स्वामी विवेकानंद

मूर्तिपूजा की उपयोगिता

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इसके एक सप्ताह बाद स्वामीजी ने अपना ‘हिंदूधर्म’ नाम का निबंध धर्मसभा के सम्मुख पढ़ा, जो कुछ ही समय में संसार में प्रसिद्ध हो गया। इसके आरंभ में उन्होंने अद्वैत सिद्धांत का वह रहस्य बतलाया जहाँ आधुनिक विज्ञान क्रमश: पहुँचता जा रहा है। उसके पश्चात् उन्होंने अनेक देवी देवताओं की उपासना और मूर्ति पूजा की उस प्रथा पर प्रकाश डाला जिसके लिए उसके विरोधी तरह- तरह के आक्षेप करते रहते हैं। उन्होंने कहा- ‘पूजा, उपासना, कर्मकाण्ड आदि के धार्मिक विधि- विधान दूसरी श्रेणी के हैं और ये साधारण मनुष्यों की चित्त शुद्धि के लिए आवश्यक हैं। इसी प्रकार मूर्तिपूजा मनुष्य की आध्यात्मिक एकाग्रता के लिए आवश्यक है। जब प्रतिमा को ईश्वर के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है तो उसे ‘पत्थर पूजा’ नहीं कहा जा सकता है। हिंदुओं का विश्वास है कि किसी सिद्धांत के मानने या न मानने पर धर्म का आधार नहीं है, पर धर्म का उद्देश्य है- ईश्वर का साक्षात्कार। इस दृष्टि से देखने पर साकार पूजा और कर्मकाण्ड, आध्यात्मिक जीवन के आरंभिक आधार माने जाते हैं। पर यह आधार या सहायता प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य हैं, ऐसा हिंदू धर्म में कहीं भी नहीं कहा गया है। बाहरी दृष्टि से जो विविधता दिखाई पड़ती रही है, उसी में एकता का समावेश हो रहा है। विश्वव्यापी धर्म उसी को कहा जा सकता है जो किसी विशेष पथ से बँधा हुआ न हो और जिसमें जंगली मनुष्य से लेकर सुसंस्कृत मनुष्य तक की भावनाओं की पूर्ति हो सके और उस महान समन्वय में प्रत्येक श्रेणी के व्यक्ति अपने- अपने अनुकूल मार्ग से चलकर एक ध्येय पर पहुँच सकें।’’

स्वामीजी के इन आरंभिक भाषणों ने उनकी श्रेष्ठता की छाप समस्त धर्मों के अधिकांश प्रतिनिधियों और अमरीकन श्रोताओं के ऊपर लगा दी। संसार भर के और विशेषत: अमरीका के प्रमुख पत्रों में उनकी प्रशंसा में कालम के कालम रंगे जाने लगे। उस देश में सर्वाधिक प्रचारित ‘न्यूयार्क हेरल्ड’ ने लिखा है कि ‘‘शिकागो धर्म सभा में विवेकानन्द ही सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं। उनका भाषण सुनकर ऐसा लगता है कि ऐसे उच्च श्रेणी के देश (अर्थात् भारत) में ईसाई धर्म प्रचारकों का भेजना बिलकुल मूर्खता है।’’ दूसरे ‘दि प्रेस ऑफ अमरीका’ ने टिप्पणी की- ‘‘स्वामी विवेकानन्द धर्मसभा में उपस्थित सभासदों में अग्रगण्य हैं। उन्होंने संपूर्ण मंडली को मानो सम्मोहिनी शक्ति द्वारा मुग्ध कर रखा था। वहाँ पर प्रत्येक ईसाई चर्च के प्रतिनिधिगण उपस्थित थे, पर स्वामीजी के भाषणों की आँधी में उनके वक्तव्य न जाने कहाँ उड़ गए। उनके ज्ञान- प्रदीप्त मुख मंडल से निकले हुए भाषण प्रवाह ने अंग्रेजी भाषा की मधुरता को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करके धर्म तत्त्वों को श्रोताओं के हृदय पर गंभीरता के साथ अंकित कर दिया।’’

