महायोगी अरविंद

सार्वजनिक जीवन की तैयारी

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बड़ौदा में दो- तीन सरकारी पदों पर काम करने के पश्चात् उनको वहाँ के कॉलेज में फ्रांसीसी भाषा का प्रोफेसर बना दिया गया। कॉलेज में भी वे निरंतर उन्नति करते गये और सन् १९०६ में राजनैतिक कार्य करने के लिए जब उन्होंने कॉलेज को छोड़ा, तो वेवाइस प्रिंसिपल के पद पर काम कर रहे थे। उन्हें उस समय ७५० रू० मासिक वेतन मिलता था, जो आज लगभग चालीस हजार रूपये के बराबर है।

बड़ौदा में श्री अरविंद ने जो तेरह वर्ष व्यतीत किये, उन्हें हम उनके भावी कार्यक्रम- राजनीतिक, आध्यात्मिक और योग की तैयारी का समय मान सकते हैं। सबसे पहले वे दार्शनिक और आध्यात्मिक विषयों की ओर झुके। भारत के प्राचीन साहित्य का अवलोकन करके उन्होंने यह समझ लिया कि- यह देश वास्तव में एक ऐसी महान् संस्कृति का उत्तराधिकारी हैं, जिसकी तुलना संसार में अन्यत्र मिल सकनी असंभव है। पर साथ ही यहाँ की लज्जाजनक पराधीनता और करोड़ों लोगों की भीषण गरीबी को देखकर उनको खेद भी कम नहीं होता था। वास्तव में अपने देश और समाज की तत्कालीन हीनावस्था में प्राचीन संस्कृति पर गर्व करना हास्यास्पद है। भारतवासियों के जीवन में से प्राचीनकाल के उत्तम गुणों का तो लोप हो गया और उनका स्थान अनेक मूढ़ताजनित कुसंस्कारों, हानिकारक रूढ़ियों ने ले लिया। इसलिए भारत के उद्धार की आकांक्षा करने वाले किसी भी व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य यह था कि वह सबसे पहले समाज के भीतर जमा हो जाने वाले इस कूड़ा- कर्कट की सफाई कर डाले।

श्री अरविंद ने इस तथ्य को भली- भाँति हृदयगम किया, पर उनको यह भी अनुभव हुआ कि,समाज की सफाई का कार्य आरंभ करने से पहले हमको अपनी सफाई कर डालनी चाहिए। भारतवर्ष एक धर्मप्रधान देश है, यहाँ की अशिक्षित जनता भी, गलत या सही ढ़ंग से धार्मिक भावों से ही संचालित होती है। इसलिए उसका सुधार- उत्थान करने वाले को पहले आध्यात्मिक द्रुष्टि से स्वंय अपने को कुछ योग्य बना लेना चाहिए।

यह निश्चय कर लेने पर उन्होंने सबसे पहले भारतीय भाषाओं को सीखने की तरफ ध्यान दिया। अभी तक उनको अपनी मातृभाषा बंगला का भी ठीक अभ्यास नहीं था। इसीलिए उन्होंने एक बंगाली विद्वान को शिक्षक के रूप में बुलाया। साथ ही मराठी और गुजराती का अभ्यास भी करने लगे, क्योंकि बड़ौदा राज्य में इन्हीं दोनों का प्रयोग किया जाता था। धार्मिक साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने संस्कृत सीखी और धीरे- धीरे उसमें इतनी उन्नति की कि वे वेद और उपनिषदों की व्याख्या भी करने लग गए।

इस प्रकार योरोप की उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद भारत में भी वे अपना जीवन एक विद्यार्थी की तरह व्यतीत करते रहे। रात में भी बड़ी देर तक मिट्टी के तेल के लैंप से ही पढ़ते रहते थे। वैसे भी उनकी जीवनचर्या अत्यंत साधारण थी। वे लोहे की चारपाई पर सोते थे और बहुत बार जाड़े में भी रजाई नहीं रखते थे। उनका भोजन भी साधुओं की तरह अत्यंत सादा और आडंबर- रहित होता था। उनको अगर कोई धुन या व्यसन था, तो वह पढ़ने का ही था, जिससे उनका ज्ञान- भंडार निरंतर बढ़ता जाता था।

