चलते समय लंदन के पत्र संवाददाता ने पूछा- ‘‘स्वामीजी, इस चमकते- दमकते, विलास- वैभवपूर्ण पश्चिम में चार वर्ष रहने के पश्चात् आपको अपना देश कैसा जान पड़ता है?’’
स्वामीजी ने कहा- ‘‘देखो, यहाँ आने के पहले तो मैं भारतवर्ष से प्रेम ही करता था, पर अब तो वहाँ की धूल और हवा भी मुझे पवित्र करने वाली जान पड़ती है। अब मैं उसे एक तीर्थ के समान समझ रहा हूँ।’’
जहाज की यात्रा करते हुए एक दिन दो पादरी स्वामीजी से विवाद करने आ गए और जब तर्क द्वारा निरुत्तर हो गए तो हिंदू धर्म को बुरी- बुरी गालियाँ देने लगे। कुछ देर तक तो स्वामीजी ने सहन किया, पर अब उन लोगों ने अति कर दी तो वे उठे और एक पादरी का गला पकडक़र कुछ हँसी के साथ कहा- ‘‘अब जो मेरे धर्म को गालियाँ दीं तो उठाकर समुद्र में फेंक ही दूँगा।’’ विचारा पादरी काँपने लगा और बोला- ‘‘महाराज मुझे क्षमा करो, अब कभी ऐसा न करूँगा।’’ इसके बाद वह जब कभी स्वामीजी को देखता था तो झुककर प्रणाम करता था।