संत विनोबा भावे

आस्तिकता और नास्तिक

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जब विनोबा ईश्वर का नाम लेकर गरीबों की सहायता के लिये अपील करते हैं तो ऐसे व्यक्ति भी निकल आते हैं, जो अपने को अनीश्वरवादी कहते हैं और समझते हैं कि धर्म- ग्रंथों में जिन बातों को ईश्वरीय वाक्य बतलाया गया है, वे हम पर लागू नही होती। कांचीपुरम (मद्रास )) में विनोबा से कहा कि- "यहाँ एक ऐसा समुदाय है, जोईश्वरव को नही मानता ।" विनोबा कहने लगे की- "इसमें कौन- सी नई बात हो गई ?? ऐसे आदमी 
सारे देश मे हैं, सारी दुनिया में हैं। हमें इसकी कोई परवाह नहीं, क्योंकि वे लोग भले ही भगवान् को न मानें, भगवान् तो उनको मानता है। बच्चा माँ को भूल जाए कोई बात नहीं, माँ बच्चे को भूल जाए तो बडी़ बात है।" 
           "जो लोग यह कहते हैं कि हम भगवान् को नही मानते, वे यह तो कहते ही हैं कि हम सज्जनता को मानते हैं, मानवता को मानते हैं। हमारे लिए इतना ही बहुत है। कोई आदमी मानवता को माने और भगवान् न माने तो हमें चिंता नही,क्योंकि मानवता को मानना और ईश्वर को मानना हमारी निगाह में एक ही बात है। इसके साथ ही हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जो लोग भग्वान्को मानते हैं, उन सबका भी एक -सा विचार कहाँ है ?? हम कहते हैं कि 'ईश्वर है भी और नही भी और दोनों से परे भी है।' भगवान् को कोई शिवजी के रुप में मानता है, कोई विष्णुजी के रुप में, कोई देवी के रुप में ।। इसी तरह यदि वास्तव में उसे शून्य के रुप में। मानते हैं तो हमें कोई एतराज नही। इससे कुछ बनता- बिगड़ता नहीं। 
             भगवान् पर विश्वास रखने से, उनका नाम लेकर आगे बढ़ने से अनेक दुनियादार सामान्य स्तर के व्यक्तियों का सहारा मिलता है, मार्ग में कठिनाई आने पर भी साहस बना रहता है और अनुचित कार्य से भय लगता है। पर यदि किसी की बुद्धी में ईश्वर का प्रचलित स्वरुप नही आता, कोई व्यक्ति यदि यह मानने से इनकार करता है कि भगवान् आकाश स्थित किसी लोक में सिंहासन पर बैठकर 'राजाओं' की तरह सबका न्याय और संसार की व्यवस्था करता है, तो इसमें कोई हानि नही। अगर किसी मनुष्य में इतना आत्म विश्वास और नैतिक बल हो कि वह अपना मानव- कर्तव्य स्वयं ही अच्छी तरह पालन कर सकता है, समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का ठीक तरह निर्वाह कर सकता है, तो उसमें और आस्तिक में कोई भेद मानना आवश्यकनही है। भगवान् भी मनुष्य की ऊपरी बातों को, प्रथा और परंपराओं को नही ,, उसके हार्दिक भावों और सच्चाई को देखते हैं। इसी आधार पर विनोबा ने नास्तिकों को 'मानव- कर्तव्य' का पालन करने की प्रेरणा देते हुए 'आस्तिकों को भी नही छोडा़, क्योंकि वे उनकी कमजोरियों को खुब जानते हैं।
           उन्होंने कहा- ''बहुत लोग मानते है कि चंदन लगाने से, माला फेरने से, राम का नाम लेने से, झांझ- मजीरा लेकर कीर्तन करने से भगवान् प्रसन होते है, ये सब चीजें अच्छी हो सकती है, लेकिन भगवान् खुश होते है- ईमानदारी से, सच्चाई से, दया से, प्रेम से, सेवा से। ये गुण हैं तो दूसरी चीजें भी अच्छी हो सकती है, येनही तो कुछ नही।'' 
