जगदगुरु शंकराचार्य

साधना के लिए प्रस्थान

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माँ से विदा होकर आगे बढ़े, उन्होने विचार किया कि-सर्व प्रथममुझेज्ञान-संचय और आत्म- दर्शनकी साधना द्वारा वह शक्ति अर्जत करनी चाहिए,जो लोगों को प्रभावित कर सकेऔर संघर्षो में सहिष्णुता एवं धैर्य पूर्वक काम करने की शक्ति देती रहे। इसके लिए किसी योग्य मार्गदर्शक कीतलाश करनी चाहिए। आत्म- शक्तियों को प्रबुद्ध किये बिना राष्ट्र की विशाल आध्यात्मिक मान्यताओं को व्यवस्थित करना संभव न होगा।

शंकर का घर छोड़ देने का समाचार सारे केरल राज्य में हवा की तरह फैल गया। राज- नरेश राजशेखर को उनकी बौद्धिक प्रतिभा का पता पहले ही चल चुका था।वे स्वयं आकर शंकराचार्य से से मिले और उन्हें राज-पंडित नियुक्त करने का प्रस्ताव किया। शंकराचार्य ने प्रलोभन ठुकराते हुए कहा-‘‘राजन! संसार में जो बुद्धिमान् लोग हैं, उन्हें अपनी आवश्यकताएँ सीमित करके समार-सेवा के ब्राह्मण व्रत का भी पालन करना चाहिए। विद्या, ज्ञान, सदाचचार , न्याय,नैतिकता तथा धर्म निष्ठा से सामाजिक जीवन ओत-प्रोत रहे; स्वार्थ, कलह, कुटिलता, कुविचार से लोग बचे रहें, यह उत्तरदायित्व राजा का नहीं, उन व्यक्तियों का हैं जो प्रबुद्ध हैं। जिन्हें सांसारिक परिस्थितियों और विश्व -वैचित्र्य का यथेष्ट ज्ञान हो, उन्हें समाज का नैतिक मार्ग- दर्शन करना चाहिए। जिन राज्यों में, देशों में, समाजों में यह परंपरा चलती रहती है,राजन! उस देश और समाज के लोग परस्पर एक दूसरे के उन्नति करते हुए अपने मनुष्य जीवन का लक्ष्य पूरा कर लेते हैं।

उन्होंने आगे कहा-‘‘राजन्! अपने देश के तो सारी प्रगति ही इस व्यवस्था पर ठहरी है। वैश्य का कर्तव्य है कि वह उपार्जन का एक अंश लोक कल्याण के लिए निकालता रहे। जिनके पास धन है, उन्हें उसे अपना ही नही मानना चाहिए। जिस समाज से खिंचकर पैसा उनके पास गया है। यदि वह उसकी भलाई में काम नहीं आता तो पैसे वाले बेईमानी करते हैं। शिक्षा संवर्द्धन के लिए पुस्तकालयों, विद्यादान करने वाली पाठशालाओं, मंदिरों , गौ- शालाओं आदि की सुरक्षा और प्रबंध के लिए उनको अपनी आाय का एक अंश निकालते रहना चाहिए।’’ ‘‘क्षत्रिय शारीरिक शक्ति- शैर्य और संगठन से राष्ट, का बाह्य और आंतरिक आक्रमणों से रक्षा करें। बदमाशों को दंड देना, सत्पुरूषों की रक्षा करना- यह राज कर्तव्य है। राजाओं और क्षत्रियों का दुर्व्यसन, भोग अत्याचार उत्पीड़न से शक्ति प्रदर्शन नहीं, प्रजा पालन और दुष्टों से शक्तिपूर्वक समाज की रक्षा करनी चाहिए।’’

किंतु ब्राह्म का कर्तव्य इन सबसे सर्वोपरि है।वह समाज की आत्मिक , धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं , सत्परम्पराओं, को जीवित और जाग्रत् रखता है। भूले, भटके, अज्ञानी, दलित, पथ-भ्रष्ट लोग हैं, उन्हें राह पर लाने और सामान्य लोगों का आध्यात्मिक मार्गदर्शन ब्राह्मणों का कार्य है। यह कार्य जहाँ होता रहता है, वहाँ के लोग खुशहाल और सम्पन्न होते हैं। यह सारी जिम्मेदारीयाँ तो ब्राह्मणों की होती हैं।

ब्राह्मण निर्लोभ और निष्काम भाव सेजब तक इस देश की सेवा करते रहते हैंतब तक देश विद्या, बल, ज्ञान, गुण और धन संपत्ति से पूर्ण सुखीर रहा। आज प्रबुद्ध व्यक्ति भीअपनी स्वार्थो, विलास सामाग्रियों के संचय में, ज्ञान साधन से पथ भ्रष्ट हो रहें हैं। राजन! राजन उनका प्रमाद सारे देश में देख रहे हैं। मैं सारे देश को अपना घर, अपना कार्य क्षेत्र मानता हूँ। इसलिए आपका प्रस्ताव स्वीकार करने में असमथ्र हूँ। मुझे अपने सुविधा की अपेक्षा देश के आध्यात्मिक उत्थान का ज्यादा ध्यान है।

‘‘यहीं बात है तो आप जिस देवालय में रहना चाहे ं वहाँ आपके लिए समुचित व्यवस्था करा दूँ अथृवा किसी विशेष स्थान पर ही सुविधा हो तो वहाँ आपके निवास आदि का प्रबंध करा दें’ राजा ने अभ्यर्थना की श्री शंकराचार्य ने उसी दृढ़ता , किंतु विनीत और अविचलित भाव से कहा- ‘‘महाराज आज मेरी सुविधा का सवाल नहीं,मुख्य प्रश्न सारे राष्ट्र की अध्यात्म,सामाजिक व्यवस्थाओं, में सुधार का है। सर्वत्र धर्माडंबर,नास्तिकता अंधविश्वास मूढ़- प्रथाएँ प्रचलित हैं,जन जीवन गर्हित हो रहा है,मैं एक स्थान पर बैठा नहीं रह सकता। मैं सारे भारत वर्ष को एक सांस्कृतिक सूत्र,एक-सी वैदिक मान्यताओं में बाँधने का रचनात्मक प्रयास करूँगा, उसक लिए मुझे सव्रत्र भ्रमण करना चाहिए, ज्ञान ज्योति की पिपासुओं को तृप्त करना चाहिए।

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