अब उनके राजनीतिक विचारों में भी परिवर्तन हो रहा था। बचपन से ही अंग्रेजों के मध्य में रहने और अपनी पूरी शिक्षा अंग्रेज शिक्षकों द्वारा ग्रहण करने के कारण वे अब तक योरोपियन सभ्यता को आदर की द्रुष्टिसे देखते थे और कभी उस पर आक्षेप या व्यंग नहीं करते थे। पर भारत में आकर यहाँ की पराधीनता तथा अंग्रेजों के अहम्मन्यतापूर्ण व्यवहार को देखकर उनमें जातीयता का भाव बढ़ने लगा और वे उग्र शब्दों में विदेशी शासन की आलोचना करने लगे। उसी समय उन्होंने बंबई के इंदु- प्रकाश पत्र में पुराने की जगह नये चिरागशीर्षक लेखमाला प्रकाशित कराई थी, जिसमें

उन राजनीतिज्ञों की कठोर आलोचना की गई थी, जो अंग्रेजों की खुशामद करके कुछ अधिकार प्राप्त करने की चेष्टा किया करते थे। सन् १९०१ में उनका विवाह रॉची (बिहार) के निवासी श्री भूपालचंद्र की कन्या मृणालिनी देवी से हो गया। यद्यपि अपनी पत्नी के साथ श्री अरविंद का व्यवहार सदैव प्रेम पूर्ण रहा, पर ऐसे असाधारण व्यक्तित्व वाले महापुरूष की सहधर्मिणी होने से उसे सांसारिक द्रुष्टि से कभी इच्छानुसार सुख की प्राप्ति नहीं हुई। प्रथम तो राजनीतिक जीवन की हलचल के कारण उसे पति के साथ रहने का अवसर ही कम मिल सका ,, फिर आर्थिक द्रुष्टि से भी श्री अरविंद का जीवन जैसा सीधा- सादा था, उसमें उसे कभी वैभवपूर्ण जीवन के अनुभव करने का अवसर नहीं मिला, केवल जब तक वे बड़ौदा में रहे, वह कभी- कभी उनके साथ सुखपूर्वक रह सकी। फिर जब वे पांडिचेरी में जाकर रहने लगे, तो उनकी बढ़ी हुई योग- साधना की द्रुष्टि से पत्नी का साथ रहना निरापद नहीं था तो भी कर्त्तव्य- भावना से उन्होंने उसेपांडिचेरी आने को कह दिया। पर उसी अवसर पर इन्फ्लुऐंजा की महामारी के आक्रमण से उनका देहावसान हो गया।

बड़ौदा में रहते समय ही श्री अरविंद का संबंध क्रांतिकारी दल से हो गया था। वास्तव में इस दल के सूत्रधार और प्रमुख कार्यकर्ता उनके छोटे भाई वारींद्र ही थे। श्री अरविंद यद्यपि इसमें सक्रिय भाग नहीं लेते थे, पर सम्मति और सहायता उनसे सदैव मिलती रहती थी। इसके साथ ही उनका जीवन अध्यात्म की तरफ भी अग्रसर हो रहा था। यद्यपि उस जमाने की द्रुष्टि से वे पर्याप्त वेतन पाते थे, जिसमें अमीरों की तरफ रह सकते थे, पर इस तरफ उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। उनका रहन- सहन बहुत सादा था, पर दूसरों के लिए खर्च करते रहने के कारण महीने के अंत में उनके पास एक पाई भी नहीं बचती थी। कभी- कभी तो ऐसी हालत हो जाती थी कि वे अपनी पत्नी को- जो प्रायः देवधर(बिहार) में रहती थी, खर्च भेजने में भी चूक जाते थे। इस संबंध में श्री दीनेंद्रकुमार ने, जो शिक्षक के रूप में उनके साथ एक वर्ष तक रहे थे, लिखा है- श्री अरविंद कोई सांसारिक जीव नहीं थे, वे तो कोई देवता थे, जो भटक कर भूमंडल पर आ गये थे। उनके चेहरे पर एक भाव था, बाल लंबे थे और आँखे अर्द्ध- उन्मीलित लगती थीं। फैशनेबिल कपड़े न पहनकर वे देशी कपड़े की एक मिरजई पहिनते थे, उनकी कोई आकांक्षा नहीं थी। रव्याति से बचते थे, बातचीत बहुत कम करते थे, आत्म- संयम का पालन करते थे और केवल अध्ययन ही उनका मुख्य कार्य था|

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