          भगवान् की सबसे पहली आ़ज्ञा यही है कि मनुष्य को यह अद्भुत कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों से युक्त मनुष्य शरीर और भले- बुरे को समझ सकने का विवेक दिया गया है, उसका उपयोग सदैव अपने और दूसरों केकल्यान के लिए किया जाए। 'आस्तिकता' का अर्थ इतना ही नही है कि प्रात:काल उठकर कुछ भजन- पूजन कर लिया जाए या मन्दिर जाकर भगवान् की मूर्ति का दर्शन कर लिया जाए आवश्यकता तो यह है कि हम दिन भर अपने समस्त कामों में भगवान् के आदेश का ध्यान रखें, उसके विपरीत आचरण न करें। विनोबा कहते हैं- 
           '' किसान खेत में तो काम करता है, लेकिन खेत जोतते हुए पडो़सी कि जमीन में कुछ हाथ बढा़ देता है। कहता कि दूसरे के खेत में घास ही है, उससे क्या नुकसान है ?? यह तो धर्म नही, अधर्म है। उस किसान से भगवान् खुश कैसे होगा ?? मजदूर- मालिक के खेत में काम करता है। नाम तो वह काम क लेता है, पर बीच- बीच में आलस करता है। जब बैल कि तरह उस पर भी देख- रेख रखी जाती है, तब तो वह काम करता है, नही तो बैठ जाता है। उसे आठ घंटे काम करना चाहिए, लेकिन वह मुश्किल से चार घंटे काम करता है। कहता है- यह तो मालिक का काम है, अपना इससे क्य बिगड़ता है ?? '' यह भी धर्म नही है और न इससे भगवान् खुश हो सकता है। इसी तरह मालिक भी मजदूर से दिन दिन भर काम लेकर उसे पूरी मजदूरी देने में झूठे बहाने निकालता है और उसके कुछ पैसे काट लेता है। यह भी भगवान् का मार्ग- धर्म नही है ।'' 
           ''हमारे पास जो धन -दौलत है, शक्ति है, उसका उपयोग हम अपने साथ ही अपने पडो़सियों के हित की दृष्टि से करे तो यह भगवान् की भक्ति कही जायेगी ।। हम सब एक ही ईश्वर की संतान है, इसलिए सब मिलकर काम करे, मिल- बाँटकर खाँए,एक होकर भगवान् का नाम लें तो ईश्वर अवश्य प्रसन्न होगा ।। हम ईमानदारी से अपना काम करें, पूरा काम करे, तो भगवान् खुश होगा ।हम शराब न पियें,व्यसन न पाले, झगडा़न करें, तो भगवान् खुश होगा। जो लोग अपने को 'आस्तिक' कहते हैं ।भगवान् को मानते हैं, धर्म को मानते है, उनको चाहिए कि ऐसे ही काम करें, जिससे भगवान् उनसे खुश रहे।'' 
           आस्तिक हो या नास्तिक ,, ईश्वार के निकट पहुँचने का अधिकारी वही होगा, जो स्वार्थ को कम करके परमार्थ का व्यवहार भी करेगा। इस समय संसार में सबसे हानिकारक प्रवृति समाजपयोगी वस्तुओं पर अपना अधिकार जमा कर उनका ज्यादा से- ज्यादा हिस्सा अपने लिए रख लेने, ताले में बंद कर देने की है। की है। इसी से लोगों में तरह- तरह के झगडे़ और दोष- दुर्गुण फैलते हैं। इसलिए विनोबा यही कहते हैं कि तुम चाहे भगवान् को मानो या न मानो, पर 'मालकियात' सबको छोड़नी पडे़गी। 'स्वामी' बनने की हविस छोड़कर सबको अपना न्याययुक्त भाग प्राप्त करने में सहायता दो, तो तुम 'भगवान् के भक्त' ही माने जाओगे, चाहे मुँह सेउअसक नाम लो या न लो ।। 

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