राजा राम मोहन राय

ब्रह्म- समाज की स्थापना

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अपने इस समाज- सुधार संबंधी सिद्धांतों का प्रचार करने के उद्देश्य से राममोहन राय ने कलकत्ता में अपने कुछ मित्रों और सहयोगियों को लेकर सन् १८१५ में ही 'आत्मीय सभा' के नाम से एक संस्था स्थापित की थी। इसमें प्रति सप्ताह वेद- पाठ होता था और ब्रह्म- संगीत गाये जाते थे। कुछ लोग ऐसे ही परीक्षा लेने के विचार से इसमें आते थे, पर अपने संकीर्ण विचारों के कारण फिर छोड़ देते थे। एक जय कृष्णसिंह नामक व्यक्ति ने इसको छोड़ कर यह अफवाह फैलाई कि 'आत्मीय- सभा' में सब मिलकर बैल को काटते हैं? इस प्रकार के विरोध के कारण अनेक लोग इनको छोड़कर चले गये तो भी वह अपने विचारों पर दो- चार मित्रों के साथ प्रतिदिन 'परमात्मा की प्रार्थना' कर ही लेते थे। विरोधियों ने राममोहन राय पर कुछ लोगों को भड़काकरझूठे- सच्चे मुकदमे भी चलवा दिये, पर तब भी वे निराश नहीं हुए। सन् १८१९ में सभा का एक बडा़ अधिवेशन हुआ। उसमें पुराणपंथियों के नेता राजा राधाकांत देव अनेक शास्त्रियों को लेकर आये और राममोहन राय के सिद्धांतों को गलत साबित करने की बहुत चेष्टा की, पर विजय राममोहन राय की ही हुई। 
            इस प्रकार आठ- दस वर्ष चलने के पश्चात् ऐसा समय आया जब राममोहन राय और उनके सहयोगी श्री द्वारकानाथ ठाकुर, कालीनाथ मुंशी, प्रसन्न्कुमार ठाकुर आदि ने निश्चय किया कि इस संस्था को स्थायी रूप प्रदान किया जाये। तब उन्होंने १८२८ में एक मकान किराये पर लेकर इसको 'ब्रह्म- समाज' के नाम से स्थापित किया और उसके उद्देश्य इस प्रकार निश्चित किए- 
() वेद और उपनिषदों को मानना चाहिए। 
() इनमें एक ईश्वर का प्रतिपादन किया गया है। 
() मूर्तिपूजा वेदानुकूल नहीं है इसलिए इसे त्याज्य समझा जाये। 
() बहु- विवाह, बाल- विवाह, सती प्रथा सब वेद विरुद्ध और त्याज्य हैं। 
() ईसाई- धर्म में भी बहुत से अच्छे लोग हैं, परंतु ईसाई- धर्म किसी तरह हिंदू- धर्म से श्रेष्ठ नहीं हो सकता। यह आवश्यक नहीं कि शासकों के धार्मिक विचार भी उच्च और सत्य हों। यह उनकी बडी़ भूल है कि वे पराजित जाति पर अपने धर्म को आरोपित करें। 
           इस समाज का प्रचार बढ़ने लगा और सन् १८१९ में ही इसके निजी भवन की नींव रख दी गई और उसी वर्ष सभा का कार्य उसमें होने लग गया। राममोहन राय ने इसकी नियमावली और उपासना- पद्धति ऐसे बनाने की चेष्टा की थी, जिससे उसके सदस्यों में मतभेद का अवसर ना आवे, उन्होंने कहा कि किसी संप्रदाय में तीन बातों पर ही मतभेद हुआ करते हैं- (१) उपास्य देवता के विषय में, () उपासक कौन हो सकता है? () उपासना प्रणाली। 
() पहली बात के संबंध में राममोहन राय का मत था कि ब्रह्मांड का उत्पन्नकर्त्ता, रक्षणकर्त्ता और संहारकर्त्ताअनादि, अगम्य, अपरिवर्तनशील, सर्वव्यापी परमात्मा ही उपासना के योग्य है। किसी प्रकार के सांप्रदायिक नाम से उसकी उपासना करनी ठीक नहीं। 
() उपासक कौन हो सकता है? जो हार्दिक श्रद्धा से प्रेरित होकर परमात्मा की उपासना करने आवे, उसके लिए ब्रह्म- समाज का दरवाजा सदा खुला है। वह किसी जाति, किसी संप्रदाय, किसी धर्म, किसी समाज और किसी देश का हो, इसका कुछ विचार न किया जायेगा, समाज- भवन में उपासना करने का सबको पूर्ण अधिकार है। 
() उपासना प्रणाली क्या होगी? कोई चित्र, मूर्ति या आकार वाली मूर्ति कदापि काम में न लाई जायेगी। भोग, प्रसाद, बलिदान, मानता आदि कोई सांप्रदायिक बात न होगी। किसी प्रकार का खान- पान, भंडारा आदि न होगा। किसी मनुष्य या समाज की यहाँ हँसी, निंदा, चित्त दुःखाने वाली बात न होगी, जिससे सृष्टिकर्त्तापरमात्मा का ध्यान, धारणा बढे़ और प्रेम, नीति, दया, भक्ति, साधुता की उन्नति हो, ऐसे ही उपदेश और संगीत यहाँ पर होंगे और किसी प्रकार के नहीं। 

