स्वामी विवेकानंद

काली माता से विवेक का वरदान

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इसी प्रकार की दूसरी घटना उस समय हुई जब सन् 1884 में नरेन्द्र के पिता श्री विश्वनाथ दत्त का देहांत हो गया और पारिवारिक झगड़ों के कारण घर की आर्थिक स्थिति अत्यंत शोचनीय हो गई। किसी दिन तो घर में चूल्हा भी नहीं जल पाता था और सबको भूखा ही रह जाना पड़ता था। नरेन्द्र उस समय तक यद्यपि एम.ए. में पढ़ रहे थे, पर अध्यात्म की तरफ मनोवृत्ति होने के कारण रोजगार की तरफ कुछ ध्यान न देते थे। पर अब इस आकस्मिक विपत्ति के आ जाने से उनका ध्यान कोई काम करने की तरफ गया और बराबर सरकारी और गैर सरकारी कार्यालयों में किसी छोटी- मोटी नौकरी के लिए चक्कर लगाने लगे। पर कई महीने बीत जाने पर भी जब सफलता न मिली और परिवार वालों का कष्ट बहुत बढ़ गया तो उनको परमहंस देव का ख्याल आया कि उनके आशीर्वाद से इस विपत्ति से छुटकारा पाया जाए।

जब नरेन्द्र ने यह समस्या गुरुदेव के सम्मुख रखी और उनसे काली माता के सम्मुख इसकी प्रार्थना करने का आग्रह किया, तो उन्होंने कहा- ‘‘भैया, मुझसे तो ऐसी बात कही नहीं जाएगी। तू ही क्यों नहीं कहता? तू माँ को नहीं मानता, इसीलिए तो यह सारा बखेड़ा खड़ा हुआ है।’’

परमहंस देव के समझाने पर नरेन्द्र मंदिर के भीतर पहुँचे और उन्होंने देखा कि वास्तव में वहाँ अनंत प्रेम की वर्षा करती हुई माता का चिन्मय स्वरूप उपस्थित है। भक्ति और प्रेम से उनका हृदय भर गया और बार- बार प्रणाम करके कहने लगे- ‘‘माँ विवेक दो, वैराग्य दो, भक्ति दो, और ऐसा करो जिससे नित्य तुम्हारा दर्शन होता रहे।’’ जब वे बाहर आए तो परमहंस जी ने पूछा- ‘‘क्यों, माँ के पास जाकर आर्थिक तंगी को दूर करने की प्रार्थना की?’’ उनके इस प्रश्न से चौंक कर नरेन्द्र ने कहा- ‘‘नहीं, उसे तो मैं भूल ही गया। अब क्या होगा?’’ परमहंस देव ने कहा- ‘‘जा जा, फिर चला जा। वहाँ जाकर माँ को सब बात बतला दे, वे अवश्य सब व्यवस्था कर देंगी।’’

नरेन्द्र फिर मंदिर में गए, पर भीतर पहुँचते ही फिर सब बात भूल गए और बार- बार ज्ञान और भक्ति के लिए प्रार्थना करके बाहर ही निकल आए। तीसरी बार भी ऐसा ही हुआ और तब वे परमहंस देव को पकड़ कर बैठ गए कि ‘‘यह सब आपकी ही लीला है, अब मेरे परिवार के निर्वाह की व्यवस्था आप ही कीजिए। अंत में परमहंस जी को कहना पड़ा कि ‘‘जा, तुम्हारे परिवार को रोटी- कपड़े की कमी नहीं रहेगी।’’ हुआ भी ऐसा ही।

इस घटना से मालूम होता है कि जिन व्यक्तियों का दृष्टिकोण आध्यात्मिक होता है, वह कठिनाई में पड़ने पर भी ईश्वर से अपने स्वार्थ संबंधी कोई याचना नहीं करते। उनकी दृष्टि में इन क्षणभंगुर वस्तुओं का मूल्य ज्ञान और भक्ति जैसे संसार- सागर से पार लगाने वाले तत्त्वों की अपेक्षा अत्यन्त न्यून होता है। यही कारण है कि घोर आर्थिक कष्ट में फँसे होने पर भी वे काली माँ के सामने वैसी तुच्छ बात को न कह सके और ज्ञान और भक्ति का वरदान माँगकर ही चले आए। हमको इसकी तुलना आजकल के उन साधकों से करनी चाहिए जो कोई साधारण- सा अनुष्ठान आरंभ करते ही बड़ी- बड़ी कामनाओं की सिद्धि का स्वप्न देखा करते हैं और जब अपनी अयोग्यता के कारण कुछ प्रगति नहीं होती, तो देवता को झूठा बतलाते हैं। इससे हम समझ सकते हैं कि वर्तमान समय में अध्यात्म मार्ग से लोगों की श्रद्धा हटते जाने का कारण क्या है?

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