स्वामी विवेकानंद

रामकृष्ण मिशन की स्थापना

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इसी प्रकार मद्रास और कलकत्ता में इतनी धूमधाम से सैकड़ों स्वागत- समारोह किए गए कि कई सप्ताह उसी में निकल गए। जब इन सभाओं और भाषणों से छुट्टी मिली तो उन्होंने अपने मुख्य कार्य की ओर ध्यान दिया। अभी तक स्वामीजी के अधिकांश गुरुभाइयों का आदर्श मध्यकाल के संन्यासियों की भाँति सांसारिक विषयों से अलग रहकर कठोर तपस्या और ध्यान द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना ही था। पर स्वामीजी ने उसमें एक नया मोड़ देने के उद्देश्य से कहा- ‘‘समय की गति को देखते हुए तुम्हें लोगों का मार्गदर्शन करना चाहिए। गरीब, निराधार और दु:खी मनुष्यों में ईश्वर का दर्शन करके उनकी सेवा करना, यह अपने उदाहरण से बतलाना चाहिए और दूसरों को वैसा करने की प्रेरणा देनी चाहिए। दूसरों की सहायता और उद्धार के लिए अपना जीवन अर्पण करें, ऐसे संन्यासियों का एक नया संघ भारत में तैयार करना ही मेरा जीवन कार्य है।’’

बहुत कुछ वाद- विवाद, आनाकानी और अनिच्छा के पश्चात अन्य संन्यासी स्वामी जी के इस आदेश को श्री रामकृष्ण की ही प्रेरणा समझकर इस पर सहमत हुए। तदनुसार मई १८९७ में ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की गई। आरंभ में स्वामीजी ही इसके जनरल प्रेसीडेंट नियत किए गए। पर बाद में उन्होंने इसकी व्यवस्था के लिए एक ट्रस्ट बना दिया। जब संस्था का कार्य अधिक बढऩे लगा तो ‘रामकृष्ण मिशन’ तथा ‘रामकृष्ण मठ’ की अलग- अलग रजिस्ट्री कर दी गई।

स्वामीजी किसी को धर्म के नाम पर अन्याय, अत्याचार का समर्थन करते देखकर आवेश में आकर उसको कठोर उत्तर दे डालते थे। पर यदि कभी अपनी भूल मालूम पड़ती तो उसे स्वीकार करने में भी आनाकानी नहीं करते थे। ऐसी एक घटना मद्रास में हो गई थी। बंगाल के प्रसिद्ध नेता तथा परमहंस देव के भक्त श्री अश्विनीकुमार दत्त छ: वर्ष बाद स्वामीजी से मिले तो विभिन्न विषयों पर बातचीत करते हुए पूछ बैठे- ‘‘क्या यह ठीक है कि मद्रास में कुछ ब्राह्मणों ने आपसे कहा था कि तुम शूद्र हो और तुम्हें वेद का उपदेश देने का अधिकार नहीं। इस पर आपने उत्तर दिया- जो मैं शूद्र हूँ तो तुम मद्रास के ब्राह्मण भंगियों के भी भंगी हो।’’

स्वामीजी- ‘‘हाँ ऐसा ही हुआ था।’’ अश्विनीबाबू- ‘‘आप जैसे धर्मोपदेशक और आत्मनिग्रह वाले संत के लिए ऐसा उत्तर देना ठीक था?’’ स्वामीजी- ‘‘कौन कहता है कि वह ठीक था? उन लोगों की उद्धतता देखकर मेरा क्रोध अकस्मात् भडक़ उठा और ऐसे शब्द निकल गए। पर मैं उस कार्य का कभी समर्थन नहीं करता।’’ यह सुनकर अश्विनीबाबू ने स्वामीजी को हृदय से लगा लिया और कहा- ‘‘आज तुम मेरी दृष्टि में पहले से बहुत महान जान पड़ते हो। अब मुझे मालूम हो गया कि तुम विश्व विजेता कैसे बन गए।’’ १८९८ में बेलूर मठ की स्थापना की गई तो उन्होंने श्रीरामकृष्ण के अवशेष वाले ताम्र कलश को स्वयं कंधे पर उठाया और बड़े जुलूस के साथ उसे मठ के नए मकान में ले गए। रास्ते में उन्होंने कहा- ‘‘देखो, ठाकुर ने मुझसे कहा था कि अपने कंधे पर बैठाकर तू मुझे जहाँ ले जाएगा वहीं पर मैं रहूँगा। इन शब्दों पर श्रद्धा रखकर मैं स्वयं ठाकुर को नए मठ में लेकर चल रहा हूँ। इसलिए यह निश्चित समझ लेना कि जब तक गुरुदेव के नाम पर उनके अनुयायी सच्चरित्रता का व्यवहार करते रहेंगे, तब तक गुरु महाराज यहीं विराजेंगे।’’

स्वामीजी का स्वास्थ्य अब बहुत निर्बल होने लग गया था। पर इस दशा में अपने कर्तव्य पालन में किसी प्रकार की कसर नहीं होने दे रहे थे। महापुरुषों की दृष्टि में छोटी या बड़ी उम्र तक जीने का कोई महत्त्व नहीं होता। वे यही चाहते हैं कि जब तक साँस लेते रहें, तब तक भगवान का कोई न कोई काम संपन्न करते रहें। इसलिए जब उनका अमरीका से बार- बार बुलावा आया तो वे अस्वस्थ दशा में भी रवाना हो गए। न्यूयार्क पहुँच कर सबसे पहले ‘वेदांत सोसायटी’ का निरीक्षण किया तो जान पड़ा कि वह निरंतर प्रगति कर रही है और अब उसका निजी स्थान हो गया है। इसके बाद कैलीफोर्निया पहुँचे। वहाँ की आवहवा से स्वास्थ्य को कुछ लाभ पहुँचा तो भाषणों तथा राजयोग की शिक्षा का कार्य धूमधाम से चलने लगा। जब वहाँ का कार्य पूरा हो चुका तो एक शिष्या मिस ‘मिनीबूक’ ने १६० एकड़ जमीन वेदांत आश्रम बनाने को दी। स्वामीजी ने उसका कार्यभार स्वामी तुरीयानंद को दिया जिन्हें वे भारतवर्ष से अपने साथ ही ले गए थे।

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