राममोहन राय ने कोई नया धर्म नहीं चलाया- 

           इस प्रकार राममोहन राय ने कोई नया धर्म नहीं चलाया, वरन् प्राचीन भारतीय मान्यता को ही फिर से आजकल की भाषा और शैली में प्रकाशित किया। निराकार ईश्वर की उपासना क्या नई बात है? हजारों ऋषि- महर्षि निराकार की उपासना ही करते रहते हैं। सब उपनिषदों में निराकार परमात्मा की ही उपासना भरी हुई है। सब जाति, वर्ग और संप्रदाय वाले एक ही प्रकार से निराकार ईश्वर की उपासना करें। यह प्रचलित प्रथा के विरुद्ध जान पड़ता था। पर इसमें भी नया कुछ नहीं था क्योंकि आरंभ में जाति, वर्ण, संप्रदाय थे ही नहीं, तब उपासना के विषय में किसी को कैसे पृथक् किया जा सकता था? इसी के आधार पर राममोहन राय ने कहा- "ब्राह्मण और चांडाल, हिंदू और मुसलमान सब आओ और भाई- भाई बनकर एक निराकार ईश्वर की उपासना करो। सब भेदभाव भूलकर, सार्वभौमिक भाव से एकमात्र निराकार, अगम्य अनादि परंब्रह्म की पूजा करो।" पर द्वेष बुद्धि वालों को इसमें भी अधर्म और पाप ही जान पडा़ और वे उनको क्रिस्तान, म्लेच्छ आदि बतलाने लगे, यद्यपि श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने भी यही बात कुछ इस प्रकार कही है- 
विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। 
शुनि चैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः। 

(अध्याय - १८) 
          अर्थात्- "पंडित लोग विद्या- विनययुक्त ब्राह्मण तथा चांडाल में, हाथी, गौ और कुत्ते में समभाव रखने वाले होते हैं।" 
          पर एक आजकल के पंडित हैं, जिन्होंने 'टका- धर्म' को अपना रखा है और समभाव तथा विश्वबंधुत्व की बातों को अर्थवाद (प्रशंसात्मक) कह कर टाल देते हैं। ऐसे ही 'पंडितगण' राममोहन राय से लेकर गांधी जी तक को 'नास्तिक और पापी' बतलाते आए हैं और अंधविश्वास के गर्त में पडी़ अशिक्षित जनता को बहकाते रहते हैं। राममोहन राय के प्रयत्नों को नष्ट करने के लिए उन्होंने भी 'धर्म- सभा' कायम कर दी थी। इस सभा का यही काम था कि हर तरह से ब्रह्म- समाज की बुराई करें। राममोहन राय ने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए 'संवाद कौमुदी' नामक पत्र निकाला, तो 'धर्म सभा' वालों ने भी 'चंद्रिका' नाम का समाचार- पत्र प्रकाशित करना आरंभ कर दिया। शहर के बडे़- बडे़ जमींदार और धनी लोग उत्साहपूर्वक उसमें भाग लेने लगे और एक लाख का 'फंड' उसके संचालन के लिए इकट्ठा किया गया। चितपुर रोड के एक बडे़ मकान में सभा का अधिवेशन होता था। कहते हैं कि उस समय तमाम रास्ता इन लोगों की गाडि़यों से रुक जाता था। 
           एक तरफ ऐसे 'धर्म- मूरत' धनी, जमींदार और पूजा- पाठ से पेट भरने वाले पंडित लोग थे और दूसरी तरफ एक निराकार ब्रह्म की उपासना को ही सत्य समझने वाले राममोहन राय और उनके थोडे़- से उत्साही सदस्य थे। एक लेखक के कथनानुसार "जो राममोहन राय की संस्था में सम्मिलित हुए थे, वे भी सर्व साधारण में बडी़ निंदा की दृष्टि से देखे जाते थे और उन पर उँगलियाँ उठती थीं। रास्ते में निकलते हुए लोग उन्हें सुना- सुनाकर 'नास्तिक' पाखंडी, धूर्त, आदि उपाधियों से विभूषित करते रहते थे। एकमात्र परमात्मा पर विश्वास रखकर और अपने नेता के प्रोत्साहन से वे सब अत्याचार शांति से सह लेते थे। न उन लोगों के पास जन- बल था, न धन- बल और न कोई ऊपरी आडंबर, पर धर्म- सभा का आडंबर बडा़ भारी था। उसकी सजावट और तड़क- भड़क से साधारण बुद्धि वाले यही समझते थे कि 'ब्रह्म- समाज' अब छूमंतर की तरह उड़ जायेगी। किसे आशा थी कि यह छोटा- सा वट का बीज एक दिन विशाल वृक्ष बन जायेगा? 
          "धर्म- सभा वालों ने अपना यही कर्तव्य बना लिया था कि जहाँ बैठना 'ब्रह्म- समाज' की निंदा अवश्य करना। वे लोगों को ब्रह्म- समाज में जाने से रोकते थे और जो रोकने पर भी चले जाते थे, उन्हें 'जाति बाहर' होने का दंड दिया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि घर- घर में कलह होने लगा तथा बाप- बेटे में और भाई- भाई में वैमनस्य उत्पन्न हो गया। जो ब्राह्मण किसी ब्रह्म समाजी के घर से दान ले आता था, उसे धर्म- सभा में नहीं बुलाया जाता और यह भी प्रचार किया जाता कि इसे कोई दान न दे।" 

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