गौतम के गृह त्याग का वर्णन बौद्ध ग्रंथों में बडे़ विस्तार से और प्रभावशाली ढंग से किया है। आधुनिकयोरोपियन विद्वानों ने भी उसके संबंध में अपनी सम्मति बडे़ प्रशंसनीय रूप में प्रकट की है। वास्तव में उनका यह कार्य था भी ऐसा ही। यही कारण है कि आज २५०० से भी अधिक वर्ष बीत जाने पर करोडो़ं व्यक्ति उससे प्रेरणा ग्रहण करते रहते हैं। इस घटना का इनके एक जीवन चरित्र में मार्मिक उल्लेख आता है।
जब राहुल सात दिन का हो गया तो उसी दिन गौतम का हृदय अत्यंत चंचल हो उठा। संसार का सारा सुख उन्हें काटने को दौड़ता था। चारों ओर आधि- व्याधि की प्रचुरता दीखाई पड़ती थी। उसी दिन अर्धरात्रि को वे उठ खडे़ हुए। उस समय उनकी सेविकाएँ अर्धनग्न अवस्था में सो रही थीं, जिसे देखकर उनको और भीविरक्तता हो गई। गौतम अब घर में नहीं रह सके। उन्होंने चुपके से अपने सारथी चंडज (छन्नक) को जगाया और अपने प्यारे घोडे़ 'केतक' को लाने की आज्ञा दी। सारथी यह सुनकर आश्चर्य में आ गया। उसने गौतम को इस समय घूमने को मना किया, पर राजकुमार ने न माना। राजमहल छोड़ने से पहले एक बार गौतम अपनी स्त्री के शयनागार में गए, किंतु उस समय उनकी स्त्री पुत्र के मुख पर हाथ रखकर सो रही थी। जाग जाने के डर से उन्होंने उसका हाथ न हटाया। उस समय यशोधरा भी अपार रूपवती जान पड़ रही थी। पर गौतम अपने हृदय को पक्का करके स्त्री और पुत्र की ममता को त्यागकर बाहर निकल आए और जंगल की तरफ रवाना हो गए।
जंगल में पहुँचकर वे घोडे़ से उतर पडे़ और चंडक से कहा- "अब तुम इसे लेकर नगर को लौटजाओ।" चंडक ने भी गौतम से बहुत अनुनय- विनय की, कि वे उसे ऐसी कठिन परीक्षा में न डालें और राजमहल वापस लौट चलें, पर वे अपने निश्चय से टस से मस न हुए और जंगल में अग्रसर होते चले गए, प्रातःकाल होने पर उन्होंने अपने वस्त्र एक भिखारी से बदल लिए और तलवार से अपने घुँघराले लंबे केशों को काट डाला। इसके बाद धर्म का निश्चय करने के लिए पागल की तरह इधर- उधर घूमने लगे। एक स्थान पर उन्होंने यज्ञ होते देखा, जिसमें वेदी के निकट बहुसंख्यक पशुओं को बलिदान दिया जा रहा था और चारों ओर रक्त ही रक्त दिखाई पड़ रहा था। यह दृश्य देखकर उनको बडी़ वेदना हुई और वे अपने मन में विचार करने लगे।
"ये लोग सोचते होंगे कि हम धर्म कर रहे हैं, पर ये नहीं जानते कि ये इस समय महान् नीचता का कार्य कर रहे हैं। कहीं ऐसे 'धर्म' से मन को शांति मिल सकती है? चित्त निर्मल हो सकता है? यह सब पेट भरने की कला है।"
गौतम फिर जंगल में पहुँच गए और दो तपस्वी ब्राह्मणों के पास रहकर वेदादि ग्रंथों का अध्ययन करने लगे, पर जब एक वर्ष तक वेदाध्ययन से भी उनको शांति प्राप्ति के कुछ लक्षण दिखाई न पडे़ तो वे अन्य पाँच व्यक्तियों के साथ घोर तपश्चर्या करने के निमित्त दूसरे घने जंगल में चले गए।
इस प्रकार वे विभिन्न सिद्धांतों के अनुयायी साधुओं के पास रहकर कई वर्ष तक तप करते रहे, जिससे उनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया और कार्य शक्ति भी बहुत घट गई, पर इससे न तो उनके मन की समस्याओं का समाधान हुआ और न उनको आत्मिक शांति ही मिल सकी। अंत में वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि केवल गृह त्यागकर वन में निवास करने और स्वेच्छा से शारीरिक कष्ट सहन करने से ही ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसके लिए आवश्यक है कि पूर्वाग्रहों की चिंता न करके संसार की स्थिति और समस्याओं पर उदार भाव से विचार किया जाए और बुद्धिसंगत था तर्कयुक्त निर्णय को स्वीकार किया जाए। इस मार्ग पर चलने से उनके हृदय में सत्यज्ञान का उदय हुआ। कहा जाता है कि यह ज्ञान उनको वर्तमान गया नगर के समीप एक बरगद के वृक्ष के नीचे निवास करते हुए प्राप्त हुआ, जिससे उसका नाम 'बोधि वृक्ष' पड़ गया। आगे चलकर वह स्थान बुद्ध मत वालों का प्रधान तीर्थ स्थान बन गया।