स्वामी विवेकानंद

जीवन की उपयोगिता कायम रहे

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जब ये सब कार्य व्यवस्थित हो गए तो योरोप के कई देशों में होकर सन् १९०० के दिसंबर मास में पुन: भारतवर्ष लौट आए। उन्होंने अपने आने की सूचना किसी के पास नहीं भेजी, क्योंकि इससे स्वागत समारोह में फँसना पड़ता और बहुत- सा अमूल्य समय यों ही निकल जाता, जिसे वे ठोस कार्यों में लगाना चाहते थे। अब उनको अनुभव हो रहा था कि इस तूफानी गति से कार्य करते हुए यह पार्थिव शरीर अधिक समय तक नहीं टिकेगा।

इन दिनों उनका स्वास्थ्य प्राय: निर्बल ही रहता था और वे अपना बहुत- सा समय ध्यान में लगा देते थे। तो भी सार्वजनिक सेवा का जो काम आता, उसे अवश्य पूरा करते और अपने शिष्यों को भी सदा यही उपदेश देते कि मानव जीवन का उद्देश्य परोपकार और सेवा ही है। जब तक यह उद्देश्य पूरा हो सके तभी तक जीना यथार्थ है। जब इसकी पूर्ति कर सकने की सामर्थ्य न रहे तो जीवन का अंत हो जाना ही श्रेष्ठ है।

स्वामीजी के इस आदर्श से आजकल के उन साधु- संन्यासियों तथा धर्म- गुरुओं को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए जो अपना कार्य शिष्यों को केवल जबानी उपदेश सुना देना और उनसे प्राप्त दक्षिणा, भेंट द्वारा आराम का जीवन व्यतीत करना ही समझते हैं। यदि भारतवर्ष के हजार- पाँच सौ साधु भी स्वामी विवेकानन्द के पद- चिन्हों पर चलते तो आज हिंदू धर्म की हालत कुछ और ही होती।

अब वे मठ के कामों से क्रमश: छुट्टी लेने लगे थे और सब भार अपने गुरु भाइयों तथा शिष्यों पर छोडऩे लगे थे। वे कहते थे कि ‘‘अनेक बार ऐसा देखने में आता है कि गुरु अथवा नेता सदैव अपने अनुयायियों के साथ रहकर उनका अहित कर डालता है। सरदार या मुखिया का कर्तव्य है कि जब अन्य लोग कार्य करना जान जाएँ तो स्वयं दूर हटकर रहे, जिससे उन सबका भी पूर्ण विकास हो सके।’’

४ जुलाई १९०२ को जिस दिन उन्होंने देहत्याग किया, अन्य दिनों की अपेक्षा वे अधिक सक्रिय रहे। प्रातःकाल शीघ्र ही उठकर नित्यकर्म से निवृत्त हुए और पूजा मंदिर में जाकर दरवाजा बंद करके तीन घंटा गुरुदेव तथा काली माता का पूजन और ध्यान करते रहे।

संध्या समय आरती हो जाने पर वे माला लेकर जप करने बैठ गए। कुछ देर बाद उन्होंने एक शिष्य से कहा कि मुझे कुछ गर्मी जान पड़ती है, तू मेरे पास बैठकर पंखा करता रह। यह कहकर जमीन पर बिछे बिस्तर पर लेट गए और आँखें बंद करके अर्ध सुषुप्ति की- सी अवस्था में कुछ देर पड़े रहे। लगभग नौ बजे उनका हाथ जरा काँपा। उन्होंने एक गहरी साँस ली और प्राण- वायु शरीर से बाहर निकल गया।

रात्रि भर आश्रमवासी इस आशा में बैठे रहे कि शायद स्वामी जी समाधि अवस्था में हों। पर प्रातःकाल यह देखकर कि उनके नेत्र लाल हो गए हैं और नाक तथा मुँह से कुछ खून निकला है, डॉक्टर को बुलाया। उसने बतलाया कि इनके मस्तक की शिरा फटने से मृत्यु हुई है। शिष्यों ने समझ लिया कि स्वामी जी ने योग विधि से ब्रह्म- रंध्र को भेदकर आत्मा को शरीर से पृथक् कर लिया है। तीसरे प्रहर अपार जन- समूह की उपस्थिति में मठ के अहाते में ही एक वृक्ष के नीचे उनका दाह संस्कार किया गया और हजारों कंठों से एक साथ गगनभेदी स्वर निकला- ‘‘गुरु महाराज की जय! हिंदू धर्म की जय!!’’

