जगदगुरु शंकराचार्य

संक्षिप्त जीवन परिचय

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जिस बालक के मन में भारतीय संस्कृति, धर्म और दर्शन के प्रति किशोर अवस्था से ही इतना स्वाभिमान और त्याग भावना थी। वह और कोई नहीं जगदगुरू शंकराचार्य थे। जिन्होंने तत्कालिन अनाचार और अंधविश्वासों से राष्ट्र जननी का उद्धार ही नहीं किया, वरन् सारे देश को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोने का गुरूतापूर्ण कार्य भी सम्पन्न किया। भारत ही नहीं सारा विश्व उनके त्याग और बलिदान का ऋणि है।

भज प्रबंध आदि के घटना प्रसंगों से अनुमान लगाया जाताहैकि, जगद्गुरू शंकराचार्य का जन्म सन ७८८के लगभग, आज से १२१२ वर्ष पूर्व केरल प्रांत के एक छोटे-से ग्राम कालड़ी में हुआ। इनके पिता शिवगुरू ग्राम मंदिर के तरज- नियुक्त पुरोहित थे, साथ ही भगवान् के प्रति श्रद्धा और विश्वास अविचलित थी। शंकराचार्य की माता कामाक्षी भी वैसी ही सरल और धर्म परायण थी। असंभव, सम्भव हो सकता था, किंतु शिवगुय की ईश्वर निष्ठा इतनी प्रगाढ़ थी कि उसे आज तक कोई हिला न पाया था। वे नियम पूर्वक ईश्वर- उपासना करते थे। ग्राम वधुएँ शिवगुरू की पूजा समाप्ति के बाद जब शंखध्वनि होती, तो फिर बिना विलंब किए अपने कार्यों के प्रबंध में चली जातीं । उनका विश्वास था कि घड़ी फेर होती है, पर शिवगुरू की उपासना के समय में कभी अन्तर नहीं आ सकता। शिवगुरू को कोई अभाव न था, पर उसके कोई संतान न थी। ४०वर्ष की आयु बीत जाने पर भी जब कोइ्र संतान न हुईं तो देवी कामाक्षी बहुत दुःखी रहने लगीं। वह अपना दुःख अपने पती से भी व्यक्त करतीं, तो शिवगुरू हँसते हुए उत्तर देते- पगली हुई हो कामाक्षी, गाँव के सारे बच्चे अपने ही तो हैं, इनकी खुशी में क्या परमात्मा की मुस्कान नहीं दिखाई देती। सब तेरे ही बच्चे हैं, जिसकी सेवा करो- वही अपना है। फिर क मी किस बात की, जब सारा संसार ही अपना है। सब बच्चे अपने ही तो हैं।

नारी- हृदय तो आखिर नारी-हृदय ही ठहरा,कामाक्षी को संतोष नहुआ, पर शिवगुरू को तो भगवानके विधान पर आस्था थी। वह जब कभी भगवानशिव के प्रतिमा के सामने जाते और निःसंतान होने की बात उनके मन में आती तो वह यहीं कहते-भगवान!यदि देना हो तो ऐसी संतान देना, जो संस्कारवान हो, लोक मंगल के लिए जो आत्म सुखों का बलिदान दे सके, जिसके अंतःकरण में धर्म और मानवता के प्रति सच्ची आस्था हो , जो निःस्वार्थ भाव से लोकः सेवा कर सके। यदि ऐसा संभव न हो तो मुझे निःसंतान ही रखना।

सच्ची और निःस्वार्थ आकांक्षाएँ कभी अधुरी नहीं रहतीं। बालक शंकर का जन्म इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। शिवगुरू की जैसी आकांक्षा थी वैसा ही उनका शुद्ध और पवित्र व्यक्तित्व जीवन भी था। संस्कारयुक्त वातावरण में ही संस्कारवान एवं प्रतिभाशाली आत्माएँ जन्म लेती हैं, फिर यदि शिवगुरू का मनोरथ भी इसी तरह पूर्ण हुआ तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं।

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