इस प्रकार बाल्यावस्था से ही इनमें सत्य, अहिंसा, संयम आदि सद्गुण भरपूर मात्रा में पाये जाते थे और सांसारिक प्रपंचों से बहुत दूर रहते थे। पर साथ ही इनकी एक बहुत बड़ी विशेषता यह थी कि अन्य ‘‘साधुमहात्माओं ’’ की तरह न तो इन्होंने संसार को छोड़ा और न उसकी निंदा की। वर्तमान भारतीय समाज में ‘‘बड़ेमहात्मा ’’ का लक्षण यही समझ लिया गया है कि घर- गृहस्थी को त्याग कर समाज से दूर वन या पर्वत में जा बैठे और संसार से कोई मतलब न रखे। पर यह विचार किसी प्रकार प्रशंसनीय या अनुकरणीय नहीं कहा जा सकता। मनुष्य को जो कुछ गुण या शक्ति प्राप्त होती है, उसका श्रेय मुख्यतः समाज को ही होता है।बिना समाज की सहायता तथा सहयोग के न तो कोई जीवित रह सकता है, न ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अगर मनुष्य शास्त्रों और ग्रंथों द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है, तो वे भी समाज की देन हैं और यदि विद्वान् तथा ज्ञानियों के सत्संग से उन्नति करता है तो वे भी समाज के ही अंग हैं। इसलिए किसी प्रकार की सामर्थ्य या शक्ति प्राप्त करके एकांत में जा बैठना और उसका उपयोग समाज के हित के लिए न करना स्पष्टतः अपने कर्तव्यपालन से विमुख होना ही है। नानक जी ने अपनी वाणियों में इस तथ्य को अनेक स्थानों पर स्पष्ट किया है-
जोग न खिंथा जोग न डंडे जोग न भसम चढ़ाइये।
जोग न मुँदी मुंड़ मुड़ाइये जोग न सिंगी वाइये॥
अंजन माहि निरंजन रहीये जोग जुगति तउ पाइये।
अर्थात् ‘‘भगवा कपड़ा पहिन लेने, दंड धारण कर लेने, भस्म लपेट लेने, मूँड़ मुड़ा लेने, शंख बजाने से योग नहीं हो सकता। ये सब योग के बाह्य उपकरण हैं। सच्चा योग तो वह है जब मनुष्य माया के संपर्क में रहकर भी उससे अलग- अप्रभावित रह सके।’’ घर- बार छोड़ के सुनसान वन में जा बैठने से योगी की निर्लिप्तता का कोई प्रमाण नहीं मिलता, क्योंकि जब किसी प्रकार की प्रलोभन की सामग्री ही सम्मुख न हो तब त्यागी और संयमी रह सकने का अधिक महत्त्व नहीं माना जा सकता। इस संबंध में परमहंस देव श्री रामकृष्ण का उदाहरण बड़ा प्रभावशाली है। जब वे २३ वर्ष के थे तब माता- पिता के कहने से उन्होंने एक छोटी कन्या से विवाह कर लिया। बाल्यावस्था में वह प्रायः अपने माता- पिता के यहाँ ही रहती थी। पर जब वह १८ वर्ष की हुई और उन्होंने अनेक लोगों को यह कहते सुना कि रामकृष्ण तो पागल हो गए हैं तो वह घर से कलकत्ता चली आईं और परमहंस जी के साथ दक्षिणेश्वर के बगीचे में ही रहने लगी। वह पत्नी की तरह उनके साथ ही सोती थी, पर परमहंस देव के मन में एक दिन भी काम विकार उत्पन्न न हुआ। परमहंस देव का स्वर्गवास हो जाने पर जब कुछ शिष्य उनका अनुकरण करने की चर्चा कर रहे थे तो स्वामी विवेकानंद ने उनसे कहा- ‘‘तुम गुरुजी का अनुकरण क्या कर सकोगे?" न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। अरे ऐसा कौन है, जो नवयुवती पत्नी के साथ वर्षों तक एक शैया पर शयन करता रहे और फिर भी काम विकार से बचा रहे। यह साँसारिक मनोवृतिरखने वाले साधकों के बस की बात नहीं है।’’
