महायोगी अरविंद

पांडिचेरि में आरंभिक जीवन-

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
पांडिचेरी पहुँचने पर भी अरविंद पूर्णतः प्रकट रूप से नहीं रहते थे, केवल उनके कुछ घनिष्ठ परिचितों को ही उनकी जानकारी थी, वहाँ के भारतीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने उनसे अनुरोध किया कि उनके कार्य में सहयोग करें,परंतु अब वे योग साधना में तल्लीन हो चुके थे इसलिए इस विषय में उन्होंने सब मित्रों से क्षमा माँग ली। आरंभ में उर चुके थे, यहाँ श्री अरविंद का जीवन अत्यंत सादा था। वे और उनके तीन सानको शंकर चेट्टीके घर पर ठहराया गया, जहाँ पहले स्वामी विवेकानंद भी ठहथी फर्श पर ही सोते थे और गृह स्वामी के यहाँ जो चावल, शाक और मद्रासी रसम बनता था, उसी को नियमित रूप से खाते थे। चूँकि गृहस्वामी शाकाहारी था इसलिए बंगालियों का नियमित भोजन मछली उन्होंने त्याग दिया था। ये अपना सब काम अपने हाथ से ही करते थे। सन् १९१४ में जब आर्य का प्रकाशन हुआ, तब एक नौकर रखा गया। मीरा रिचार्ड का आगमन-

इसी वर्ष फ्रांस के विद्वान दार्शनिक पाल रिचार्ड पांडिचेरी आकर इनसे मिले। इस भेंट से उनको,यहअनुभव हुआ कि, श्री अरविंद उनके बड़े भाई के समान हैं और उनका ज्ञान भंडार बहुत विशाल है। पालरिचार्ड की पत्नी छोटी उम्र से ही योग- साधना करती थी। उसने अपने पति द्वारा अरविंद से योग संबंधी प्रश्नपुछे थे और एक बात यह भी जाननी चाही थी कि, स्वपन में कमल के दर्शन का क्या विशेष अर्थ होता है? श्रीअरविंद ने बतलाया कि, कमल के स्वपन का आशय अंतर्चेतना के जागरण से है और जब साधक का मनसुक्ष्म स्तर पर पहुँच जाता है, प्रायः तब यह दिखलाई दिया करता है।

इसके कुछ ही समय बाद मीरा रिचार्ड स्वयं पांडिचेरी आकर श्री अरविंद से मिली। दूसरे दिन इस भेंट का वर्णन करते हुए उन्होंने अपनी डायरी में लिखा- जिसके दर्शन हमने कल किए, वह धरातल पर विराजमान है और उसकी उपस्थिति इस बात को साबित करने को काफी है कि एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा, जबकि अंधकार प्रकाश के रूप में बदल जायेगा और पृथ्वी पर सचमुच भगवान का राज्य स्थापित हो जायेगा। यहाँ यह कर देना अप्रासंगिक न होगा कि इसके कुछ ही समय बाद मीरा रिचार्ड श्री अरविंद की साधना में प्रधान सहायिका हो गई और वे माताजी के नाम से अरविंद आश्रम का संचालन करती रहीं।

सन् १९१४ में ही एक विशेष घटना कोडयारम् (मद्रास) के जमींदार श्री के० पी० रंगस्वामी का श्रीअरविंद का शिष्य बन जाना भी था। उनके कुलगुरू योग नगाई जाप्ता ने कुछ समय पूर्व अध्यात्मविद्या के आधार पर यह बताया था कि- उत्तर भारत से एक महायोगी आयेगा, रंगस्वामी उसी से साधना संबंधी उपदेश ग्रहण करें। जब गुरूजी का मृत्युकाल समीप आ गया, तो रंगस्वामी ने उनसे पूछा कि- आखिर उस योगी की पहिचान क्या होगी? गुरू ने बतलाया कि- वे कुछ कठिनाइयों से बचने के लिए यहाँ आयेगे और उनकी तीन विशेषताएँ पहले से ही प्रचलित हो चुकेंगी। ये बातें श्री अरविंद पर लागू होती थीं, इसलिए रंगस्वामी उनकी शरण में आये। श्री अरविंद ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके उनको साधना- मार्ग बतलाया। उसी समय ज्योग- साधना नाम की एक पुस्तक भी परलोक- विज्ञान की सहायता से लिखाई गई। रंगस्वामी ने उस पुस्तक को अपने व्यय से प्रकाशित करके प्रचारित किया।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118