इसके कुछ समय पश्चात परमहंस देव का स्वास्थ्य अधिक बोलने के कारण बिगड़ गया और उनकी सेवा का भार नरेन्द्र ने अपने ही ऊपर लिया। इसके लिए उन्होंने अपने घर- बार को एक प्रकार से त्याग ही दिया और पूरा समय परमहंस देव की परिचर्या और उनके अन्य शिष्यों की देख- भाल में ही लगाने लगे। अंत में १६ अगस्त १८८६ को परमहंस देव का देहांत हो गया, तब उनके समस्त शिष्यों और आश्रम की व्यवस्था का भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। उन्होंने कुछ गृहस्थ भक्तों की सहायता से एक पुराना खंडहर जैसा मकान किराए पर लिया और पाँच- सात नवयुवक वहीं रहकर आत्म- साधना में संलग्न रहने लगे। नरेन्द्र ने अपना उदाहरण उपस्थित करके सबको यही प्रेरणा दी कि- जब हम संन्यासी हो चुके हैं तो हमको भोजन- वस्त्र की सुविधा- असुविधा का ध्यान छोड़ देना चाहिए। उस समय वास्तव में स्थिति भी ऐसी आ गई थी कि आश्रम में खाने को कुछ भी सामग्री नहीं रहती और भिक्षा के द्वारा जो थोड़ा- बहुत चावल मिल जाता उसी को उबालकर सब बाँटकर काम चला लेते। साथ में साग- भाजी की तो क्या बात, कभी- कभी नमक भी नहीं मिलता था। पर इससे किसी के मुख पर असंतोष का कोई चिन्ह न दिखाई देता था। सूखे भात, नमक और बेलपत्र पर इन लोगों ने महीनों तक निर्वाह किया। नरेन्द्र बराबर सबका उत्साह कायम रखते थे और समझाते रहते थे कि यदि हमको संन्यासी रहकर संसार की कुछ सेवा करनी है तो इस प्रकार के अभावों और कठिनाइयों को खुशी से सहने को तैयार रहना चाहिए।