जगदगुरु शंकराचार्य

आध्यात्मिक अनास्थाओं का उन्मूलन

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उन दिनों यातायात के साधन नहीं थे। केवल बैलगाड़ियाँ ही उसके लिए प्रयुक्त होती थीं। घने जंगलों केबीच चलने वाले यात्रियों के सामने जंगली जानवरों द्वारा मारकर खा जाने का खतरा हर घड़ी बना रहता था कुएँ, विश्राालय, औषधालयों की भी इतनी सुविधाएँ न थी। दस्युओं तथा तस्करों की कमी न थी। दिन में भी चलते रराहगीर लूअ लिए जाते थे। इन सब कष्टों के होते हुए भी शंकराचार्य नेवहीं मार्ग अपनाया, जो महापुरूष अपनाया करते हैं। उन्हें अपने धर्म, कर्तव्य,उत्तरदायित्वएवं पूर्वजों के ज्ञान- गौरव का इतना आत्माभिमान था कि , उन्होंने अनेक संकटों को भी तृणवत् माना। सच तो यह है कि- कठिनाइयाँ ही सच्चे सेवा भावी पुरूषों की कसौटी हैं, जो कष्अ नहीं सह सकता , कठिनाइयों में भी धैर्य और आत्मसंतोषपूर्वक अपने ध्येय में नहीं जुटा रह सकता,वहसच्चा सेवाभावी और आदर्श-प्रेमी नहीं हो सकता। व्यक्तित्व संघर्षो में निखरता है। शंकराचार्य ही तो क्या; राम, कृष्ण, बुद्ध जैसे अवतारी पुरूष भी कठिनाइयों से अछूते नहीं हो सके। हर धर्म -प्रेमी और समाज-सेवी ने उत्पीड़न सहे हैं, शंकराचार्य उससे कैसे बच पाते?

उन्होंने अनेक संकट सहते हुए धर्म प्रचार का कार्य शुरू किया। पैदल चलते थे। कभी भोजन ही नसीब नहीं होता था तो कभी दिन-दिन प्यासे ही रह जाते थे। पहाड़ थकाकर चकनाचूर कर देते, पथ की लावा ५सी तपती धूप से पैरों में छाले पड़ जाते। भगंदर कर फोड़ा था, फिर भी जगद्गुरू शंकराचार्य सब सहन करते हुए वेदांत का,धर्म के यथार्थ स्वरूप का प्रसार करते रहे। एक बार तो उन्हें एक ईर्ष्यालुप्रतिद्वंद्वी ने विष दे दिया। कई बार उन पर मर्मांतक प्रहार किए गए, फिर भी वज्रांगी हनुमान् की तरह सारे के सारे आघात दुर्बल शरीर पर सहन करते हुए , वे परिभ्रमण ही करते रहे।गांधार , कंबोज, काश्मीर, तक्षशिला, बंगाल, बिहार,राजगृह,नालंदा, गया, कामरूप, नेपाल,उत्तर गुजरात, काइियावाड़, मध्य प्रदेश, दक्षिण भारत-देश का कोई भी ऐसा कोना न बचा था, जिस जगह उन्होंने शुद्ध अध्यात्म का संदेश न पहुँचाया हो। संगठन और सांस्कृतिक एकता के प्रयास- सारे देश का विस्तृत भृमण करने के साथ-साथ शंकराचार्य ने सारे प्रांतों की विभिन्न परिस्थितियों का भी गहन अध्ययन किया। उन्होंने अनुभव किया कि - देश में व्यापक स्तर पर फैले धार्मिक भ्रष्टाचार एकाकी प्रयत्नों से दूर किये जाने सम्भव नहीं हैं। जहाँ भी लोगों ने उनके प्रवचन सुने और धम र्के नये सवरूप की झाँकी पाई, वहाँ लोगों ने अपनी मनोवृत्तियाँ भी बदलीं, पर प्रतिक्रियावादी तत्व भी उग्र हो उठे। कई धर्माचारियों एवं पाखंडियो ने तो उन्हें मरवा डालने तक के षड्यंत्र किए। शंकराचार्य के प्रस्थान कर जाने के बाद प्रतिक्रियावादी लोग अपना कुचक्र रचते औरलोगों को विभ्रमित करते। शंकराचार्य ने अनुभव किया, ऐसा नहो, इस तरह सारे देश में धर्म के प्रति थोड़ी रही- सहीं आस्थाएँ भी समाप्त हो जाएँ, इसलिए उन्होंने संगठित प्रयत्नों और सामुहिक रचनात्मक कार्यों की तीव्र आवश्यकता अनुभव की। उन्होंने दूसरी बार का भ्रमण संगठन की ष्टि से किया। जिस समय वे प्रयाग में थे, एक दिन इन्हीं विचारों में डूबे हुए एक तरफ चले जा रहे थे कि सामने से आ रहे चांडाल ने उन्हें छू लिया। शंकराचार्य ब्राह्मण कुल में जनमें थे और छुवाछूत की परिस्थितियों में पले थे। धर्म प्रचार करने और लोगों के कल्याण की बातें करने पर भी वह पुराने संस्कार क्रियाशील थे। उन्हें अछूत के स्पर्श से बड़ा क्रोध आया। उसे वहीं फटकारने लगे, तो उस चांडाल ने हंसकर कहा- साधु प्रवर, आप तो कहते हैं, वह ब्रह्म ही सर्वभूत प्राणियों में समाया हुआ है, वह अलग- अलगरूपों में क्रियाशील होने पर भी एक है, उसके गुण, कर्म, स्वभाव में अंतर नहीं आता, फिर भी आप मनुष्य-मनुष्य में भेद करते हैं, छूत-अछूत मानते हैंक्या यहीं आपका धर्म है? शंकराचार्य ने चांडाल के बातों पर ध्यान से विचार किया तो उन्हें अपनी भूल मालूम हुई। उन्होंने उन्से क्षमा माँगी।

