समर्थ गुरु रामदास

विदेशी शासन से हिंदू धर्म में विकृति

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उनके समय में विधर्मियों की प्रधानता के कारण हिंदू-धर्म एक संकट काल से होकर गुजर रहा था और विदेशी शासकों के राजनीतिक तथा सामाजिक दबाव के कारण उसमें तरह-तरह के दूषित सिद्धांतों और क्रियाओं का समावेश हो रहा था। सामान्य हिंदू जनता पहले ही बहुंदेववादी थी। वह राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, गणेश सूर्य आदि के साथ और भी बीसियों क्षुद्र स्थानीय देवों की पूजा करती थी। अब मुसलमानों के संपर्क में आकर वह उनके फकीर और औलियाओं को भी 'चमत्कारी' मानकर पूजने लगी थी। ऐसे लोग मुसलमानों के ताजियों को भी एक प्रकार की मूर्ति समझकर उनकी मानता करते थे और उस अवसर पर बाँटे जाने वाले मलीदा को प्रसाद समझकर खा लेते थे। बहुत से उस अवसर पर हरे कपडे पहनकर थोडी देर के लिए फकीर बन जाते थे और अपने छोटे बच्चों को ताजियों के नीचे होकर निकालते थे। इस प्रकार के व्यवहार के कारण बहुसंख्यक हिंदुओं की श्रद्धा अपने धर्म पर से शिथिल होती जाती थी और समाज में तरह-तरह की दूषित प्रथाओं का प्रवेश होता जाता था।

इतना ही नहीं, अनेक हिंदू पंडित और ब्राह्मण मुसलमानों के प्रभाव अथवा व्यक्तिगत लाभ दृष्टि से मुसलमानों की कितनी बातों का समर्थन भी करने लगे थे। दक्षिण में दो ब्राह्मण किसी मुसलमान शासक के उकसाने पर वैदिक कर्मकांड करने वालों पर आक्षेप करने लगे। उन्होंने कहा-"मुसलमान पशु-वध करते हैं, इसके लिए यदि वे दोषी हैं तो ब्राह्मण भी यज्ञ में पशु हिंसा करते है, वे दोषी क्यों नहीं ?" कितने ही पंडितों ने प्राचीन शास्त्रों औरss स्मृतियों में ऐसे श्लोक बनाकर सम्मिलित कर दिए, जिनसे हिंदू-धर्म की हीनता प्रकट होती थी और वह निर्बल बनता था।

समर्थ गुरु रामदास ने हिंदू-धर्म की इस विकृति को देखा तो, इससे उनके हृदय को चोट। अपने आस-पास के लोगों के ऐसे कार्यों और बातों को देखकर वे छोटी अवस्था से ही हानिकारक धार्मिक रूढ़ियों के संशोधन और समयोपयोगी सशक्त विचारधारा के प्रचार की कल्पना किया करते थे। उनके अनुयायियों का कथन है कि, बहुत छोटी अवस्था में ही उन्होंने कितने ही दिन तक हनुमान जी के मंदिर में बैठकर इसी उददेश्य की पूर्ति के लिए जप किया था और उनकी निष्ठा से प्रसन्न होकर हनुमान् जी ने प्रकट होकर मंत्रोपदेश देकर कहा-सारी पृथ्वी में यवन छाए है, अनीति का राज्य है, दुष्ट लोग अधिकार-सत्ता से मतवाले होकर साधुजनों को सता रहे हैं। इसलिए तुम वैराग्य वृत्ति से कृष्णा नदी के तट पर उपासना करके ज्ञान प्राप्त करो और लोकोद्धार के कार्य में संलग्न हो जाओ।" उसी समय से समर्थ गुरु ने अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य धर्म का संशोधन और उसकी रक्षा करना ही बना लिया।

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