गुरु नानक देव

जन्म और बाल्यकाल

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
गुरू नानक का जन्म लाहौर के पास तलवंडी गाँव में सन् १४६९ में हुआ था। उनके पिता कालूराम पटवारी एक सामान्य गृहस्थ थे और सरकारी कार्य के सिवाय कुछ खेती- बाड़ी भी करते थे। नानक के जन्म और बाल्यकाल की कई चमत्कारी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। जैसे गर्भ से बाहर आते ही वे अन्य बालकों की तरह रोने के बजाय हँसने लगे थे और जंगल में सोते हुए एक सर्प ने उनको धूप से बचाने के लिए अपना फन फैलाकर छाया कर दी थी। हम इन बातों को अधिक महत्त्व नहीं देते, क्योंकि हमारी दृष्टि में इन चमत्कारों की अपेक्षा वे सिद्धांत कहीं उच्च हैं, जिनका प्रचार उन्होंने अपने जीवन- काल में किया और करोड़ों व्यक्तियों को एक ऊँचा और व्यावहारिक जीवन- मार्ग दिखाया।

कुछ भी हो, नानक जी की जीवन- साखियों के आधार पर उनका जो वृतांत ज्ञात होता है, उससे यही जान पड़ता है कि वे एक विशेष संस्कारी व्यक्ति थे, जिनको अन्य बालकों के समान खेलने- कूदने का शौक न होकर भगवान् तथा आध्यात्मिक विषयों की ही अधिक रुचि थी। श्रीरामकृष्ण परमहंस की तरह वे पढ़े- लिखे तो बहुत सामान्य ही थे, पर उनका आंतरिक ज्ञान छोटी अवस्था से ही प्रकट होने लग गया था। जब एक पंडित ने उनको अक्षराभ्यास आरंभ कराया, तभी उन्होंने कहा कि ये ‘क ’ ‘ख ’ ‘ग ’ आदि केवल अक्षर नहीं है, वरन् इनमें परमात्मा की एकता तथा उसके स्वरूप का रहस्य समाया हुआ है। इसी प्रकार जब किसी मौलवी ने फारसी, अरबी पढ़ाने की चेष्टा की और इस्लाम की खूबियाँ समझाई, तब उनको भी ऐसा ही उत्तर दिया। वास्तव में उनका ध्यान पुस्तकों की तरफ बहुत कम जाता था, अधिकांश में वे भजन चिंतन, ध्यान की तरफ ही आकृष्ट रहते थे। उसी छोटी आयु में चाहे जब पास वाले जंगल में चले जाते और वहाँ के एकांत वातावरण में प्रभु का ध्यान करते रहते। कहा जाता है कि उस जंगल में कभी- कभी उनकी भेंट ऐसे महात्माओं से हो जाती थी, जो उनको आध्यात्मिक रहस्य समझाते थे और इस मार्ग में आगे बढ़ने का उपदेश देते थे। जब ये नौ वर्ष के हो गये तो पिता ने एक पंडित को बुलाकर कुल की परंपरा के अनुसार इनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। उस समय जनेऊ धारण करते समय उन्होंने पंडित से जो कुछ कहा उसका सारांश ‘‘आसा दी वार’’ पुस्तक में इस प्रकार दिया है-

दया कपाह संतोष सूत, जत गंढी सत बट्ट ,, एह जनेऊ जीय का ,, है ताँ पांडे धत्त। न एह टूटे न मल लग्गे ,, न एह जले न जाई, धन्य सु माणस नानक, जो गल चल्ले पाई॥

अर्थात्- "दया को कपास बनाकर संतोष रूपी सूत काते, उस सूत को सत्य रूपी लपेट चढ़ाकर संयम से संस्कार कर उसे पहने। पंडित जी ! मैं तो ऐसा जनेऊ पहिनना चाहता हूँ, जो न टूटे, न मैला हो, न जले, न अन्य प्रकार से नष्ट हो, जिसने इस रहस्य को जान लिया है, वही इस संसार में धन्य है।’’

जब नानक जी का भजन- भाव बहुत बढ़ गया, यहाँ तक कि उनको प्रायः खाने- पीने का भी ध्यान नहीं रहता था, तब उनके माता- पिता को चिंता हुई। उन्होंने समझा कि पुत्र को कोई रोग हो गया है। इसलिए उन्होंने एक वैद्य से इनकी परीक्षा करके दवा देने को कहा। वैद्य जब नाड़ी देखने लगा तो नानक जी ने इस आशय का वचन कहा- वैद बुलाया वैदगी पकड़ ढंढोले बाँह ।। भोला वैद न जानइ, करक कलेजे माँह॥

अर्थात्- ‘‘मेरा इलाज करने के लिए वैद्य बुलाया है और वह हाथ पकड़कर जाँच कर रहा है, पर भोला वैद्य यह नहीं जानता कि पीड़ा तो हृदय में है।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118