महायोगी अरविंद

जीवन का मार्ग परिवर्तन

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इस तरह सन् १८६३ तक इक्कीस वर्ष की आयु में अरविंद ने इंगलैड के कॉलेजों की सब पढ़ाई समाप्त कर डाली। अंग्रेजी पर तो उनका ऐसा अधिकार था कि उसमें बढ़िया कविता की रचना कर डालते थे। इतना ही नहीं, लैटिन और ग्रीक भाषाओं में काव्य रचना की शक्ति भी उनको प्राप्त हो चुकी थी। पर योरोप की भाषाओं का इतना अधिक ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी किसी भारतीय भाषा को वे अभी तक नहीं बोल सकते थे। आई ०सी० एस० की परीक्षा के लिए उनको बंगला भाषा सीखनी पड़ी थी, पर उसमें उनका ज्ञान बहुत टूटा- फूटा था, जैसा कि विदेशी लोग भारत वर्ष में आकर किसी प्रकार हिंदी बोलकर काम चला लेते हैं। उनके पिता उनको पक्का अंग्रेज बनाना चाहते थे और जन्म से अब तक वे अंग्रेजी वातावरण में ही रहे थे। उनका सोचना, विचारना, बोलना, लिखना, पढ़ना सब अंग्रेजी में ही होता था। ऐसी परिस्थिति में रहकर और अंग्रेजी राज्य के घोर विरोधी और भारतीय क्रांन्ति के प्रमुख नेता के रूप में प्रगट हुए, क्या यह एक चमत्कार नहीं था?

दूसरी आश्चर्य की बात यह भी थी कि इक्कीस वर्ष तक यद्यपि उन्होंने योरोपियन भाषाओं तथा वहाँ के साहित्य में बहुत योग्यता प्राप्त कर ली थी, पर बाद में जिस आध्यात्मिक और दार्शनिक क्षेत्र में प्रविष्ट होकर उन्होंने विश्वव्यापी कीर्ति प्राप्त की, उसका उस समय तक कहीं चिन्ह भी नहीं था। उस समय उन्होंने दार्शनिक विषयों सें संबंधित केवल दो- एक पुस्तकें प्लेटो की पढ़ी थीं। इन सब विषयों का अध्ययन उन्होंने भारतवर्ष आकर ही किया और तभी संस्कृत भाषा को भी सीखा।जैसा हम आरंभ में बतला चुके हैं कि अरविंद के पिता अन्य लोगों की तरह पूजा- पाठ करने वाले धार्मिक व्यक्ति नहीं थे, पर दया, परोपकार उदारता की द्रुष्टि से वे बहुत उच्च कोटि के व्यक्ति थे, इन कार्यो में वे इतना अधिक खर्च कर डालते थे कि कभी- कभी अपने लड़कोकी पढ़ाई के लिए खर्च भेजने में भी असमर्थ हो जाते थे। इसके कारण तीनों भाइयों को अनेक बार बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। अरविंद और उनके दोनों भाई अक्सर जाड़ों में बिना कोट के रह जाते और कभी- कभी उन्हें पूरे भोजन से भी वंचित रहना पड़ता था। उस समय वे पाव रोटी, चाय और कुछ सूखी चीजें खाकर ही काम चलाते थे।

अंतिम दिनों में श्री अरविंद का संपर्क कुछ ऐसे भारतीय युवकों से हो गया, जिन पर योरोप के क्रांतिकारी विचारों का प्रभाव पड़ चुका था और इसीलिए उनको अपने देश की पराधीन अवस्था खटकने लगी थी। इनमें से कुछ युवक जो बहुत गर्म विचारों के थे। वे अपने सिद्धान्तों के अनुसार उसी समय कोई कार्य आरंभ करने पर जोर देने लगे, फलस्वरूप लंदन में ही एक संस्था की स्थापना की गई,जिसका नाम "लोटसएंड डैगर "(कमल और कटार )था। इसके प्रत्येक सदस्य को इस बात की प्रतीज्ञा करनी पड़ती थी कि- वह कोई ऐसा कार्य करेगा, जिससे भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हो सके। पर यह सभा कोई क्रियात्मक कदम न उठा सकी, यद्यपि उसके श्री अरविंदजैसे सदस्यों ने व्यक्तिगत रूप से उस शपथ को अच्छी तरह पूरा करके दिखा दिया।

जिस समय अरविंद अपना अध्ययन समाप्त करके भारत लौटने की तैयारी कर रहे थे, उसी समय अपने आप उनके लिए जीविकोपार्जन की व्यवस्था भी हो गई। बड़ौदा के महाराज सयाजीराव उन दिनों लंदन गये हुए थे। वहाँ पर सुप्रसिद्ध भारत हितैषी सर हेनरी काटन के भाई श्री जेम्स काटन से बातचीत होने पर जब उनको यह ज्ञात हुआ कि अरविंद नाम का एक बड़ा प्रतिभाशाली और कर्मठ युवक उनके यहाँ कार्य करने को मिल सकता है, तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उसी समय श्री अरविंद को बुलाकर सब बातें तय कर ली और उनको राज्य में एक अच्छी जगह दे दी। फरवरी १८६३ में वे इंगलैंड से रवाना होकर बड़ौदा में आकर रहने लगे। यहीं से उनके जीवन का दूसरा अध्याय आरंभ होता है।

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