यही बात गुरु नानक की नारी संबंधी उक्तियों से प्रकट होती है। भारतीय संतों में से अधिकांश ने नारी की निंदा ही की है और उसको परमार्थ का विरोधी और नरक का द्वार बतलाया है। कबीर जैसे स्वतंत्र चिंतक ने भी ‘‘कामिनि काली नागिनी तीनों लोक मँझारि", कहकर उसे सर्पिणी के समान बतलाया है। यह भी कहा है कि ‘‘नारी सेती नेह ,, बुधि विवेक सब ही हरे’’ अर्थात् नारी का संपर्क बुद्धि- विवेक को नष्ट करने वाला है। गोस्वामी तुलसीदास जैसे महान् भक्त ने भी कहा है-
सुन मुनि कह पुराण श्रुति संता ।।
मोह विपिन कह नारि बसंता ।। ।।
जप तप नेम जलाश्रय झारी ।।
होई ग्रीषम सोखइ सब वारी ॥
इस प्रकार उन्होंने स्त्री को पुरूष के धर्म- कर्म, आध्यात्मिक साधन को नष्ट करने वाली बतलाया है। मध्यकाल की यह विपरीत परंपरा अभी तक चली आ रही है और अधिकांश ‘‘साधु- संत’’ कहलाने वाले स्त्री को संसार का बंधन बतलाकर अपमानित और लांछित ही करते रहते हैं।
उस घोर नारी- निंदक युग में रहते हुए भी गुरू नानक ने नारी के संबंध में इस प्रकार की बात कभी नहीं कही, वरन् जगह- जगह उसके महत्त्व को ही स्वीकार किया है-
‘‘सौ किउँ मंदा आखीऐ जिस जम्मे राजान।’’
अर्थात्- ‘‘उस नारी को किसलिए बुरा कहा जा सकता है जो बड़े- बड़े राजाओं (महान् पुरूषों) को जन्म देती है।’’ आगे चलकर भी उन्होंने ‘‘मिष्ट- भाषिणी’’ सदैव पति का ध्यान रखने वाली सुहागिन स्त्री को धन्य बतलाया है। उन्होंने कहीं भी "योग और वैराग्य" ’’ के नाम पर स्त्री- पुरूषों को गृहस्थ धर्म छोड़ने का उपदेश नहीं दिया, वरन् प्रत्येक व्यक्ति को कर्म- वीर और उद्योगी बनने की प्रेरणा दी है उन्होंने कहा है कि आदर्श व्यक्ति वही है, जो परिश्रम करके धन- उपार्जन करता है और फिर उसे जरूरतमंदों की सहायता में खर्च करता है-
घाल खाय किछु हत्थहुँ देहि ।।
नानक राह पिछातहि सेई। ।।
इसलिए अठारह वर्ष की आयु में जब परिवार वालों ने आग्रह किया तो उन्होंने विवाह कर लिया। पर फिर भी उनका आध्यात्मिक जीवन ज्यों की त्यों रहा। वे प्रायः कई- कई दिन तक साधु- संतों की संगत में रहकर घर भी नहीं जाते थे। इससे उनकी पत्नी को दुःख होता था। यह देखकर एक दिन उनकी बड़ी बहिननानकी ने उनको बड़े प्रेम से समझाया कि ‘‘भाई, अब तुम घर- गृहस्थी वाले हो गये हो, इससे तुम्हें अब घर पर ही रहना चाहिए और वंश की वृद्धि करके बहू को संतोष देना चाहिए। नानक जी इस बात को मानकर घर पर रहने लगे और कुछ वर्षों में उनके दो पुत्र- श्री चंद्र और लक्ष्मी चंद्र हुए। इनमें से श्री चंद्र ने सिख- धर्म के "उदासी" संप्रदाय की स्थापना की और लक्ष्मी चंद्र ने घर की व्यवस्था को सँभालकर समृद्धि को बढ़ाया। अपने पिता के मरने पर नानक जी ने पूर्वजों की सब संपत्ति दोनों पुत्रों में बाँट दी और स्वयं सांसारिक प्रपंच से दूर ही बने रहे।
