गुरु नानक देव

गुरू नानक की दार्शनिक विचारधारा

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गुरू नानक का जन्म हिंदू परिवार में हुआ था और आरंभ में उन्होंने संत महात्माओं से जो उपदेश सुने थे, वे हिंदू शास्त्रों, वेद, पुराणों आदि पर आधारित थे। इसलिए अपने आगामी जीवन में भी उन्होंने जो कुछ उपदेश दिये, ईश्वर, सृष्टि, जीवन, मृत्यु के संबंध में जो सिद्धांत बतलाये, वे भारतीय धर्म के ही अनुकूल थे। पर वे कबीर तथा सूफी शेख फरीद के एकेश्वर के प्रतिपादन से भी काफी प्रभावित हुये थे। इसके अतिरिक्त गुरू गोरखनाथ के हठयोग का साधन करने वाले अनुयायियों तथा जैन और बौद्ध धर्म के आचार्यों के संपर्क में भी वे रहे। इसलिए उनके धार्मिक सिद्धांतों का आधार मुख्य रूप से वेदांत दर्शन रहने पर भी उसमें जैन, बौद्ध, हठयोग, इस्लाम की विचारधारायें भी न्यूनाधिक रूप में शामिल हो गई। खासकर उस पठान- शासन के युग में पंजाब मे मुसलमानी सिद्धांतों का प्रभाव काफी बढ़ गया था। मुसलिम शासकों ने तलवार के जोर से तो अपना धर्म फैलाया ही था, पर अनेक मुसलमान विद्वानों तथा संतों ने हिंदुओं के बहुदेववाद के मुकाबले में अपने एकेश्वरवाद की श्रेष्ठता भी सिद्ध की थी, जिसका असर जनता के एक भाग पर पड़ रहा था। नानक जी की भेंट जब पंजाब के सूफी- संत शेख इब्राहीम से हुई तो उन्होंने इनका आधा हिंदू और आधा मुसलमान जैसा वेष देखकर- ‘‘महाराज ! एक तरफ हो जाओ, दो किश्तियों पर क्यों पैर रखते हो?’’ नानक जी ने फर्माया- ‘‘इसमेंक्या हर्ज है, मनुष्य को दोनों नावों पर सवार होकर संतुलन बनाये रखना आना चाहिए। दीन और दुनिया दोनों एक साथ निभाई जा सकती है, यदि हृदय में सच्चाई हो।’’ 
          गुरू नानक सत्य के पुजारी थे और उन्होंने धर्म का विवेचन करने के लिए जो कुछ कहा है, वहआडंबरयुक्त वचनों और वाक्छल से रहित है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ‘‘धर्म के विषय में लंबी- चौड़ी बातें करने से कोई लाभ नहीं। सिद्धांत वही सच्चा है और ठीक माना जा सकता है, जो व्यवहार में लाया जा सके।’’ उन्होंने कहा- 
सोचइ सोचन होवइ जे सोची लख वार। 
चुप्पे चुप्पे  होवई जो लाए रवां लिवतार 
भुखयां भुक्खन न उतरी जे बन्नां पुरियां भार। 
किव सचयारा होवियौ किव कूड़े तुट्टे पाल। 
हुकम रजाई चल्लना नानक लिखया नाल। ।। 

           अर्थात्- ‘‘केवल विचार करने से कोई बात पूरी नहीं हो सकती, शांत चाहे लाख बार सोचते रहो। इसी प्रकार प्रकट में जैसे शांति रहने से भीतरी शांति प्राप्त नही हो सकती। केवल ‘‘भूख- भूख’’ मुख से कहने से भूख नहीं मिट सकती, चाहे पास पूरियों से भरे टोकरे क्यों न रखे रहें। इसी प्रकार तुम यदि सत्यधर्मी बनना और असत् से बचना चाहते हो तो उसका एक मात्र उपाय यही है कि निरतर ईश्वर के आदेश का पालन करते रहो- उसी के दिखाये मार्ग पर सदा चलो।’’ 
            चाहे कोई पूजा- पाठ, जप- तप योग आदि कितना भी करे, पर नानक जी की दृष्टि में यदि वह लोगों का उपचार- पीड़ि़तों की सेवा नहीं करता तो वह सब महत्त्वहीन है। वे तिब्बत तक गये थे और हिमालय के दुर्गम प्रदेशों में पहुँचकर सिद्ध योगियों से भेंट की थी। उन सिद्धों से भी उन्होंने यही कहा था कि- ‘‘आप तो यहाँ मोक्ष की साधना में लीन है और वहाँ संसार की दशा यह है कि समय के समान घातक हो रहा है। शासकगणकसाई बन गए हैं। धर्म पंख लगाकर उड़ गया है, चारों तरफ झूँठ की काली रात छाई हुई है, उसमें सच्चाई का चंद्रमा कहीं दिखाई नहीं देता है।’’ 
            नानक जी भगवान् के विराट् रूप के उपासक थे, इसलिए उन्हें संसार के सब पदार्थ और प्राणी भगवान् के रूप में ही दिखाई पड़ते थे। जब हम सब उसी एक अनादि- तत्त्व के अंश हैं तो आपस में लड़ाई- झगड़ा, ईर्ष्या- द्वेष कैसा? जगन्नाथ जी पहुँचने पर उन्होंने मंदिर के सम्मुख भगवान् की जो आरती उतारी थी, वह देखिए कैसी सच्ची प्रेरणा दायक है- 
गगन में थाल रविचंद्र दीपक बने 
तारिका- मंडल जनक मोती। 
धूप मलिआनलो पउणु चवरो करै 
सगल वनराइ फूलंत जोती। 
कैसी आरती होई भवखंडना तेरी आरती 
अनहता सबद बाजंत भेरी॥ 

           अर्थात्- ‘‘उस भगवान् की आरती के लिए इस आकाश रूपी थाल में सूर्य और चंद्रमा दो दीपकों की तरह प्रकाशित हैं। तारागण मोती के समान चमक रहे हैं। मलयानिल सुगंध फैला रहा है और वायु चँवर कर रही है। वनों में फूले हुए समस्त फूल उसके भेंट स्वरूप हैं और अनहद नाद शंख अथवा भेरी की तरह बज रहा है। यही उस भगवान् की सच्ची आरती है।" 

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