संत विनोबा भावे

डाकुओं का हृदय परिवर्तन

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पीर पंजाल को पार करके विनोबा ने कश्मीर का भ्रमण किया। वहीं के मुसलमान निवासियों ने भी उनका अपने एक 'गुरु' (पीर) की तरह ही स्वागत- सत्कार किया ।। वहाँ से चलते समय उनको आगरा के प्रसिद्ध डाकूमानसिंह के पुत्र तहसीलदारसिंह का पत्र मिला, जिसमें लिखा था- ''बाबा ! मुझे फाँसी की सजा मिली है। मरने से पहले मैं आपके दर्शन कर लेना चाहता हूँ।'' अन्य लोगों ने भी उनसे कहा कि आप इस समस्या को प्रेम से सुलझाने का प्रयत्न करें ।। हिंसा से तो उअह गत दस- पंद्रह वर्षों में सुधारी नही पुलिस जितने डाकुओं को मारती या पकड़ती है, उतने ही फिर नये पैदा हो जाते हैं। इन सब बातों को सुनकर विनोबा ने इन डाकुओं को अपना जीवन- मार्ग बदलने का संदेश देने का निश्चय किया। ८ मई को वे आगरा के निकट चंबल के बेहड़ों में पहुँच गये, जहाँ डाकुओं के क्षेत्र में उनके मुख्य सहकारी जनरल यदुनाथ सिंह थे वे डाकुओं के पास जाकर विनोबा का संदेश पहुँचाते रहे कि ''डाका डालना किसी को मारना- पीटना, सताना गलत है। जो लोंग अभी तक ऐसा गलत काम करते रहे हैं, वे अब इसे छोड़ दे और अपनी जिंदगी सुधार लें।'' ८ जून तक एक महीने का समय उन्होंने इस काम में लगाया।

नतीजा यह हुआ कि लुक्का, लच्छी, भगवानसिंग, तेजसिंग,कन्हई जैसे २० प्रसिद्ध डाकुओं ने, जिनको मारने या पकड़ने के लिए सरकार ने बडे़- बडे़ इना घोषित कर रखे थे। विनोबा आगे अपने हथियार लाकर रख दिए और प्रतिज्ञा की कि अब ऐसा काम न करेंगे। एक डाकू बंबई में अखबार में पढ़ा कि बाबा विनोबा चंबल के बेहड़ों में घुम्- घुम कर 'भूल' में पडे़ भाईयोंको समझा रहें है, तो उसे अपनी अंतरात्मा से यह प्रेरणा हुई कि मैं भी बाबा के चरणों में पहुँचकर आत्म- समर्पण कर दूँ। उससे भेट होने पर विनोबा ने अपनी प्रवचन सभा में कहा- ''आज जो भाई आये है, वे परमेश्वर के भेजे हुए ही आये हैं। हमारा कोई साथी उनके पास नही पहुँचा था। ईश्वर ने प्रेरणा दी और वे यहाँ चले आये। ढाई हजार वर्षों से हम भागवान् बुद्ध और डाकू अंगुलिमाल की कहानी सुनते आ रहे हैं ।। आज कलियुग माना जा रहा है, पर इस कलियुग में भी ऐसी कहानियाँ बन रही है, यह ईश्व की कृपा है।

इस प्रकार दुर्धर्ष और कठोर हृदय- डाकुओं को हानिकारक समाज -विरोधी मार्ग से हटाकर समाज- सेवा के कर्म में प्रवृत कर देना एक प्रकार का चमत्कार ही माना जायेगा। जो दुस्साहसी व्यक्ति पुलिस और फौज वालों की रायफलों और मशीनगनों से नही डरते और डटकर उनका मुकाबला करते हैं, वे एक निहत्थेबुड़्ढे़ आदमी के सामने नतमस्तक हो जाएँ, तो यह दैवी शक्ति का ही एक कार्य समझा जा सकता है। जो लोग अध्यात्म- शक्ति को केवल एक कल्पना की बात मानते हैं और केवल धन या शस्त्र की शक्ति को ही कारगर बतलाते है, वे इस घटना को देखकर अपनी भूल को सुधार सकते हैं। धन और शस्त्र की शक्ति तो प्रत्यक्ष ही दिखाई पड़ती है, पर अध्यात्म की शक्ति अप्रत्यक्ष होते हुए भी उन दोनों से बढ़कर है, यह महात्मा गाँधी और संत विनोबा जैसी दैवी विभूतियों की कार्य प्रणाली से सत्य सिद्ध हो जाता है। साथ ही यह विदित होता है कि यदि धन तथा शस्त्र की शक्तियाँ अध्यात्म के नियंत्रण मे रहें, तभी वे दुनिया के लिए हितकारी हो सकती हैं।

पाकिस्तान की यात्रा द्वारा भी विनोबा ने इस तथ्य की पुष्टि की। वहाँ के शासक कैसे कट्टर संप्रदायवादीऔर हिंदुओ से द्वेष रखने वाले है, यह सभी को मालूम है। पर जब विनोबा आसाम की यात्रा करके वापस लौटे तो उन्होंने पाकिस्तान में होकर जाने का विचार किया। पाकिस्तान वालों ने इसे स्वीकार कर लिया और वहाँ पहुँचकर भी विनोबा ने वहाँ की जनता को प्रेम और करुणा का संदेश दिया। उन्होंने कहा- ''मुझे तो यहाँ कोई अंतर नही जान पड़ता जैसा हिंदुस्तान वैसा पाकिस्तान। वही जमीन, वही पेड़- पौधे, वही लोग, वही जनता। सब कुछ तो एक है।'' पाकिस्तान में भी विनोबा का धूम- धाम से स्वागत- सत्कार किया गया और जमीन माँगने पर १७५बीघा जमीन भी भेट की गई, जो उसी समय भूमिहीनों में बाँट दी गई।

चौदह वर्ष (सन् १६५१ से १६६४ तक )लगभग ४३ लाख मील की पैदल यात्रा करके विनोबा ने जब पुन: अपने आश्रम सेवाग्राम में प्रवेश किया तो उस समय तक उनको ४२३६२७ एकड़ जमीन भूदान में मिली और७५६० ग्राम दान में मिले। में मिले।

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