जगद्गुरू को उस दिन व्यवहारिक अद्वैत का बोध हुआ। ‘‘मनीसा पंचकम्’’ इस घटना के बाद ही लिखा, जिसमें उन्होंने ब्रह्म के विराट् स्वरूप का दिग्दर्शन कराया है और लिखा है- यह विराट् विश्व ही परमात्म का रूवरूप है। वहीं सम्पूर्ण जीवधारियों,वृक्ष, वनस्पति, जल, थल में भावना रूप से विद्यमान है। उसी की चेतना वायु में प्राण बनकर इधर से उधर घूमती है।अग्नि में दाहकता बनकरजलाती है, जल में विद्युत् बनकर प्रकाश और जीवन देती है। अनंतर ग्रह-नक्षत्रों और लोक- लोकांतरों में ही चेतना सव्रव्याप्त , सत् और चेतनशील है। उस निराकार विराट् ब्रह्म का ध्यान करने में मनुष्य की अर्न्तवृत्तियाँ विकसित होती हैं। और विशाल बनती हैं। उसी ब्रह्म की ज्ञान आराधना करने से मनुष्य के कष्ट दूर होते है और जीवन लक्ष्य की पूर्ति होती है।

शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्-

प्रयाग भी उस समय नास्तिकता और अत्याचार के अभाव से अछूता न रहा पाया था। सेट्अिराज का पुत्र रत्नभद्र भी उसमें फंसकर चारित्रिक दुर्बलता के कारण अपना स्वास्थ्य गँवा बैठा था। असंयमित जीवन ने उसके शरीर कर सारा तेज और सत्तव पी लिया था। निर्बल शरीर कष्ओं का घर होता हैऔर दुश्चरित्रा पतन और अशांति का कारण। रत्न-भद्र इन सब बातों से इतना क्षुब्ध हो चुका था कि उसने आत्म- हत्या करने की योजना बना डाली। संयोगवश शंकराचार्य की उससे भेंट हो गई। शंकराचार्य भगवान् ने इसके लिए उसे बहुत धिक्कारा। उनहोंने कहा - यह शरीर आत्मा का वाहन है। पूर्ण आनंद की प्राप्ति के लिए इस शरीर में जीवात्मा का अवतरण हुआ है। जो लोग बुद्धि और विवेक के द्वारा इस शरीर की शक्तियों का उपयोग करते हैं; वे लौकिक धर्म, अर्थ और कामनाओं की पूर्ति करते हुए भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। अर्थात् यह शरीर ही निवृत्ति का माध्यम भी है। अब-तक जो बुराइयाँ हुई रत्न-भद्र! उन्हें दूर करो, संयमित जीवन बिताओ, स्वास्थ्य और समर्थता बढ़ाओ। मनोनिग्रह से यह संभव है। अभी तक विषयों में आसक्त रहे हो, अब मनुष्य जीवन का सदुपयोग करना सिखा। उसमें लिप्त न रहकर जिस दिन जीवन को एक कुशल नाट्यकार की तरह खेलोगे,उस दिन तुम्हारे जीवन का पारावार न रह्वहेगा

शोकग्रस्त रत्नभ्रद्र ने शरीर की उपयोगिता और मनुष्य जीवन का उद्देश्य समझा। उस दिन से वह शंकराचार्य का शिष्य बन गया और अपना शेष जीवन लोक कल्याण में लगाया।

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