संत विनोबा भावे

ज्ञान- कर्म और भक्ति का समन्वय

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विनोबा में यह ज्ञान कर्म और भक्ति की त्रिवेणी कितने वेग से बह रही है, इसका कुछ अनुमान उनकी पुस्तकों से मिलता है, जिनमे उन्होंने सब धर्मों की एक- सी खूबियाँ बतलाकर सिद्ध किया है कि विभिन्न धर्मों का सिद्धांत एक- सा ही है। उनमें जो झगडे़ हुआ करते है। वे कट्टर '' अथवा भ्रम में पडे़ लोगों की करतूतें है। इसलिए ज्ञान का लक्षण यही है कि प्रत्येक सिद्धांत के सार को ग्रहण करके उनमे समन्वय की स्थापना करे। समन्वय का अर्थ है 'जोड़ना' अर्थात् अपने को मानव्- समाज में घुला- मिला देना और उससे एकरुपता का अनुभव करना। 'भूदान्' का काम करते हुए भी विनोबा यही कहा करते है कि मेरा काम जमीन बाँटना नही, दिलों को जोड़ना है।''

इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए विनोबा ने एक काम यह भी किया है कि 'भूदान- पद '' करते हुए विभिन्न धर्मों के प्रमुख ग्रंथों का सारांश प्रस्तुत कर दिया है, जिससे एक धर्म के मानने वाले दूसरे धर्म के स्वरुप को भी समझ सकें और उसके प्रति सद्भाव रखते हुए अच्छी बातों को सब जगह से ग्रहण कर सकें। उनकी इस प्रकार की रचनाओं की विवेचन अरते हुए, उनके एक सहकारी श्री सुरेशराम ने लिखा है- ''विनोबा ने गीता से ही कार्यारंभ किया है। उन्होंने बहुत वर्ष पहले 'गीताई' के नाम से 'गीता' का मराठी पदों में अनुवाद किया था, जिसका वहाँ खूब प्रचार है। पर विनोबा जानते हैं कि संस्कृत या मराठी में कुछ लिखने से तो सब लोग उनका लाभ उठा नही सकते इसलिए धूलिया जेल में दंडाज्ञा भोगते हुए उन्होंने गीता के १८ अध्यायों पर १८ प्रवचन हिंदी में किये। बाद में यह इतने महत्वपूर्ण माने गये कि वे पुस्तकाकार छप गये और अब तक उसके ५० से अधिक संस्करण हो चुके है, जिनमें जिनमें ५ लाख प्रतियाँ छापी गई है। इस पुस्तक का १८ भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इसके गुजराती, मराठी और तमिल अनुवाद भी एक- एक लाख प्रचारित हो चुके हैं। इसकी भूमिका में विनोबा ने लिखा है-

''मेरे जीवन में 'गीता ने जो स्थान पाया है, उसका मैं शब्दों में वर्णन नही कर सकता। 'गीता का मुझ पर अनंत उपकार है। प्रतिदिन मेइं उसका आधार लेता हूँ और प्रतिदिन मुझे उससे मदद मिलती है। उसका भावार्थ जैसा मैने समझा है, इन प्रवचनों में समझाने की कोशिश की है। मैं तो चाहता हूँ कि यह पुस्तक हर एक घर में पहुँचे, जहाँ हिंदी बोली जाती है। सब जगह इसका श्रवण, मनन और पठन हो।

इसी प्रकार उन्होंने बुद्ध भगवान् के धम्मपद का नये सिरे से संकलन किया और उसके आरंभ में लिखा कि- ''यह 'धम्मपद' की नवसंहिता पढ़कर पाठकों को प्रतीत होगा कि इसमे नये सिरे से समन्वय करने की बात नहीं है। समन्वय पहले से ही मौजूद है। गौतम बुद्ध से पहले ऋषियों अर्थात् ब्राह्मणों और तपस्वी श्रमणों की एक परंपरा पहले से ही चली आ रही थी। उनके विषय में नितांत आदर रखकर गौतम बुद्ध ने अपने विचार प्रकट किये हैं। मुझे विश्वास है कि 'विश्व- मानव के निर्माण में इससे कुछ मदद जरुर मिलेगी।''

