समर्थ गुरु रामदास

राजनीतिक शिक्षा की आवश्यकता

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समर्थ गुरु का मुख्य उद्देश्य अपने राष्ट्र को सशक्त और बनाना था, सुदृढ़ इसीलिए उन्होंने धर्म के साथ लोगों को राजनीति का उपदेश दिया। प्राय: यह देखने में आया था कि भारतीय शासक शक्तिशाली और सब तरह से रणकुशल होने पर भी विदेशियों की कूटनीति और छल-बल के कारण हार गए। मुसलमान आक्रमणकारियों ने सर्वप्रथम भारतीय नरेशों में फूट उत्पन्न करके उनके भीतर अपने भेदिया घुसाकर ही इस देश में अपना कदम जमाया था। अगर भारतवासी इस तरफ से सचेत रहते और शत्रु की चालों का आशय समझकर उसका मुकाबला सम्मिलित रूप से करते तो मुसलमान शासकों का सफल हो सकना कदापि संभव न था। इतना ही नहीं, अगर वे सम्मिलित रूप से प्रयास करते तो अफगानिस्तान और तुर्किस्तान जैसे छोटे- छोटे देशों का उसी समय खंड- खंड कर डालना उनके लिए कुछ भी कठिन न था।

इसी तथ्य को दृष्टिगोचर रखकर समर्थ गुरु ने अपने अनुयायियों को धर्म के साथ राजनीति का भी उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि - "राजा को सब प्रकार की शंकाओं को मिटाते रहना चाहिए और लोगों के सामान्य अपराधों को क्षमा करते रहना चाहिए। दूसरे की मन की बात समझना चाहिए और न्याय तथा नीति में अंतर न पड़ने देना चाहिए। चतुरता से लोगों का मन अपनी ओर आकृष्ट करना चाहिए, हर एक को संतुष्ट रखना चाहिए और यथाशक्ति सभी सांसारिक कार्यों को सँभालना चाहिए। विशिष्ट कार्यों को पूरे करने का अवसर धैर्यपूर्वक देखते रहना चाहिए। किसी के साथ बहुत अधिक घनिष्ठता नहीं रखनी चाहिए। अपने कार्यों का विस्तार करते रहना चाहिए, पर उनके जाल में नहीं फँसना चाहिए। लघुता और मूर्खता से बचना चाहिए। दूसरे के दोषों पर पर्दा डालना चाहिए, क्योंकि सदैव किसी के अवगुणों को कहते रहना अच्छा काम नहीं। यदि दुष्ट व्यक्ति अपने वश में आ जाए और उसके सुधरने की आशा हो तो उसके साथ उपकार करके उसे छोड़ देना चाहिए। किसी कार्य करने में हठ नहीं करना चाहिए, वरन् जो कार्य न हो उसे दीर्घ प्रयत्न और युक्ति से पूरा करना चाहिए। ''

''अपने दल मे फूट न होने देनी चाहिए और किसी से अधिक विवाद न करना चाहिए। दूसरों के उद्देश्य को समझना चाहिए और यदि अपने विरुद्ध बहुत- से लोग हों तो घबड़ाना न चाहिए अथवा दूसरे स्थान में चला जाना चाहिए। दूसरों का दुःख समझना चाहिए, कम से कम उनका हाल पूछकर ही उनका दुःख बँटाना चाहिए। अपने समुदाय या समाज पर जो भलाई -बुराई आए, वह सब सहनी चाहिए। अध्ययनजन्य ज्ञान का अपार भंडार रहना चाहिए। मन में अच्छे- अच्छे विचार प्रस्तुत रहने चाहिए और परोपकार करने को सदा तत्पर रहना चाहिए। स्वयं शांति प्राप्त करनी चाहिए और दूसरों को शांति देनी चाहिए, स्वयं हठ छोड़ना चाहिए और दूसरों का हठ छुड़ाना चाहिए, स्वयं अच्छे काम करने चाहिए और दूसरों से कराने चाहिए। यदि किसी का कोई अहित करना पड़े तो पहले से कहना नहीं चाहिए और दूर से ही उसे उस अहित का अनुभव करा देना चाहिए। जो बहुत- से लोगों की बातें सहता है, उसे बहुत- से आदमी मिलते हैं, पर बहुत सहनशीलता दिखलाने से भी अपना महत्त्व नहीं रह जाता। राजनीतिक चालें अवश्य चलनी चाहिए, पर इस तरह कि किसी को इनका पता न चले। लोगों की अच्छी तरह परख रखनी चाहिए और राजनीतिक चालों से उनका अभिमान नष्ट कर देना चाहिए। कच्चे आदमी को अपने से दूर रखना चाहिए, बदमाशों से भी बात करनी चाहिए और अवसर पड़ने पर उनसे बचे भी रहना चाहिए। इस तरह की राजनीतिक चालें बहुत सी हैं, मन निश्चिंत रहने पर ही वे सूझती हैं। ''

इस प्रकार समर्थ गुरु ने अपने अनुयायियों को उस राजनीति की शिक्षा दी, जो असत्य और बेईमानी पर नहीं वरन् विवेक , सूझ−बूझ और सावधानी पर आधारित होती है। उन्होंने कहा है कि-जो डरकर वृक्ष पर चढ़ जाए, उसे दम- दिलासा देना चाहिए और जो लड़ने को तैयार हो, उसे धक्का देकर गिरा देना चाहिए। इसका आशय यह कि सांसारिक व्यवहार में भी हमको अकारण किसी का अहित नहीं करना चाहिए, यथासंभव समझौते तथा मेल- मिलाप की नीति से ही काम लेना चाहिए। लड़ना तभी चाहिए जब कोई नीच या स्वार्थी व्यक्ति दुष्टता करने पर उतारू हो। शिवाजी महाराज ने इसी नीति पर चलकर महाराष्ट्र में अद्भुत एकता एवं संगठन शक्ति उत्पन्न कर दी और औरंगजेब जैसे साम्राज्यवादी के छक्के छुड़ा दिए। स्वदेश और स्वधर्म के हिताकांक्षी व्यक्तियों के लिए यही नीति कल्याणकारी है। देश में अकारण अशांति या रक्तपात की स्थिति उत्पन्न करना श्रेष्ठ नीति नहीं है। महात्मा ईसा जैसे संत पुरुष भी यही कह गए हैं कि-जो तलवार के आधार पर रहते हैं, उनका अंत भी तलवार से ही होता है। '' इसलिए सच्ची राजनीति वही है, जिसमें दुष्टों के दमन के साथ शिष्टों के रक्षण और पालन का भी पूरा- पूरा ध्यान रखा जाए।

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