जब ये सब कार्य व्यवस्थित हो गए तो योरोप के कई देशों में होकर सन् १९०० के दिसंबर मास में पुन: भारतवर्ष लौट आए। उन्होंने अपने आने की सूचना किसी के पास नहीं भेजी, क्योंकि इससे स्वागत समारोह में फँसना पड़ता और बहुत- सा अमूल्य समय यों ही निकल जाता, जिसे वे ठोस कार्यों में लगाना चाहते थे। अब उनको अनुभव हो रहा था कि इस तूफानी गति से कार्य करते हुए यह पार्थिव शरीर अधिक समय तक नहीं टिकेगा।

इन दिनों उनका स्वास्थ्य प्राय: निर्बल ही रहता था और वे अपना बहुत- सा समय ध्यान में लगा देते थे। तो भी सार्वजनिक सेवा का जो काम आता, उसे अवश्य पूरा करते और अपने शिष्यों को भी सदा यही उपदेश देते कि मानव जीवन का उद्देश्य परोपकार और सेवा ही है। जब तक यह उद्देश्य पूरा हो सके तभी तक जीना यथार्थ है। जब इसकी पूर्ति कर सकने की सामर्थ्य न रहे तो जीवन का अंत हो जाना ही श्रेष्ठ है।

स्वामीजी के इस आदर्श से आजकल के उन साधु- संन्यासियों तथा धर्म- गुरुओं को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए जो अपना कार्य शिष्यों को केवल जबानी उपदेश सुना देना और उनसे प्राप्त दक्षिणा, भेंट द्वारा आराम का जीवन व्यतीत करना ही समझते हैं। यदि भारतवर्ष के हजार- पाँच सौ साधु भी स्वामी विवेकानन्द के पद- चिन्हों पर चलते तो आज हिंदू धर्म की हालत कुछ और ही होती।

अब वे मठ के कामों से क्रमश: छुट्टी लेने लगे थे और सब भार अपने गुरु भाइयों तथा शिष्यों पर छोडऩे लगे थे। वे कहते थे कि ‘‘अनेक बार ऐसा देखने में आता है कि गुरु अथवा नेता सदैव अपने अनुयायियों के साथ रहकर उनका अहित कर डालता है। सरदार या मुखिया का कर्तव्य है कि जब अन्य लोग कार्य करना जान जाएँ तो स्वयं दूर हटकर रहे, जिससे उन सबका भी पूर्ण विकास हो सके।’’

४ जुलाई १९०२ को जिस दिन उन्होंने देहत्याग किया, अन्य दिनों की अपेक्षा वे अधिक सक्रिय रहे। प्रातःकाल शीघ्र ही उठकर नित्यकर्म से निवृत्त हुए और पूजा मंदिर में जाकर दरवाजा बंद करके तीन घंटा गुरुदेव तथा काली माता का पूजन और ध्यान करते रहे।

संध्या समय आरती हो जाने पर वे माला लेकर जप करने बैठ गए। कुछ देर बाद उन्होंने एक शिष्य से कहा कि मुझे कुछ गर्मी जान पड़ती है, तू मेरे पास बैठकर पंखा करता रह। यह कहकर जमीन पर बिछे बिस्तर पर लेट गए और आँखें बंद करके अर्ध सुषुप्ति की- सी अवस्था में कुछ देर पड़े रहे। लगभग नौ बजे उनका हाथ जरा काँपा। उन्होंने एक गहरी साँस ली और प्राण- वायु शरीर से बाहर निकल गया।

रात्रि भर आश्रमवासी इस आशा में बैठे रहे कि शायद स्वामी जी समाधि अवस्था में हों। पर प्रातःकाल यह देखकर कि उनके नेत्र लाल हो गए हैं और नाक तथा मुँह से कुछ खून निकला है, डॉक्टर को बुलाया। उसने बतलाया कि इनके मस्तक की शिरा फटने से मृत्यु हुई है। शिष्यों ने समझ लिया कि स्वामी जी ने योग विधि से ब्रह्म- रंध्र को भेदकर आत्मा को शरीर से पृथक् कर लिया है। तीसरे प्रहर अपार जन- समूह की उपस्थिति में मठ के अहाते में ही एक वृक्ष के नीचे उनका दाह संस्कार किया गया और हजारों कंठों से एक साथ गगनभेदी स्वर निकला- ‘‘गुरु महाराज की जय! हिंदू धर्म की जय!!’’

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