिया। वदेमातरम कहने पर अनेक बालक पीटे जाने लगे, स्वदेशी वस्त्र धारण करने वालों को चाहे जब अपमानित किया जाने लगा। ऐसी घटनाओं से आतंकवादी नवयुवकों को जोश आ गया और उन्होंने एक अंग्रेज जज की गाड़ी पर बम फेंक दिया। फेंकने में कुछ भूल हो गई, जिससे जज के बजाय दो अन्य व्यक्ति मारे गये। इस घटना से देश भर में तहलका मच गया और पुलिस राजनीतिक कार्यकर्ताओं के पीछे पड़ गई। वारींद्र का बम का कारखाना पकड़ा गया और उससे किसी प्रकार का संबंध न होते हुए भी श्री अरविंद को भी गिरफ्तार करके रस्सी से बाँधकर हवालात में पहुँचा दिया गया। उनके साथ इस तरह का अपमानजनक व्यवहार करने का विरोध प्रदेश के अधिकांशगणमान्य व्यक्तियों ने किया और सरकार की निंदा की।

यह मुकदमा पूरे एक वर्ष तक चलता रहा। श्री अरविंद जैसे विश्व- विख्यात विद्वान और आध्यात्मिक व्यक्ति के इसमें अभियुक्त होने से उसका महत्व और भी बढ़ गया। सरकार की तरफ से इस बात की बेहद कोशिश की गई कि उनको दोषी सिद्ध करके सजा दे दी जाए। इसलिए सरकारी बैरिस्टर नार्टन ने अदालत में श्री अरविंद के विरूद्ध बहुत- सा दोषारोपण किया, पर वे स्वयं इस विषय में बिल्कुल उदासीन रहे। उन्होंने आंतरिक प्रेरणा से इसका पूरा- पूरा भार एक नवयुवक वकील चितरंजनदास- जो बाद में सी० आर० दास के नाम से देश के एक महान् नेता के रूप में प्रसिद्ध हुए, के ऊपर छोड़ दिया था और स्वयं अपना अधिकांश समय योग- साधना में लगाते रहे।

अंत में मुकदमे की कार्यवाही समाप्त हुई और श्री अरविंद की तरफ से श्री चितरंजन ने जज को संबोधन करते हुए अपनी बहस के अंत में (१४) कहा- आपसे मेरी अपील है कि एक लंबे समय के बाद जब यह विवादशांत हो जायेगा और यह कष्टकर परिश्रम और आंदोलन बंद हो जायेगा तथा अभियुक्त की जीवन- लीला भी समाप्त हो जायेगी, तब इनकी पूजा एक देशभक्त कवि के रूप में होगी। इनका सम्मान एक राष्ट्रदूत और मानवता के प्रेमी के रूप में होगा और जब इनका अवसान हुए बहुत दिन हो जायेंगे, तब शब्द न केवल भारत में ध्वनित होंगे, बल्कि दूर के देशों और समुद्र पार तक गूँजते रहेंगे। इसलिए मेरा निवेदन है कि आज ऐसे ऊँचे दर्जे का व्यक्ति न सिर्फ अदालत के सामने खड़ा है, इस तथ्य को दृष्टीगोचररखकर न्यायाधीश को सच्चा न्याय करना चाहिए। कहना न होगा- इन शब्दो का प्रभाव जज की अंतरात्मा पर हुआ। जज ने श्री अरविंद को 'बेकसूर्' बतलाया और उनको मुक्त कर दिया। शेष ३४ अभियुक्तों को आजन्म काले पानी से लेकर लंबी कैद की सजाएँ दी गई। राजनीति का त्याग और अध्यात्म का प्रचार

अभियोग समाप्त होने पर जब श्री अरविंद जेल से बाहर आये, तो उन्होंने देखा कि देश की दशा बिल्कुल बदल गई है। सरकार ने भारी दमन- चक्र चलाकर बोलने, लिखने, प्रचार करने पर रोक लगा दी थी और सभीमुख्य नेताओं को जेल में बंद कर दिया था। वंदेमातरम् का प्रकाशन भी बंद हो गया था। इसलिए उन्होंने अपने विचारों के प्रकाशन के लिए अंग्रेजी में कर्मयोग और बंगला में धर्म नामक साप्ताहिक- पत्र प्रकाशित करने आरंभ किए। इन पत्रों में वे राजनीति तथा अध्यात्म का समन्वय करके बहुत ऊँचे रूप में प्रकट करते थे। उन्होंने लिखा- कर्मयोग और धर्म ही मानव- जीवन का सार है, वही सच्ची राजनीति है और वही गीता का उपदेश है।यद्यपि देश की अवस्था और आवश्यकता को समझकर उनको राजनीति पर विचार करना पड़ता था, पर वे छोटे- बड़े सभी विषयों में आध्यात्मिकता का ध्यान रखना आवश्यक समझते थे। वह धर्म और अध्यात्म से शून्य राजनीति को मानवता के लिए अकल्याणकारी मानते थे, क्योंकि उसका अंतिम परिणाम कलह, संघर्ष और शत्रुता में ही निकलता है |

शिक्षा में भी वे अध्यात्म का प्रवेश अनिवार्य मानते थे। उन्हीने योरोप की ऊँची से ऊँची शिक्षा को प्राप्त करके देख लिया था कि उसकी नींव भौतिकता पर रखी है, इसलिए सांसारिक दृष्टी से वैभव और चमक- दमक प्राप्त कर लेने पर भी उसमें शाश्वत कल्याण और शांति प्रदान करने की शक्ति नहीं है। उसके कारण संसार में स्वार्थयुक्त संघर्ष की सृष्टि होती है और मनुष्य ऊँचे धरातल पर पहुँचने के बजाय साधारण श्रेणी की सफलताओं में ही लिप्त रहता है। इसके विपरीत भारत की प्राचीन शिक्षा- प्रणाली का लक्ष्य ब्रह्मचर्य और योग द्वारा आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त करना बताया गया था। इसी के प्रभाव से उस समय भारतवर्ष इतनी उच्च पदवी को पहुँच गया था कि कोई अन्य देश उसकी समता नहीं कर सकता था। श्री अरविंद ने भी वर्तमान शिक्षा प्रणाली को उसी ओर मोड़ने की सलाह दी। उन्होंने प्राचीन भावनाओं को आधुनिक परिस्थितियों के अनुकूल रूप में परिवर्तित करके कार्यान्वित करने पर जोर दिया।

श्री अरविंद का विश्वास था कि अंतरात्मा की सत्ता सर्वव्यापी है और जड़- जगत् के पदार्थ भी उससे पृथकनहीं हैं। इसलिए वे यह नहीं कहते थे कि प्राचीन काल की तरह कुश के आसन पर बैठकर पढ़ना ही धर्मानुकूल है और कुर्सी- मेज पर बैठकर पढ़ना- लिखना अधोगति का कारण है। उनके मतानुसार आत्म- शक्ति ही सर्वप्रधान है और वहीं प्रत्येक पदार्थ को भले या बुरे रूप में अनुप्रणित कर सकती है। उन्होंने कर्मयोगिन् में लिखा था- केवल अंतरात्मा ही हमें बचा सकती है। हम अपने हृदय को महान् और स्वतंत्र बनाकर ही सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से बड़े और स्वाधीन बन सकते है। जब भारत अपनी खोई हुई जातीयता प्राप्त कर लेगा, तो वह संसार में मानव परिवार में अधिक पूर्ण और विशाल जीवन का अधिकारी बन सकेगा।

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