समर्थ गुरु रामदास

आदर्श साधु जनसेवक के लक्षण

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समर्थ गुरु रामदास स्वयं साधु थे और उन्होंने हजारों साधु बनाए। वर्तमान समय में साधु-सुमुदाय की जो दशा हो रही है। यदि वे वैसे ही स्वार्थ परायण अथवा पेट की खातिर गेरुआ धारण करने वाले होते तो निस्संदेह उनको निंदा का ही पात्र समझा जाता और कोई उनका स्मरण न करता ? पर समर्थ गुरु का आदर्श इससे बिस्कूल भिन्न था। वे पेट भरने या दुनिया को ठगने के लिए साधु नहीं हुए थे, वरन उनका उद्देश्य परिवार- पालन के भार से मुक्त रहकर अपनी संपूर्ण शक्ति जन- सेवा और देशोद्धार में लगाना था। उन्होंने जो मठ और मंदिर स्थापित किए थे उनके व्यवस्थापक साधुओं के भी ऐसे ही कर्तव्य निर्धारण किए थे। इस संबंध में महंत के लक्षण '' शीर्षक अध्याय में उन्होंने लिखा है- 'महंत को हरिकथा निरूपण उत्तम राजनीति और व्यवहार ज्ञान भी होना चाहिए। वह पूछना जानता हो, कहना या बतलाना जानता हो, अनेक प्रकार से व्याख्यान करना जानता हो और सबका समाधान करना जानता हो। उसे दूरदर्शिता के बल से वास्तविक बात पहले ही मालूम हो जाती हो वह सावधानीपूर्वक प्रबल तर्क कर सकता हो और अच्छी तरह समझकर उचित बातें चुन सकता हो। जो इस प्रकार के सब कार्य कर सकता हो, वही बुद्धिमान् महंत है। जो एकांत में रहकर विचार करता हो अच्छे- अच्छे ग्रंथों का अध्ययन करता हो, मन के गूढ़ अर्थ को समझता हो और पहले स्वयं कोई बात सीखकर दूसरों को सिखलाता हो, वही महंत की श्रेष्ठ पदवी पाता है और विवेक बल से सांसारिक कष्टों तथा झगड़ों में फँसे लोगों का उद्धार करता है। उसका लिखना- पढ़ना बोलना- चालना सभी सुंदर होता है और भक्ति ज्ञान, वैराग्य की सब बातें वह अच्छी तरह जानता है। उसे प्रयत्न करना बहुत अच्छा लगता है, वह अनेक संगों (कार्यक्रमों) में प्रवेश करता है और साहसपूर्वक आगे बढ़ता है। ''

इस प्रकार किसी मठ की अध्यक्षता करने वाले साधु की उन्होंने जो कल्पना की है, वह वर्तमान समय के किसी समाज- सेवी नेता से मिलती- जुलती ही है। ऐसे व्यक्ति साधु के वेश में रहते हुए भी समाज के संचालक और मार्गदर्शक होते हैं, पर उनकी विशेषता यह थी कि इस प्रकार लोकहित के कार्यों में भाग लेने पर भी वे उसे निःस्वार्थ भाव से ही करते थे और स्वयं सब प्रकार के माया-मोह और बंधनों से बचे रहते थे। इसीलिए उन्होंने महंत को समाज- संचालन की आज्ञा देते हुए यह भी चेतावनी दी थी कि सांसारिक झगड़ों का समाधान करते हुए उनको स्वयं उनमें नहीं फँस जाना चाहिए- वह सब उपाधियों में मिलना भीं जानता है और अपने आपको उनसे अलिप्त' रखना भी जानता है। वह सब जगह रहता है, पर ढूँढ़ने पर कहीं नहीं मिलता और अंतरात्मा की तरह सब जगह रहने पर भी गुप्त रहता है। कोई प्राणी अंतरात्मा से रहित नहीं होता, तो भी यदि उसे देखना चाहें तो वह दिखाई नहीं पड़ती और अदृश्य होकर ही सब काम चलाती है। महंत भी अंतरात्मा की तरह ही होता है। सब लोगों को अच्छी- अच्छी बातें बतलाकर उन्हें चतुर बनाता है और स्कूल तथा सूक्ष्म सब प्रकार की विद्याओं की व्यवस्था करता है। वह स्वयं अपने बल से चतुर बनता है और सदा प्रयत्न करता है, पर उनमें लिप्त नहीं होता। ज्ञानी की महंती' इसी प्रकार की होती है, वह नीति और न्याय की रक्षा करना जानता है। न स्वयं अन्याय करता है और न दूसरों को करने देता है तथा विकट अवसर आ पड़ने पर भी उससे पार पाने का उपाय करना भी जानता है।

आज भारत में पाए जाने वाले एक करोड़ साधु '' तथा भिक्षु' नामधारियों की समस्या के कारण हम परेशान होते रहते हैं और उनको समाज का एक असह्य भार समझकर उनके निवारण की योजनाएँ बनाया करते है। पर यदि ये साधु '' समर्थ गुरु के बतलाए आदर्श के अनुयायी होते, समाज से नाम मात्र के लिए निर्वाह के साधन लेकर उनके अनेक संगठनात्मक और रचनात्मक कार्यों की पूर्ति करते रहते तो कौन उनको बुरा कह सकता था अथवा उनसे पीछा छुड़ाने की बात सोच सकता था? साधु '' की पदवी निस्संदेह बहुत ऊँची है और उसका आशय संसार के उपकार के लिए आत्म- त्याग करना ही है। समर्थ गुरु रामदास ऐसे ही साधु थे और उस आपत्तिकाल में हिंदू- धर्म और समाज की दुर्दशा को देखकर उन्होंने ऐसे ही आत्म-बलिदानी स्वयं- सेवकों '' का निर्माण और संगठन किया था। यही कारण था कि महाराज शिवाजी जैसे महान् शासक को उन्हें गुरु बनाना गौरवास्पद जान पड़ा और उन्होंने अपना राज्य तथा सर्वस्व उनके चरणों पर भेंट करके स्वयं एक कार्यवाहक की हैसियत से ही उसका संचालन किया।

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