इसी तरह अपनी कश्मीर- यात्रा के समय विनोबा ने सिक्खों के ध्रर्म ग्रंथ 'जपुजी' का सामूहिक अध्ययन करके उसका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया और उसकी प्रस्तावना में लिखा- ''यह नाम स्मरण की पुस्तक है। इसमें सत्पुरुष भगवान् की उपासना है। हम 'स्त्यनिष्ठ '' कैसे बने ?? ऐसा प्रश्न आरंभ में ही उपस्थित किया है अंत में समस्त साधना का सारांश निर्भय और 'निरवैर' इन दो शब्दों में बता दिया है। आज मनिष्यों के सामने जो समस्याएँ उपस्थित है, उनका हल इन दो शब्दों में मौजूद है।''

जब विनोबा ने इसी प्रकार 'कुरान का सार निकालने का निश्चय किया, तो लोगों ने इस कार्य में अनेक कठिनाइयाँ बतलाई। उनमें सबसे मुख्य यही थी कि कही मुसलमान अपने धर्म- ग्रंथ का इस प्रकार संक्षिप्त संस्करण बनाने से नाराज न हो जाएँ। पर विनोबा की भावना पूर्ण से निष्पक्ष और शुद्ध थी। इसलिए उन्होंने एक संकलन तैयार करके उसे ''रुहुल कुरान'' के नाम से प्रकाशित कराया। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है- ''साइंस ने दुनिया छोटी बना दी और सब इंसानों को नजदीक लाना चाहता है। ऐसी हालत में इंसानी- समाज फिरकों में बँटा रहे ,, हर जमात अपने को ऊँचा और दूसरे को समझे, यह कैसे चलेगा ?? हमे एक दूसरे को ठीक समझना होगा, एक- दूसरे के सद् गुण को हासिल करना होगा। वर्षों से भूदान के लिए मेरी पद- यात्रा चलती रही, जिसका मुख्य उद्देश्य दिलों को जोड़ना है। बल्कि मेरी जिंदगी के कुछ काम दिलों को जोड़ने के सदुद्देश्य से ही प्रेरित है।''

इसके बाद विनोबा ने ईसाई धर्मग्रंथ 'बाइबिल' के 'न्यू टेस्टामेंट' का अध्ययन शुरु किया। वैसा वे ४०- ५०साल से बाइबिल को पढ़ते रहे हैं,पर अब स्मन्वयवादी दृष्टिकोण से उसका सार निकालना है।

'विनोबा के विचारानुसार सब धर्मों का उद्देश्य लोगों के बीच मेल- मिलाप और सौहार्द पैदा करना है कि जो 'धर्म' जोड़ने के लिए बना है, वही तोड़ने का काम करने लगा और हजारों- लाखों 'धर्म' के नाम पर मारे- काटे गये। इसलिए अब 'धर्म' या 'मजहब' के दिन लद गये ।। साथ ही राजनीति का जमाना भी खत्म हुआ। विज्ञान के इस युग में दुनिया को अध्यात्म या रुहानियत का रास्ता ही अपनाना होगा, जहाँ राजनीति और विज्ञान का गठबंधन होने से उसका नतीजा सर्वनाश होता है, वहाँ अगर अध्यात्म और विज्ञान एक हो जाए तो दुनिया में स्वर्ग का अवरतण होने लगेगा। विज्ञान का फायदा उठाना है, उससे काम लेना है।तो उसके साथ अध्यात्म को जोड़ना होगा और यादि उससे फायदा न उठाना हो, उनकी बदौलत मर मिटना हो तो बीच में राजनीति को लाना चाहिए।''

इस समय संसार के ऊपर जो संकट के बादल छा रहे हैं और जगह -जगह युद्ध की आग भड़क रही है, उसके दो ही कारण हैं- एक दलबंदी और दूसरा विज्ञान का दुरुपयोग। पहली खराबी के बढने़ का मुख्य कारण कृत्रिम राष्ट्रीयता अथवा विभिन्न धर्मों में भेद करने की प्रवृति है और दूसरी खराबी राजनीतिज्ञों और बडे़व्यवसायियों द्वारा विज्ञान को लूटने- मारने का साधन बना लेना है ।। जब विज्ञान के साथ अध्यात्म का मेल हो जाएगा तो उसका वर्तमान नक्शा बिलकुल जाएगा। तब एटमबाम तथा राकेटों की खोज करने के बजाय, वैज्ञानिक उन विधियों की कोशिश करन लगेगा जिनसे लोगों का ठीक ढ़ग से भरण- पोषण हो और पूर्ण स्वस्थदीघायु और सुखी बने।

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