महायोगी अरविंद

राजनीति से पृथकता -

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यद्यपि पांडिचेरी में श्री अरविंद पूर्णरूप से योग साधना में संलग्न थे और कभी घर के बाहर भी नहीं निकलते थे, तो भी अंग्रेजी सरकार के एजेंट उनको फँसाने के लिए षड्यंत्र रचते ही रहते थे। ऐसे ही किसी व्यक्ति नेपांडिचेरी की पुलिस को सूचना दी कि, दो क्रांतिकारी श्री अरविंद की सहायता से अपत्तिजनक साहित्य तैयार कर रहे हैं और इनका संबंध भारत से भागकर फ्रांस में टिके हुए श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा तथा मैडम कामा आदि क्रांतिकारी नेताओं से हैं। इस पर एक फ्रांसीसी पुलिस अफसर ने आकर श्री अरविंद के आश्रम की तलाशी ली। उसे वहाँ कोई आपत्तिजनक सामग्री तो नहीं मिली, पर ग्रीक और लैटिन भाषाओं में लिखी कई पुस्तकों की पांडुलिपियाँ देखने में आई। इससे वह इतना प्रभावित हुआ कि इनका मित्र बन गया।

अंग्रेजी पुलिस की दूसरी कार्यवाही यह थी कि उसने वीरेंद्र राय नामक बंगाली जासूस को इनके आश्रम में नौकर करा दिया। कई महीने के बाद कुछ संदेह होने पर उसने स्वीकार किया कि वह भारतीय पुलिस का आदमी है। इसके बाद वह छिपकर वहाँ से भाग गया, पर उसने गंभीरतापूर्वक यह घोषणा भी कि श्रीअरविंद या उनके किसी साथी के विरूद्ध उसने कोई रिपोर्ट नहीं की है।

श्री अरविंद के छोटे भाई श्री वारींद्र को बम- केस में आजन्म काले पानी की सजा दी गई थी, पर राजनैतिक कैदियों को विशेष क्षमा- दान की सरकारी घोषणा के अनुसार वे १९२० में छोड़ दिये गए।

वे पांड़िचेरी आकर इनसे मिले और फिर इनकी प्रेरणा से कलकत्ता में एक आध्यात्मिक केंद्र की स्थापना की। इसके अतिरिक्त लाला लाजपत राय, श्री पुरूषोत्तमदास टंड़न डा० मुँजे, श्रीमती सरला चौधरानी, मिपियर्सन, जैम्स आदि अन्य राजनीतिक कार्यकर्ता भी उनसे समय- समय पर मिलते रहे। अब उनके एकांतवास का नियम भी कुछ शिथिल हो चला था। शाम के समय प्रायः एकाध स्थानीय राजनीतिज्ञ मित्र बात करने आ जाया करते थे। कभी- कभी वे स्वयं भी मित्रों से मिलने चले जाते थे। आरंभ में इस नियम का भंग उन्होंने तब किया जब वे श्री निवासाचार्य के बहुत आग्रह करने पर उनकी लड़की की शादी में गये। उस समय लोंगों ने इसे बड़ी घटना माना था, क्योंकि सदा आश्रम के भीतर रहने से किसी को सहज में इनके दर्शन हो सकना कठिन था। फिर तो कभी- कभी वे पांडिचेरी के मेयर नगरपालिका के अध्यक्ष से भी मिलने चले जाते थे। उन्होंने एक आर्य स्टोर्स भी खोल दिया था, जिसका आर्थिक भार पाल रिचार्ड पर था। इस प्रकार उनकी आर्थिक दशा आरंभिक दिनों की अपेक्षा कुछ सुधर गई, पर फिर भी पांच- छह वर्ष तक उसमें ऐसा कोई विशेष परिवर्तन नही हुआ, जिससे वे आराम के साथ रह सकते थे। अधिक किराया न दे सकने के कारण उनको निरंतर ऐसे ही मकान में ही रहना पड़ा, जिसमें पृथक स्नान घर भी नहीं था और सबलोंगों को खुले स्थान में नल के नीचे बैठकर ही स्नान करना पड़ता था।

अरविंद- आश्रम का विकास-

सन् १९१५ में योरोपीय महायुद्ध में भाग लेने के लिए श्री पाल रिचार्ड को फ्रांस जाना पड़ा। उनकी पत्नी मीरा भी उनके साथ गई। युद्ध समाप्त होने पर जब उनको छुटकारा मिला, तो १९२० में वे पुनः पांड़िचेरी आ गये। अब मीरा रिचार्ड ने अरविंद- आश्रम की व्यवस्था अपने हाथ में ले ली, जिससे कुछ समय में वहाँ की कायापलट होने लग गई। उनके लिए स्नानघर की व्यवस्था ऊपर की मंजिल में कर दी गई और खाने- पीने में भी काफी सुधार हो गया। अब उनके पास आने वाले दशेकोंकी संख्या अधिक हो गई और कार्यशीलता में भी पूर्वापेक्षा बहुत वृद्धि हो गई। अब आश्रम में कितने ही लोग साधना के लिए आने लगे और आसपास मकान लेकर रहने लगे।इस प्रकार जब आगंतुकों की संख्या बढ़ने लगी, तो भोजन की समस्या उत्पन्न होने लगी। सब लोगोंको उनके स्वाद के अनुकूल भोजन दिया जा सकना कठिन था। इस संबंध में श्री अरविंद ने एक दिनएक साधक से कहा- किसीको खास तरह और विशेष स्वाद के लिए आग्रह नहीं करना चाहिए। ऐसी आदत में कोई लाभ नहीं होता। घटिया खाना शरीर को खराब कर देता है, इसलिए भोजन उत्तमतो होना चाहिए,पर उत्तम भोजन का मतलब यही है कि उससे शरीर को ठीक पोषण प्राप्त हो सके, नकेवल उसका स्वाद बढ़िया हो।

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