राजा राममोहन राय (सन् १७७४ से १८३३) इस संक्रातिकाल में उत्पन्न हुए थे। वे जन्म से कट्टर वैष्णव थे और बाल्यावस्था में 'भागवत्' का पाठ करके ही भोजन करते थे। पर जब उन्होंने हिंदू धर्म की इस गिरती हुई दशा को देखा और ईसाई- धर्म को दिन पर दिन उन्नति करते पाया, तो उनका मनोभाव बदलने लगा। उन्होंने समझ लिया कि यदि हिंदू- धर्म में थोडी़- सी प्रचलित रीति- रिवाजों का ही नाम है और बिना सोचे- समझे केवल मूर्तियों को सिर झुका देना, उन पर कुछ फूल- पत्ता चढा़ देना, बताशों और लड्डुओं का भोग लगा देना ही इस धर्म का मुख्य लक्षण है तो इसका अंत हो जाना ही अच्छा है। पर उनका हृदय हिंदू धर्म के ऐसे बिगडे़हुए रूप को सच्चा धर्म मानने को तैयार न था। उन्होंने वेदों और उपनिषदों का अध्ययन किया था और वे उनके उच्च तत्त्वज्ञान से परिचित थे। इसलिए वे उन्हीं उच्च सिद्धांतों को प्रकाश में लाने का विचार करने लगे।
उनके हृदय में भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा थी और जाति- प्रेम भी कम न था। इसलिए उनको यह सहन न हो सका कि एक विदेशी धर्म, जिसमें बाह्य गुणों के सिवा गंभीर दार्शनिक तत्त्वों का बहुत अभाव है, हिंदू धर्म को पददलित करें। साथ ही प्रचलित धर्म में भी उनको यह शक्ति दिखाई नहीं पड़ती थी, जो इन प्रबल आक्रमणों को सहन कर सके।
राममोहन राय इन तथ्यों पर विचार करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जब तक हिंदू- धर्म का नव- संस्कार नहीं किया जायेगा, तब तक न तो वह अन्य धर्मों के आक्रमण से अपनी रक्षा कर सकेगा और न अपने देश और संसार की उन्नति में कुछ सहयोग दे सकेगा। यह निश्चय करके, उन्होंने उस समय प्रचलित मूर्ति- पूजा के दोष दिखलाना आरंभ किया और "हिंदुओं की पौत्तिक धर्म- प्रणाली" नाम की पुस्तक लिखी। उनके ऐसे विचार देखकर उनके धर्मभीरू पिता श्री रामकांत राय उनके विरुद्ध हो गये और आपस में वैमनस्य होने लगा। जब राममोहन राय अपने विचारों को छोड़ने को तैयार न हुए और मूर्ति- पूजा के विरुद्ध उनके विचारों की सर्वसाधारण में बुराई होने लगी, तो रामकांत ने उनको 'अधर्मी' कहकर घर से निकाल दिया। उस समय उनकी आयु केवल सोलह वर्ष की थी।