संत विनोबा भावे

ईशावास्यमिदं सर्वं

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विनोबा गीता और उपनिषदों के बडे़ अच्छे ज्ञाता थे। गीता पर उनका प्रवचन वर्तमान समय के लिये धर्म का विशेष मार्गदशर्न माना गया है। विनोबा ने उसके आरंभ में ही स्पष्ट कह दिया है कि 'गीता' किसी विशेष संप्रदाय या खास युग से बँधी नही है, वरन उसका सिध्दांत इतना सर्वकालीन और विकसनशील है कि पाँच हजार वर्ष पूर्व आज से सर्वथा भिन्न वातावरण और समाज- संगठन में कही जाने पर भी वह इस बीसवीं सताब्दीब के वैज्ञानिक युग में भी वैसी ही उपयोगी सिध्द हो रही है। इसका मूल कारण बताते हुए उन्होंने लिखा है- "पुरानी" संज्ञा परिभाषा को नया अर्थ प्राप्त करा देना गीता की प्रवृति है।पुराने शब्दों में नया अर्थ उन्मीलित करना विचारक्रांति की अहिंसक प्राक्रिया है। भगवान् व्यास इस कला में अति कुशल हैं। इसलिये गीता के शब्दों का सामर्थ विकासशील रहा। अपनी -अपनी आवश्य्कता और अनुभव के अनुसार विचारक तत्वदर्शी उसमें से विविध अर्थ पाते हैं। विचारकों की भूमिका के अनुसार सभी अर्थ समुचित हो सकते हैं।

ऐसी ही विवेचना उन्होंने "ईशावास्योपनिष्द्" की व्याख्या में की है। इस पनिषद् का मुख्य सिद्धांत इसके पहले श्लोक में ही बतला दिया है- ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यांजग्त्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम्।।

"इस जगत् में जो कुछ भी है वह सब ईश्वर द्वारा आच्छदित है। अर्थात् उसे ईश्वर ने उत्पन्न किया है और वही उसका स्वामी है।इसलिये मनुष्यों को उन सब सांसारिक पदार्थो का उपभोग त्याग और की भावना रखकर ही करना चाहिए, क्योकि ईश्वर के अतिरिक्त कोई भी इस भौतिक संपति का अधिकारी नही कहा जा सकता।"

संत विनोबा ने इसी शाश्वत सिद्धांत का प्रयोग भूदान- यज्ञ के लिए किया और लोगों को समझाया कि जमीन किसी एक व्यक्ति की नही हो सकती ।। इसे न तो किसी ने बनाया और न कोई इसे अपने साथ लाया या ले जा सकता है। यह तो भगवान् की ही बनाई है और उसने इसे मनुश्य मात्र के उपयोग के लिये दे दिया है। अब यदि इस पर कोई एक आदमी अपना अधिकार जमाकर दूसरों को उसका रोके ,तो यह स्पष्टत: ईश्वरीय आदेश के विपरीत है। इसी आधार पर उन्होंने जनता के सम्मुख नारा लगाया- सबै भूमि गोपाल की। नही किसी की मालिकी।।

इसका मतलब उन्होंने यही समझाया कि- "जितनी जमीन है, जितनी दौलत है, लक्ष्मी है- सब भगवान् की है, किसी आदमी की नही। इस पर किसी की मालिकी नही चल सकती ।। जो लोग कहते हैं की फलाँ आदमी इतनी जमीन का मालिक है, वह गलती करते है। पृथ्वी तो हमारी माता है, हम उसकी सेवा कर सकते है,उसके मालिक होने की बात कैसी ?"

पर आज जमाना उलटी चाल चल रहा है। जिन लोगों ने हल, बैल, खुरपी, फावड़ा से कभी हाथ नहीं लगाया, वे ही अधिकांश जमीन के मालिक बने बैठे है। उन्होने जमीन के चारों तरफ दीवार खडी़ करके या तार लगाकर उसके फटक पर "नो एडमिशन" (प्रवेशाधिकार नही) लिख दिया है। चाहे वे उस जमीन को खाली पडे़ रहने दें या तबांकू, अफीम ,, भाँग गाँजा, चाय आदि कोई अनावश्यक और हानिकारक पदार्थ बोयें, पर दूसरे लोग जिनको वास्तव में अन्न पैदा करके अपना पेट भरने की आवश्यकता है, उसमे कदम नही रख सकते। यह स्थिति बडी़ अस्वाभाविक है और समस्त सामाजिक अशांति तथा तरह -तरह के अपराधों की जड़ है। मालूम होता है कि जब तक संपति की मालिकी का रोग न मिटेगा अथवा स्वयं 'संपति' का ही अंत न हो जाएगा, जब तक दुनिया में शांति, प्रेम, एकता न होगी।

विनोबा ने यही आदर्श सामने रखकर कार्य आरंभ किया है ।। वे सच्चे धर्म को मानने वाले हैं और चाहते हैं कि मनुष्य ईश्वरीय आदेश क पालन करें- संसार के ईश्वर प्रदत पदार्थो पर अपना अधिकार जमाकर दूसरोम को उनसे वंचित न करें ।। जब उन्होंने देश के लाखों व्यक्तियों और उनके स्त्री- बच्चों को निर्वाह के सधनों की कमी के कारण भूखे -नंगे रहता देखा, तो उनके हृदय को बडी़ पीडा़ हुई और उसी भावना से अंत में उनको 'भू- दान' आंदोलन की प्रेरणा मिली। "ईशावास्योपनिषद्" के सिद्धांतानुसार वे लोगों को ही उपदेश देते हैं कि तुम अपने पास उतनी ही सामग्री रखो, जिसकी तुमको वास्तव में आवश्कता हो। आवश्यकता से अधिक पर अधिकार जमाने वाला और उसमें से दूसरे जरुरतमंदों को भाग न देने वाला 'गीता' के कथनानुसार 'चोर' है।

इस सिद्धांत की सच्चाई और महानता से कोई इनकार नही कर सकता। यही भारतवर्ष के प्राचीन धार्मिक आचार्यो का 'अपरिग्रह' व्रत है और यही वर्तमान युग के समाजवादी अथवा अरजकतावादी सिद्धांत का सार है आज संसार में जो हलचल मची है, अशांति फैल रही है, सर्वनाश के लक्षण प्रकट हो रहे हैं, उन सबका कारण दुनिया उपर्युक्त ईश्वरीय आदेश की अवहेलना ही है। इसी के कारण दुनिया गरीब और अमीर, शोषित और शोषक, साम्यवादी और पूँजीवादी दलों में बँटी हुई और उनकी कलह मानव सभ्यता के लिये एक भयंकर खतरे का रुप धारण करती जाती है। मानवता की रक्षा के लिये इस समस्या को सुलझाना अनिवार्य है।

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