इस प्रकार स्वामीजी ने ‘धर्म सभा’ के १७ दिन के अधिवेशन में हिंदू धर्म की वह सेवा कर दिखाई जिसको सहस्रों बड़े- बड़े माला, तिलक और त्रिपुंडधारी मिलकर भी आजीवन न कर सके थे। उस समय पचास- साठ वर्ष से हिंदू धर्म पर ईसाई पादरियों का आक्रमण हो रहा था। उनके सर्वसाधन संपन्न अनथक प्रचार और सरकारी सहायता से देश में हिंदू धर्म की नींव हिलने लगी थी और लाखों नवशिक्षित सुयोग्य व्यक्तियों का झुकाव ईसाईयत की तरफ होता जाता था। पुराने ढंग के साधु संन्यासी और पंडित इन लोगों को बुरा- भला तो कहते थे, पर किसी से यह नहीं बनता था कि विदेशी धर्म के इस प्रबल प्रवाह के सम्मुख खम ठोककर खड़ा हो जाए। स्वामी विवेकानन्द ने ईसाई धर्म प्रचारकों के भीतर घुसकर उनकी सारी किलेबन्दी को चूर- चूर कर दिया और उनके ऊँचे महल के ऊपर हिंदू धर्म की ध्वजा फहरा दी। इनका परिणाम संसार भर में हिंदू धर्म की मान- मर्यादा का बढ़ जाना तो हुआ ही, भारतीय शिक्षित जनों की आँखें भी खुल गईं और वे समझने लगे कि हम विदेशियों के भुलावे में पडक़र व्यर्थ ही अपने मणि- माणिकों को त्याग उनके चमकीले किंतु नकली नगों के ऊपर लहू हो रहे थे। यह एक ऐसी सफलता थी जिसके लिए हिंदू समाज स्वामीजी का चिरऋणी रहेगा।

स्वामीजी की सफलता और बाहरी दुनिया पर उनके अप्रत्याशित प्रभाव से ईसाई मिशनरी जल- भुन गए और उसी समय उनके विरुद्ध वे- सिर की बातें कहकर उनको बदनाम करने की चेष्टा करने लगे। उन्होंने कहा- ‘‘विवेकानन्द ने हिंदू धर्म की जो व्याख्या की है और जिस प्रकार आत्मा की महिमा घोषित की है, वर्तमान प्रचलित हिंदू धर्म में कहीं दिखाई नहीं देती। वे सूक्ष्म तर्क व युक्ति द्वारा मूर्तिपूजा की दार्शनिक व्याख्या करके पाश्चात्य जगत की आँखों में धूल झोंकने को उद्यत हुए हैं, क्योंकि जड़ की उपासना करने वाले मूर्तिपूजक हिंदू उस प्रकार की विचारधारा स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। विशेषत: विवेकानन्द एक कायस्थ परिवार में पैदा हुए हैं और हिंदू शास्त्रों के अनुसार धर्म- चर्चा उनके लिए अनधिकार चेष्टा है।’’ इस तरह अनेक निंदा- कुत्सा पूर्ण प्रलाप करके उन्होंने धर्म सभा के अधिकारियों को सलाह दी कि इस उच्छृंखल, चरित्रहीन युवक को सभा से निकाल दिया जाए। उन अधिकारियों ने ऐसे स्वार्थी व्यक्तियों की द्वेषपूर्ण बातों पर विश्वास तो नहीं किया, पर स्वामीजी को यह संकेत अवश्य किया कि आप विरोधियों द्वारा उठाई गई आपत्तियों का खंडन कीजिए।

दूसरे दिन स्वामीजी ने ‘हिंदू धर्म का सार’ विषय पर भाषण दिया और बोलते- बोलते वे एकाएक चुप हो गए। तब उन्होंने उपस्थित जन समूह को लक्ष्य करके प्रश्न किया- ‘‘इस सभा में जो सज्जन हिंदू धर्म व शास्त्रों से प्रत्यक्ष रूप से परिचित हैं, वे अपने हाथ उठाएँ।’’ सात हजार के विद्वत् समूह में से केवल तीन- चार हाथ ऊपर उठे। इस पर स्वामीजी ने, जिन्हें बाद में अनेक अमरीकन ‘योद्धा संन्यासी’ कहने लगे थे, मस्तक ऊँचा उठाकर दोनों बाहों को दृढ़तापूर्वक छाती के सामने लाकर गरजते हुए कहा- ‘‘इसी जानकारी पर तुम हमारे धर्म की आलोचना करने का साहस करते हो!’’ समस्त सभा निर्वाक् और स्तब्ध रह गई।

अंत में २७ सितंबर को धर्म सभा के अंतिम अधिवेशन में स्वामीजी ने वज्र कंठ से घोषणा की- ‘‘इस धर्म सभा ने अगर संसार के सम्मुख कोई महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रकट किया है तो वह यही है कि पवित्रता, चरित्र की उदारता किसी एक धर्म की मिल्कियत नहीं है। प्रत्येक धर्म में चरित्रवान स्त्री- पुरुष उत्पन्न हुए हैं। इस सत्य के होते हुए भी यदि किसी धर्म के नेता हृदय में ऐसी भावना रखते हों कि उनका धर्म ही स्थिर रहेगा और बाकी सब नष्ट हो जाएँगे, तो मैं उन्हें दया का पात्र समझता हूँ। मैं उनको बतला देना चाहता हूँ कि उनके ईष्र्या- द्वेष के होते हुए भी कुछ समय के भीतर प्रत्येक धर्म के झंडे पर यही शब्द लिखे जाएँगे- संघर्ष नहीं वरन् पारस्परिक सहयोग, विध्वंस नहीं वरन् एकता, विरोध नहीं वरन् समन्वय और शांति।’’

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