स्वामी विवेकानंद

देशोद्धार का संकल्प

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अब स्वामीजी भारत भ्रमण करते हुए देश की अंतिम सीमा पर पहुँच चुके थे। वे रामेश्वर होकर कन्याकुमारी पहुँचे। वहाँ भारतभूमि के अंतिम छोर की शोभा देखते हुए उन्होंने थोड़ी ही दूर पर समुद्र के बीच निकली एक बड़ी चट्टान को देखा। स्वामीजी तैरकर वहाँ पहुँचे और शिला पर बैठकर कई घंटे तक अपने देश की वर्तमान दशा पर विचार करते रहे। अंत में उनके मुख से स्वत: ही ये उद्गार निकले- ‘‘हम लाखों साधु संन्यासी, लोगों के लिए क्या कर रहे हैं? अध्यात्म का उपदेश! पर यह तो पागलपन है। भगवान श्रीरामकृष्ण ने ठीक कहा था कि भूखे मरते हुए को धर्म का उपदेश व्यर्थ है। जहाँ लाखों को खाने को नहीं मिलता वहाँ  वे धार्मिक कैसे बन सकते हैं? इसलिए पहले देशवासियों की आर्थिक अवस्था सुधारने के लिए वैसी ही शिक्षा देनी चाहिए। उसके बाद वे स्वयं अपनी समस्याओं को सुलझा लेंगे। पर इस काम के लिए पहले तो कार्यकर्ता चाहिए और फिर धन की आवश्यकता है। मैं भिखारी संन्यासी इसको कैसे दूर कर सकता हूँ? पर कोई बात नहीं, गुरु की कृपा से मैं इसे करूँगा अवश्य। भारत के एक- एक नगर से ऐसे व्यक्ति इकट्ठे होंगे जिनका हृदय लोगों की दशा सुधारने के लिए तड़प रहा होगा, जो इसके लिए जीवन अर्पण करने को तैयार होंगे। पर पैसा! इस कार्य का भार लेकर मैं राजा से लेकर रंक तक के पास घूम चुका हूँ। पर सर्वत्र सहानुभूति के शब्द ही मिलते हैं। इसलिए मैं इस कंगाल देश में किसी का सहारा न लेकर समुद्र पार पश्चिमी देशों में जाऊँगा और अपनी विद्या- बुद्धि के प्रभाव से पैसा प्राप्त करूँगा। फिर स्वदेश आकर लोगों के उद्धार की योजना पूरी करूँगा या इसी प्रयत्न में प्राण दे दूँगा।’’

मद्रास पहुँचने पर स्वामीजी के पास अनेक जिज्ञासुओं की भीड़ रहने लगी। एक हिन्दू पंडित आया जिसका आचार- विचार पूरी तरह से अंग्रेजी हो चुका था। उसने वेदों को ऋषियों के अर्थहीन लेख बतलाया और कहा- ‘‘स्वामीजी! संध्या वंदन का समय नहीं मिलता, इसलिए उसे छोड़ दिया जाए तो कोई हानि है?’’ भारतीय संस्कृति के प्रति ऐसी अवज्ञापूर्ण बातें सुनकर स्वामीजी एकदम आवेश में आए और गरजकर कहने लगे- ‘‘क्या कहा! जिन प्राचीन महामानवों की बुद्धि के घोड़े चलते नहीं वरन उड़ते थे, जिनकी महिमा पर जरा- सा भी विचार करने पर तुम एक क्षुद्र कीड़े की तरह जान पड़ते हो, उन सब ऋषियों के पास तो इस कार्य के लिए समय था, और मेरे साहब! आपके पास समय नहीं है। तुमने अंग्रेजी के अक्षर सीखकर कुछ पुस्तकें पढ़ लीं तो उन्हीं से तुम्हारा दिमाग फिर गया। उन ऋषियों के विज्ञान की तुमने परीक्षा की है? तुमने  कभी वेदों को पढऩे का कष्ट उठाया है? उनमें समझने की शक्ति हो तो फिर उस संबंध में बातें करो।’’

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