यही बात और भी संतों के संबंध में देखने में आती है। तुकाराम ने पिता की सब संपत्ति किसी न किसी प्रकार दूसरों को दे डाली, जिससे उन्हें बहुत वर्षों तक आर्थिक कष्ट और कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ीं। अन्यमहापुरूषों के संबंध में भी प्रायः यही देखने में आता है कि उनको जब कोई व्यापार- व्यवसाय करना पड़ा तो उसमें असफलता ही मिली। वास्तव में ऐसे लोगों का लक्ष्य संसारी लोगों से भिन्न ही रहता है, इसलिए या तो और लोग उनको ठग लेते हैं या वे स्वयं ठगे जाते हैं। इसलिए नानक के पिता ने उनको जिस किसी काम में लगाना चाहा, उसी में कोई न कोई अड़चन उपस्थित हो गई। जब उसने उनको खेत की रखवाली करने को कहा तो उन्होंने स्वयं ही यह कहकर पक्षियों को खाने के लिए बुला लिया-
राम दी चिड़िया राम दा खेत।
छक्को चिडि़यों भर- भर पेट। ।।
बात तो सच्ची थी और यही सच्चे, प्राकृतिक साम्यवाद का सिद्धांत है। प्रकृति ने संसार में जो कुछ उत्पन्न किया है। वह बिना किसी भेदभाव के सब प्राणियों के उपयोग के लिए ही है। पर इस सीधी- साधी सच्चाई को मनुष्य स्वीकार कब करता है? वह तो प्रत्येक स्थान में दीवारें खड़ी करता, फाटक लगाता और ताला बंद करता है। इसलिए अगर देखने वालों को उनका यह कार्य मूर्खतापूर्ण जान पड़ा हो तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
अतएव पिता ने उन्हें खेतों पर जाने से मना कर दिया। कुछ समय बाद कुछ रुपया देकर व्यापार करने को भेजा तो उन्होंने सब रुपया भूखे लोगों को खिला दिया, क्योंकि उनकी दृष्टि में सबसे लाभदायक व्यापार यही था !पर पिता तो इस मूर्खता पर इतना रुष्ट हुए कि उन्होंने नानक जी की अच्छी तरह पिटाई की। यह देखकर बहिननानकी ने उनका भार अपने ऊपर लिया और अपनी ससुराल ले जाकर स्थानीय नवाब के मोदी- खाने में नौकर करा दिया।
पर वहाँ भी नानक जी का निराला स्वभाव कायम रहा। वे दीन- दुःखी और साधु- संतों की सहायता के लिए सदा प्रस्तुत रहते थे और उनके घर पर सदावर्त- सा लगा रहता था। यह देखकर कुछ लोगों ने नवाब को सूचित किया कि नानक मोदीखाने को लुटाये दे रहा है। पर जब किसी अधिकारी द्वारा जाँच की गई तब सौभाग्य से या दैवी कृपा से हिसाब ठीक निकला। इस पर नवाब कुछ शर्मिंदा हुआ और नानक जी से नौकरी करने को कहता रहा। पर अब इन्होंने सांसारिक झंझट मोल लेना व्यर्थ समझा और गृह त्यागकर भटकती हुई मानवता को सत्यमार्ग का संदेश देने को निकल पड़े।
गुरु नानक की जीवनी का यह अंश महाराष्ट्र के महान् संत तुकाराम से बिल्कुल मिलता हुआ है। उन्होंने संसार में जितने व्यापार किए, सबमें अपनी परोपकारी मनोवृति के कारण घाटा ही उठाना पड़ा। उनके घर में लेन- देन का कार्य होता था। लेने को तो सब तैयार थे, पर चुकाने को कोई न था। इसलिए अंत में उनका दिवाला ही निकल गया। और भी छोटे- मोटे अनेक रोजगार किये पर सब जगह कोई न कोई सहायता माँगने वाला आ पहुँचा और उनकी समस्त जमा पूँजी परोपकार में ही लगती चली गई। तुकाराम के माता- पिता तो छोटी अवस्था में ही गुजर गये थे, पर उनकी पत्नी जोरदार स्वभाव की थी और वह ऐसे कार्यों के लिएडाटती- डपटती थी। पर वे अपना ‘सुधार’ न कर सके। अंत में उन्होंने कर्जदारों द्वारा लिखे सब सक्के- पुर्जे और हिसाब- किताब के कागज नदी में बहा दिए और सदा के लिए रोजगार धंधे से छुट्टी पा ली।