संत विनोबा भावे

सदगी और संयम का जीवन

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इतने बडे़ विद्वान् और इतने बडे़ नेता होकर भी विनोबा में न तो अहंकार था और न किसी प्रकार की उनमें बनावट या दिखावा। इन्होंने वैदिक सभ्यता के सिद्धांतानुसार सन् १९१८ से ही सिले हुए कपडे़ पहनना छोड़ दिया था एक ही धोती को आधी बाँध लेते और आधी ओढ़ लेते थे। भोजन में नमक तक का त्याग भी उसी समय से कर रखा था। फिर किसी प्रकार के व्यसन की तो कल्पना ही कैसे की जा सकती ?? गाँधी जी के आश्रम में रहकर प्रतिदिन चौदह से सोलह घंटे तक कठोर श्रम करते रहे। अध्यापन, रसोई से लेकर मेहनत तक का काम करते थे और भोजन बहुत ही सादा तथा मात्रा में भी बहुत कम। इस प्रकार की तपस्या वर्षों तक करते रहने पर शरीर सूख गया। अधिक पढ़ने से आँखे भी खराब हो गयीं।

पर दूसरी तरफ इसका परिणाम यह हुआ कि बडे़- बडे़ नेता भी इनको सम्मान की दृष्टि से देखने लगे ।सन् १९२१ में ही सेठ जमनालाल बजाज नेवर्धा में एक आश्रम स्थापित किया, तो उन्होंने उसकी व्यवस्था के लिए विनोबा को माँगा। महात्मा जी को उन्हें अपने से अलग करने में कुछ कष्ट मालुम हुआ, तो भी उन्होंने सत्याग्रह का एक नया और सुदृढ़ केंद्र स्थापित करने के उद्देश्य से इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। विनोबा ने वर्धा आश्रम को किस प्रकार गाँधी जी के आंदोलन का एक प्रधान स्तंभ बनाया, इस संबंध में इनके जीवन- चरित्र में एक स्थान पर कहा गया है- ''वर्धा आश्रम के चलाने में विनोबा जी को कठिन परिश्रम करना पड़ा। खादी- कार्य से संबंधित प्रयोग में इनका प्रमुख योग रहा। लगातार कई घंटे तक चर्खा और तकली के साथ बैठना इनका नित्य कर्तव्य था। खादी प्रचार की मूल- भावना क्या है ?? इसे लोगों को समझाने की चेष्टा वे सदैव किया करते थे। साथ ही कातना, धुनना, बुनना आदि क्रियाओं का भी उन्होंने पर्याप्त अध्ययन किया और उनका ज्ञान दूसरों को भी कराया इसके अनेक नये -नये प्रयोग भी इन्होंने निकाले। यह कहा जा सकता है कि प्रयोग, भाषण तथा लेखन द्वारा विनोबा जी ने जितना खादी का काम किया, उतना महात्मा जी को छोड़कर किसी ने नही किया। इस संबंध में स्वयं महात्मा जी ने लिखा

''विनोबा का यह विचार है कि व्यापक कताई को सारे कार्यक्रम का केन्द्र बनाने से ही गाँवों की गरीबी दूर हो सकती है। कताई को बुनियाद मानकर इन्होंने 'मूल उद्योग कातना '' नमक पुस्तक भी लिखी है, जिसका हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं में बहुत अधिक प्रचार हुआ है।''

विनोबा का कहना था कि संस्थाओं के स्थापित करने आ उतना महत्व नही है, जितना कि अकेले ही बन पडे़ उसे पूरी सच्चाई के साथ करते जाने का, संस्था में प्राय: बड़प्पन और पद- लोलुपता का भाव उत्पन्न होता है, जो हानि ही पहुचाती है एक बार कोई बडे़ कार्यकर्ता विनोबा के पास आये और एक संस्था स्थापित करने के संबंध में उनकी सम्मति पूछी। इन्होंने कहा- '' आपको अनासक्त बुद्धि से सच्ची सेवा करनी हो, तो संस्था खोलने के झमेले में मत पड़िये। स्वयं जितना बन सके उतना सेवा- कार्य, बड़प्पन की इच्छा न रखते हुए करते रहिये। इसी से जनता की सच्ची भलाई हो सकेगी।''

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