स्वामी विवेकानंद

स्वामी जी का इंग्लैण्ड में प्रचार कार्य

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अमरीका में धर्म प्रचार का कार्य भलीभाँति जम जाने पर स्वामीजी इंग्लैण्ड आए। उस समय भारतवर्ष इंग्लैण्ड के अधीन था और यहाँ के निवासी चाहे वे राजा हों अथवा रंक, वहाँ पर प्रजा की तरह ही माने जाते थे। स्वामीजी इंग्लैण्ड में भी अपनी योग्यता द्वारा भारतवर्ष और हिंदू धर्म की श्रेष्ठता का प्रभाव स्थापित करना चाहते थे। दो- चार दिन में ही वे लंदन में ‘हिंदू योगी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए और बड़े -बड़े विद्वान तथा शिक्षित लोग उनके उपदेश सुनने को आने लगे। एक दिन उनका भाषण ‘पिकेडली प्रिंसेस हाल’ में हुआ जिसमें अध्यात्म विषयों में रुचि रखने वाले एक हजार से अधिक श्रोता उपस्थित थे। दूसरे दिन लंदन के सभी समाचार पत्रों में इनकी विद्वता के विषय में बड़े- बड़े लेख प्रकाशित हुए। ‘स्टैंडर्ड’ नामक प्रसिद्ध पत्र ने लिखा कि ‘‘बहुत दिनों से कोई ऐसा शक्तिशाली भारतीय इंग्लैण्ड के व्याख्यान मंच पर खड़ा नहीं हुआ था। स्वामीजी ने बतलाया कि हमारे कारखाने, इंजन, वैज्ञानिक आविष्कार तथा पुस्तकों द्वारा जितना उपकार हुआ है, उससे अधिक खराबी भी हुई है। उन्होंने इस तथ्य की बुद्ध व ईसामसीह की वाणियों के साथ तुलना करके आधुनिक सभ्यता की तीव्र आलोचना की।’’

‘क्रानिक’ नाम के पत्र के संपादक ने लिखा- ‘‘लोकप्रिय हिंदू संन्यासी विवेकानन्द के अंग- प्रत्यंगों में बुद्धदेव का सादृश्य दिखलाई पड़ता है। वाणिज्य द्वारा प्राप्त हमारी समृद्धि, हमारे रक्त पिपासापूर्ण युद्ध तथा धर्म- प्रचार संबंधी असहिष्णुता की खरी आलोचना करके उन्होंने कहा- इस मूल्य में बेचारे हिंदू तुम्हारी खोखली, आडम्बरपूर्ण सभ्यता के प्रेमी न बन सकेंगे।’’

उन्होंने वहाँ पर अनेक भाषणों में बार- बार लोगों को चेतावनी दी कि ‘‘यदि शीघ्र उन्नति करने वाली और ऊपर से मनोहर दिखाई पडऩे वाली पश्चिमी सभ्यता को वेदांत के त्याग और वैराग्य की नींव पर स्थापित न किया गया तो उसका उतना ही शीघ्र नाश होना भी अवश्यंभावी है। सावधान! सारा पश्चिमी जगत एक ज्वालामुखी के ऊपर टिका हुआ है। वह किसी भी समय आग उगल कर तुम्हारा विध्वंस कर सकता है। अब भी तुम न चेतोगे तो पचास वर्ष में सर्वनाश का दृश्य दिखलाई देगा।’’ कहना न होगा सन् १८९६ में कही गई यह भविष्यवाणी गत दो महायुद्धों के रूप में पूर्णत: सत्य हो चुकी है।

इंग्लैण्ड में स्वामीजी की भेंट प्रोफेसर मैक्समूलर से भी हुई जिन्होंने अपना समस्त जीवन लगाकर वेदों को खोजकर प्रकाशित करने का महान कार्य किया था। उनके दर्शन करके स्वामीजी ने लिखा कि ‘‘सत्तर वर्ष के वृद्ध प्रोफेसर के मुख से आध्यात्मिकता का भाव स्पष्ट प्रकट होता था और श्वेत बालों से युक्त वे एक ऋषि की तरह ही जान पड़ते थे। उनके निवास स्थान की सादगी, वृक्षावली, पुष्प और प्राकृतिक वातावरण भारत के ऋषि आश्रमों की याद दिलाता था।’’ स्वामीजी के विदा होते समय आँधी, वर्षा के होते हुए भी वृद्ध प्रोफेसर उनको पहुँचाने स्टेशन तक आए। जब स्वामीजी ने इसके लिए संकोच का भाव प्रकट किया तो वे कहने लगे- ‘‘श्रीरामकृष्ण के योग्यतम शिष्य का दर्शन सदैव प्राप्त नहीं होता।’’

जर्मनी के प्रसिद्ध वेदांत ज्ञाता प्रोफेसर पाल ड्यूसन ने स्वामीजी को निमंत्रण भेजकर अपने यहाँ बुलाया और कई दिन तक उन्हें अपने पास रखकर ज्ञानचर्चा की। वहाँ एक दिन किसी काव्य ग्रंथ को पढ़ते हुए वे ऐसे तल्लीन हो गए कि प्रोफेसर के बुलाने पर भी कुछ उत्तर न दे सके। बाद में जब उनको यह बात मालूम हो गई तो उनसे क्षमा माँगी। पर प्रोफेसर का संदेह दूर नहीं हुआ। इस पर स्वामीजी इस पुस्तक के पृष्ठ बिना पुस्तक देखे ज्यों के त्यों सुनाते चले गए तो उनको इनके गंभीर मनोयोग और अपूर्व स्मरण शक्ति पर विश्वास हुआ।

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